कविताएँ ::
बजरंग बिश्नोई
मेरी नाव तैयार है
मेरी नाव तैयार है
बादवान कहीं-कहीं थोड़ा फटा है
इक्का-दुक्का किसी तरफ़
छोटे-बड़े सुराख हैं
फिर भी ठीक है
एक चप्पू जो थोड़ा चौड़ा है
उसकी दो कीलें कुछ ढीली हैं
दूसरे चप्पू का हत्था ज़रा चटका है
पर कोई बात नहीं
नाव तैयार है
बेमियादी सफ़र की ग़रज़ से रख लिए हैं
पाँच खाद मिली मिट्टी भरे गमले
उनमें डाल दिए हैं फूलों के बीज
एक मुट्ठी मधुमक्खियाँ और रानी मक्खी
एक मुट्ठी तितलियों के अंडे डाल दिए हैं
नाव की पेंदी में रखी फूटी बाल्टी पर
तड़के हुए तसले से ढाँक कर
वहीं नाव की पेंदी में पड़े हैं
चार-छै टीन के छोटे डिब्बे
जो काफ़ी हैं
एक काई समेटनी
लोहे के तारों वाला पंजा रखा है
बिल्कुल ठीक-ठाक
मेरी नाव तैयार है
मछली पकड़ने का कोई जाल
मेरी नाव में नहीं है
और न उसकी ज़रूरत है
एक दर्जन मोमबत्तियाँ रखी हैं
और अपनी टूटे हैंडल वाली लालटेन
जिसकी काँच अभी दुरुस्त है
बत्ती पूरी है
और मिट्टी का तेल भरा हुआ है
फिर भी अलग से एक भरी हुई
कनस्तरिया रख ली है
एक डिबिया दियासलाई और साथ में
चकमक पत्थर वाला
लाइटर भी रख लिया है
मेरी नाव तैयार है
दो पुराने गमछे और
ओवरकोट जो तिउरस साल
रिफ़्यूजी मार्केट से ख़रीदा था
फ़ौजीकट का मय कैप के रख लिए हैं
हाँ, कुतुबनुमा नहीं है कोई
मेरी नाव में
क्या ज़रूरत है
मैं जो हूँ
मेरी नाव तैयार है
वापसी का तय नहीं है
होगी या नहीं होगी
सुनते हैं दुनिया बहुत बड़ी है
और समुद्र भी
ख़ैर, समुद्र भी तो
बूढ़ा हो गया होगा मेरे भाई
वह भी थका होगा
कोई बात नहीं
मेरी तरफ़ से उसे कोई
परेशानी नहीं होने वाली
मेरी नाव तैयार है
और इसी से मैं अपनी यात्रा पर निकलूँगा
ज़रूर निकलूँगा
अरे वहाँ मेरी बकरी अकेली रह जाएगी
वह मुझे दूध भी देती है
और प्यार भी
सोचता हूँ इसे भी इसी नाव पर रख लूँ
यहाँ कहाँ रहेगी
ज़मीन पर न ज़मीन रह गई है
न नीयत रह गई है
बकरी कैसे रहेगी
अरे एक चीज़ और
लंगर का काँटा
वह तो ज़ंग की रज़ाई में लिपटा पड़ा है
उसकी ज़ंजीर की कड़ियाँ तो मुश्किल से खुलेंगी
ख़ैर, एक मोटे रस्से से काम चल सकता है
लेकिन वह मेरे पास नहीं है
और उसकी ज़रूरत भी नहीं पड़ने वाली
मुझे कल सबेरे
सूरज निकलने से पहले
अपनी यात्रा पर निकल जाना है
मेरी नाव तैयार है
मधुमक्खियों का छत्ता हूँ
जीवनराग के छूट गए सुर
कभी उलाहना देने नहीं आए
जिन सुरों पर बजता रहा राग
वे भी अंत तक कभी
आभार व्यक्त करने नहीं आए
सुनने वालों ने न कभी तालियाँ बजाईं
न वे बीच में छोड़कर गए
सुरों का
संगीत का कोई
ज्ञान नहीं था
यह जीवनराग पूरा हुआ है
मधुमक्खियों के सहारे
तरह-तरह के फूलों के पराग
सुगंध से अलग-अलग
संगीत
सुर
झंकृत होते हैं
मधुमक्खियों के झुंड
उठाते रहे हैं
अपनी पसंद के सुर
जैसे मधु एकत्रित करने वाली मधुमक्खियाँ
कुछ सेब के फूलों से
तो कुछ अंजीर के फूलों से
कुछ सरसों के फूलों से
