कविताएँ ::
अनन्य सिद्धराज

अनन्य सिद्धराज

जब मैं मन नहीं जानता था

जब मैं मन नहीं जानता था
तब पहली बार
देखा मैंने
बुद्ध को।

शांति नहीं दिखी!
और न ही
तृप्त हुआ वहाँ बहती
करुणा और अहिंसा से।

मैंने देखे उनके
घुँघराले केश,
झुकी हुई आँखें और
उनकी मुद्रा
और तृप्त हुआ
सौंदर्य से।

अब मैं,
मन जानता हूँ।

अब मैं देखता हूँ बुद्ध को
तो दिखते हैं
बुद्ध के कंधे
और
दिखता है…
कभी बाएँ तो कभी
दाहिने कांधे से
हँसता हुआ,
खिलखिलाता हुआ
तो कभी गाल पर हाथ धरे
उदास बैठा
राहुल!

हे बुद्ध!
क्षमा करना
अब मैं,
सिद्धार्थ को भूल नहीं पाता…

स्मृति नहीं बनना

मैं प्रेम करूँगा
एक लापता
जहाज़ से

रोज़ अनेक नावों से
खोजने जाऊँगा
उस जहाज के मलबे को
नदी की गहरी
आकांक्षाओं में

वे नावें मेरी
प्रतिज्ञा होंगी
प्रेम की पहली
अनुभूति की

नदी के छोर पर
बैठे वृद्ध
होंगे
मेरी असहायता
और उनके समीप
खेलते बच्चे
होंगे
मेरा प्रथम चुंबन

मैं जब एक दिन खोज लूँगा
जहाज़ का सारा मलबा
तो उसे इकट्ठा करूँगा—
एक उजड़े गाँव के समीप

और जब लोग दौड़ेंगे
मलबे में टटोलने के लिए
अपना प्रिय जीवन
तब मैं
चुपचाप
एक लाठी उठाकर
बिना कुछ बोले
चला जाऊँगा
एक सुखद रात्रि की तरह

पुरुष रुदन करेंगे
बिछुओं के नग को चूम-चूम कर
स्त्रियाँ रोएँगी
खड़ाऊँ को माथे से लगाकर
वे सब रोएँगे
अपना सिर पटक-पटक कर
कुछ टूटे खिलौनों के
अवशेष पर

अकेला मैं
खोजकर किसी
नदी का एकांत
उस लाठी पर टिकाकर अपना सिर
फूट-फूटकर रोऊँगा
उस जहाज़ की विवशता पर
और
ख़ुद की हार पर…

अनन्य सिद्धराज की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। उनकी उम्र अभी महज़ इक्कीस वर्ष है। उन्होंने बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ से बीबीए किया है। उनसे ananyasiddharaj704@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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