कविताएँ ::
अर्चना लार्क
जंगल जल रहा है
मैं बुख़ार में हूँ
और विचारों का ताप बढ़ता ही जा रहा है।
मुझ पर जुर्माना लद गया है
और घाव से भर गए हैं—
ख़ाली हाथ।
किसी ने ललकारा है
एक किलोमीटर पर नौकरी
और उससे आगे ही बैंक।
मुझे कुछ नज़र नहीं आ रहा है।
सतत भ्रमित हूँ मैं,
पछतावे पर पछतावा ढँकती जा रही हूँ।
हारती जा रही हूँ।
अभी-अभी मैंने एक नौकरी हारी है।
एक घर,
एक सफ़र,
देखते-देखते कई रिश्ते हार गई हूँ।
शून्य
वह जीती है क़तरा-क़तरा
कुछ बचाती है
कुछ छींट देती है बीज की तरह
हाथ जोड़ कहती है
लो उसके अभिनय से
सीख ही लिया अभिनय
चिल्लाती है हक़ीक़त
दुनिया अभिनय है…
ख़ामोश हो जाती है
अब तो लड़ाई भी ख़ामोशियों से होने लगी है…
एक अजीब ही शांति है उस तरफ़
बिस्तर की सलवटों को तह करती
वह जानती है
पिछली कई रातें
किसी और बिस्तर में पड़ी रही हैं ये सिलवटें
वह द्वंद्व में गुज़रती
जवाब ढूँढ़ती है
भोजन के बाद नैपकिन देना नहीं भूलती
चाय में कभी चीनी ज़्यादा तो कभी पानी ज़्यादा
जीवन में मात्रा लगाते-लगाते स्वाद की मात्रा भूलती-सी जा रही है वह
बड़े सलीक़े से सिरहाने पानी रख जाती है
पता है रात में अक्सर उन्हें कुछ सोचकर पसीना आ जाता है
हलक़ सूख जाता है
उसे आज भी छन-छनकर सपने आते हैं
वह सुबकती नहीं हँसती है
पागल नहीं है वह
कोने में रखे गमले को कभी पानी देती है
कभी भूल जाती है सूखने तक
वह माफ़ कर देना चाहती है
बड़ी भूलों को…
माफ़ नहीं कर पाती है
हर जगह से थक-हार कर लौटने के बाद
उसे स्वीकार कर लेती है वह
उसे फ़र्क़ नहीं पड़ता
कितनी और रातें… कितनी और सिलवटें…
कितनी और तस्वीरें… कितनी और यादें…
फ़र्क़ पड़ता है सिर्फ़ उसे उसकी ख़ामोशी कुरेदे जाने पर
शायद अब वह उसे मनुष्य नहीं
शून्य समझती है!
त्रिया चरित्रं… देवौ ना जानाति
जब स्त्री को वेद-वाक्यों में बाँध बरगलाया गया
तब इस बंधन में उनमें से किसी एक ने सिसकारी भरी थी
दूसरी ने रस्सी तोड़ भागने कोशिश की थी
तीसरी ने कुछ लिखा था
और मर गई थी।
अर्चना लार्क हिंदी की नई नस्ल से वाबस्ता कवयित्री हैं। उनकी कविताएँ कुछ प्रतिष्ठित प्रकाशन स्थलों पर प्रकाशित हो चुकी हैं। वह सुल्तानपुर (उत्तर प्रदेश) से हैं और फ़िलहाल दिल्ली में रह रही हैं। उनसे archana.tripathi27@gmail.com बात की जा सकती है।
Nice