कुछ सिर्फ़ नीम के फूलों का
शहद एकत्र करती हैं
उनका शहद उसी तासीर का
उसी रंग-रूप का होता है
कुछ झुंड दो या तीन पसंदों वाला
होता है और तब ब्लेंडिड हनी बनता है
मुझे जिस झुंड का सहारा मिला
वे राजप्रासाद के उद्यानों में नहीं
गली बस्तियों के परिमल के झोंकों की
स्वर-लहरियों से पराग मधु लाकर रखती रहीं
इस तरह मंद्र के कुछ सुर लगे
वही एक दूसरे से मिले
उसी से जीवनराग बना
सच पूछो तो यह राग उनका ही है
जो छूट गया वह उनकी पसंद नहीं रही
मैं मोम का छत्ता कौन होता हूँ
इसका मलाल करने वाला
उन्होंने मुझे अपना छत्ता बनाया
उन्होंने ही सुर मधु उसमें जमा किया
वही गाती हैं
वही बजाती हैं
वे चली जाएँगी तो मुझमें
अपना निर्भार मोम का छत्ता भर ही
तो छोड़ जाएँगी
जीवनराग
जीवन-संगीत
सब उनका है
ऊँट की हँसी
ऊँट को क़ुर्बानी के लिए लाया गया
चला आया चुपचाप क़ुर्बानी-स्थल पर
देख कर सरअंजाम
उसने गरदन ऊपर की
आकाश की ओर ताका
और ठहाका लगा कर हँसना शुरू किया तो
रुकने का नाम ही नहीं लिया
हज़ारों मन चमेली फूल झर गए
इस बीच
पचासों मन चंदन तेल
कड़ाहों में भँवरें पड़ने से मथने लगा
ऊँट की हँसी से क़ुर्बानी के क़साई का हौसला
धुक-धुक करने लगा
शरबती का गड़ासा थरथराने लगा
क़साई की कलाई से
ऊँट ने हँसना बंद कर दिया
गड़ासे की धार से
रगड़ ली ख़ुद अपनी गरदन की
शरबती नस
कैसी लरजती आवाज़ में उतरी
बिस्मिल्लाह…
ऊँट की अर्धपारदर्शी खाल से
बनी सैकड़ों शीशियाँ
भरी गईं संदल तेल से
चमेली के तेल से
कार्क की ढट्ठियों से बंद
उनमें ऊँट की हँसी महकती है
ऊँट की हँसी
उसकी खाल से बनी शीशियों में
पूरी नहीं समाती
वह रेगिस्तान की हवा में बहुत बची रह गई
दिन में जब प्रखर सूर्य-ताप से
रेत अंतिम तापमान के बाद
रात में चाँदनी से सिझाती है रेत
तो गमक उठती है वहाँ की हवा
जो ऊँट की खाल की बनी शीशियों में
नहीं भर पाई ऊँट की हँसी
उसे रेत के कवि अपनी कविता में भरते हैं
उन्हें याद रह जाती है
अपनी क़ुर्बानी के पहले की
आसमान को अर्पित अपनी हँसी
छोटी इ की मात्रा
मुझे नहीं मालूम था
कि इतना निर्दयी हूँ मैं
हो सकता है मुझे यह भी
न मालूम हो कि प्रेम करने के पहले
थोड़ी दया भी बचाकर रखनी चाहिए
उसने प्रेम की ओलम
पट्टी पर मढ़ते हुए कहा कि
मैं तुम्हारे नाम में
छोटी इ की मात्रा बनकर रहना चाहती हूँ
बस उतनी जगह घेरूँगी
जितनी अलगनी पर सूखती तुम्हारी क़मीज़
और तौलिया के बीच बच रहती है
और उस पर अपने नन्हे पंजे टिकाकर
जैसे गौरैया तुम्हें देखती रहती है
मुझे पंजे टिकाने भर की जगह
अपनी अलगनी में दे दो
मैंने सिर से पाँव तक उसे घूरकर देखा
और उसके पंजे देखकर
उपेक्षा से सिर हिला दिया
नहीं
यह नहीं हो सकता
मेरे नाम में पहले से ही बड़े ऊ की मात्रा लगी है
अगर बचाकर रखी होती थोड़ी-सी दया
तो क़मीज़ की एक बाँह
पलट कर जगह बनाई जा सकती थी
गौरैया के पंजों भर की
अलगनी पर पसारकर गीले कपड़े
सुखाने के पहले मरोड़कर
निचोड़ने और ज़ोर से फटकारने की
आदत ने सख़्ती बढ़ा दी
फिर भी प्रेम किया
और निर्दय भी हुआ
गौरैया आँगन की कार्निश पर बैठी है
अलगनी ख़ाली पड़ी है
मैं अलगनी से कपड़े उतारकर
प्रेस कर रहा हूँ
इस बार निर्दयता से कपड़ों की
शिकन निकाल रहा हूँ
अपनी तो निकाल नहीं पाया
उसे भी पता है कि वह छोटी इ की मात्रा है
न सही अलगनी पर
मुंडेर पर तो आना बना रहेगा
और मेरे नीचे ऊ की मात्रा लगी है
जो मुझे और नीचे नहीं खींच सकती
उल्टे मुझसे ही लटकी रहेगी
अप्रैल में ततैया
अप्रैल से वित्तवर्ष शुरू होता
वित्तविहीन का चित्तवर्ष भी
पीली ततैया शुरू करती हैं
अपने छत्ते बनाने का काम
जैसे गौरैया करती है
अपने आने वाले बच्चों के लिए
तिनका-तिनका चुनना
तलाशना पुरानी धन्नी में कोई
बिल जैसा सुराख उसमें
तिनकों से घोंसला बुनने के लिए
ततैया शुरू करती है
जैसे ही चार अंगुल सूरज चढ़ता है
पुराने घरों के पुराने दरवाज़ों की
चौखटों से काठ के पुराने रेशों को चुगना
ततैया के पंजे तो होते नहीं हैं
दाँत भी किसने देखे हैं
मूँछ के बाल जैसे चिमटे से
इतनी नफ़ासत से उठाती है वह
पुराने काठ के सूक्ष्मातिसूक्ष्म रेशे
स्टेमसेलसर्जरी सीखी होगी किसी ने उसी से
ततैया उस माइक्रो अंश को लेकर
जाती है सरकारी पानी की बंद टैप तक
बंद टोंटी के होंठों में
अटका होता है एक बूँद पानी
जैसे ओस की एक बूँद लटकी रह जाती है
हरी पत्ती की नोक से
ततैया को उस एक बूँद की माइक्रो बूँद
भर की ज़रूरत होती है
वह काठ के माइक्रो रेशे को
इस माइक्रो बूँद पानी और
अपने अंतर्स्राव से सान-मांड कर रख आती है
दो मिनट में फिर फेरा करती
पुरानी चौखट के काठ रेशे
लटकी हुई पानी बूँद की माइक्रो बूँद के लिए
और जब सूरज को रह जाती है
उतरने को बस पाँच अंगुल की सीढ़ी
ततैया अदृश्य हो जाती है
ततैया के छत्ते का मोम
मघुमक्खी के छत्ते जैसा भले न हो
पूरे अप्रैल भर में वह कम से कम
पाँच-छह इंच व्यास का छत्ता बना लेती है
यह छत्ता उसका घर-ख़ानदान होता
पीली ततैया का डंक
आदमी को पीड़ा दे सकता है
ततैया के छत्ते परित्यक्त मिल जाएँगे
जैसे मिल जाते हैं रेल-पटरी किनारे
बस्ती से लहँगे की गोट पर रगड़ खाते
बिर्रे जंगल में एबन्डंड रेलवे क्वार्टर
आदमी भी बनाता है अपना घर छत्ता
ठीक ततैया के ढर्रे पर
रहता है बाल-बच्चे पालता है
काटता है डंक मारता है
ख़तरे को फूँक कर हुश करके उड़ाता है
और घर छत्ता ख़ाली करके चला जाता
अप्रैल में लौटती है ततैया
और मई में लौटता है
मुम्बई से यूपी का भैय्या
कहीं तो रह गया हूँ
कहाँ-कहाँ रहा
और कहाँ रह गया हूँ
लगा हुआ दरवाज़े के ऊपर
सलामी में
आँगन की मुंडेर पर
बरसात की सूखती काई-सा
उग आए सूखते सब्ज़े-सा
बुन गया हूँ दालान के
कमरों के कोनों में
महीन पारदर्शी
रेशमी जाले-सा
ठिठुरा चिपका हूँ आले में
पाले के चकत्ते जैसे
अँगूठे भर की सफ़ेद झिल्ली में
दुबका हुआ मकड़ी के जैसा
मैं रह गया हूँ वहाँ
जब ढूँढ़ना तो
हर तरफ़ ढूँढ़ना
बिखरा हुआ हूँ
छूटी हुई साँसों में
धरती ने जो सोख लीं
उनमें भी हूँ अभी
जमुना में जो घुल गईं
उनमें भी हूँ अभी
पारो की साँसों से
आती महक में ढूँढ़ना
शाम के घिर आए धुएँ में ढूँढ़ना
जो अभी भी मंडराता है बस्ती में
मुझे मत ढूँढ़ना मेरी मृत काया में
वहाँ मैं कभी नहीं रहा
जब रहा
उससे बाहर ही रहा
इधर-उधर रहा
कभी बादलों के साथ रहा
कभी पागलों के साथ रहा
जिस-जिसके साथ रहा
जहाँ-जहाँ रहा
वहाँ अभी भी
रह गया हूँ
रेल में किलकारी
रेल की खिड़की से क्या दिखता है
हमें तुम्हें नहीं
जिनकी आँखें मैली हो चुकी हैं
सफ़ेदी पर पीलापन चढ़ आया है
उन्हें नहीं
उस नई माँ के कंधों से चिपके शिशु को
जिसकी आँखों की सफ़ेदी पर
नील लगी है अभी भी
तेज़ी से घूमती है चमकदार काली पुतली
काजल लगी आँखों में
माँ ने उसके माथे के एक कोने पर
काजल का दिठौरा भी लगा रखा है
रेल के धक्कों के बीच
उसकी गर्दन थिर नहीं हो रही है
कदूहर की भरती में
रेल की बासी गंध
शिशु के माथे का दिठौरा सोख रहा है
हिचकोले लेती पैसेंजर ट्रेन
अचानक डिब्बे में गूँजती है
एक किलकारी
शिशु की किलकारी
ट्रेन की वीभत्स फुंकार के
जवाब में आती है
माँ ज़ोर से भींच लेती है उसे
उसका मुँह घुमाती है
अपनी गोद की ओर
शिशु तेज़ी से पलटता है
और खिड़की के बाहर देखते हुए
फिर एक बार किलकारी मारता है
अपने दोनो छोटे-छोटे हाथों को
ऊपर उछालता हुआ
न माँ समझ पाती है
न कसमसाती
उमस भरी
बैठी सवारियाँ
ट्रेन की खचर-खचर-खिच
जारी है
शिशु देखता है
लाल-लाल डूबता सूरज
उसकी ओर उड़े जा रहे पक्षियों के
काले झुंड और पेड़ की फुनगियों पर
बिखरा सुनहरा बुरादा
इस बार उसने अपने नन्हे हाथों का बल
माँ का चेहरा घुमाने में किया
जैसे माँ ने बाहर देखा
उसने फिर ज़ोर से एक किलकारी भरी
और अपना मुँह माँ के सीने में दे दिया
सूर्यास्त के इस नज़ारे पर
रेल में भरी गई किलकारी
सीधे गिरते सूरज तक पहुँची
और सूरज वहीं टँगा रह गया
और शिशु ने जब मुँह घुमाया
मैंने देखा :
उसके माथे पर काजल के
दिठौरे के बीच लाल बिंदी जैसा
सूरज चिपका था
टूटना एक सकर्मक क्रिया है
लो अब टूटता हूँ
टुकुर-टुकुर क्या देखते हो
दिखता नहीं है टूटना
पेड़ से फल टूटता है
ऐसे नहीं
आकाश से तारा टूटता है
ऐसे भी नहीं
प्रेम करने वालों का दिल टूटता है
ऐसे भी नहीं
हाथ से छूटकर गिरा
काँच का गिलास टूटता है
ऐसे भी नहीं
अब मुझे देखना
बंद भी करो
कुछ नहीं दिखाई देगा
न कोई आवाज़ चटकने की होगी
न टुकड़े बिखरेंगे
न पके फल की गंध पहुँचेगी तुम तक
न आकाश से गिरती हुई
फुलझड़ी बुझती दिखेगी
टूटता हूँ जैसे आदमी टूटता है
बिना किसी आवाज़ के
बिना आहट के
ऊपर से साबुत दिखते हुए
टूटा हुआ आदमी भी
टूटता है कई-कई बार
उसके टूटने की क्रिया
ध्वनिहीन और अदृश्य होती है
फिर भी संपूर्ण ब्रह्मांड में घटित होती है
टुकुर-टुकुर देखने की चीज़ नहीं है—
टूटना
कलकत्ता में प्रेम
अगर कोई कविता लिख रहा है
और कविता प्रेम पर
केंद्रित होती जा रही है
तो उसमें से आदमी को हटा दो
आदमी को नहीं हटा पा रहे हो
तो औरत को हटा दो
अगर दोनों को नहीं हटा पाते हो
तो प्रेम को हटा दो
कविता की ट्राम कलकत्ते में चलती है
कविता लिखना
ऐसा काम नहीं है जैसे
झरने को गिरते देखकर
फ़ोटो उतार लेना
फ़ोटो में झरना फ़्रीज़ हो जाता है
लेकिन असल झरना बहता रहता है
कविता में
आदमी भी
औरत भी
और असल में चल रहा प्रेम भी
फ़्रीज़ हो जाता है
कविता में प्रेम लिखने वाला
प्यार का दुश्मन
इंतिख़ाब आलम हो जाता है
मुझे इंतख़ाब आलम नहीं बनना है
प्रेम बालू की तरह
कविता की मुट्ठी में नहीं रुकता है
प्रेम अपनी पटरी पर चलता है
ट्राम की तरह
रेल की तरह नहीं
वह ठहरकर इंतज़ार कर सकता है
ट्राम की पटरियों पर
तीन ईंटें रखकर
दो पतली लकड़ियाँ जलाकर
छोटे से एल्युमिनियम के बर्तन में
खिचड़ी पकाती फटी धोती पहने
उस औरत के पटरी से
चूल्हा सरकाकर हटाने तक
गाँठ बाँधकर रखी है
कि कहीं कविता से
ज़ख़्मी न हो जाए
कोई प्रेम
कहीं दफ़्न न हो जाए
कविता के साथ प्रेम
कलकत्ता में ही
प्लेटफ़ॉर्म नंबर आठ
वह उतर गया है
प्लेटफ़ॉर्म नंबर आठ पर
बाहर बारिश हो रही है
स्लेटी कोहरे की उदास रोशनी है
प्लेटफ़ॉर्म की टीन की छत की
टपटप की आवाज़ ने
सारी आवाजों को सुला दिया है
रेलगाड़ी बिल्कुल ख़ाली हो चुकी है
कहाँ गए सारे उतरने वाले
वे सब या तो जल्दी से
बिलों में समा गए हैं
या सिर्फ़ वही पूरी गाड़ी में अकेला
बैठकर आया है
प्लेटफ़ॉर्म पर साँवला सन्नाटा है
इक्का-दुक्का भी कहीं कुछ
चलता-फिरता या ठहरा नहीं दिखता है
प्लेटफ़ॉर्म भीगा-भीगा-सा है
जैसे रोते-रोते साँस लेने को रुका हो
वह अकेला खड़ा है
अपना कैनवास का बैग लिए
रेलगाड़ी उल्टी चली
उसने लपक कर उसका वह डिब्बा
जिसमें बैठकर वह आया था
अपनी हथेली में दबोचा
और अपने कैनवास बैग में घुसेड़ दिया
उल्टी रेलगाड़ी धीमे धीमे गई
आठ नंबर के अंत में दाईं ओर
खींचकर बनाई गई एक्सटेंशन
डेड लूप लाइन पर
और रेलगाड़ी के डिब्बों को छोड़कर
इंजन कहीं चला गया
बिना इंजन की गाड़ी को भींजने के लिए
पानी बरस रहा है बादल नहीं हैं
स्लेटी कोहरे से बरस रहा होगा
उसके पीछे
सूरज-सितारे सब भागा-दौड़ी में लगे हैं
पानी बरसता छोड़कर
बादल कहाँ चले गए
रेलगाड़ी बारिश में भीग रही है
उसकी छत से बहती बूँदें
दीवारों-खिड़कियों से होती हुईं
तेज़ी से ढरक रही हैं
एक के पीछे एक
सीधी धार वाली बारिश
सिर्फ़ सिर और छत पर उतरती है
वह अपना सिर और माथा पोंछता है
कंधे पोंछता है
रेलगाड़ी जितना भीग रही है बारिश में
वह सारा पानी
उसके सिर, माथे और कंधों से बह रहा है
वह झुक कर देखता है
छूता है केनवास बैग में रखा
रेल का डिब्बा
ग़नीमत है
वह अभी सूखा है
जैसे माथे से बूँदें पोंछते हुए
वह सूखा ही है
बाक़ी पूरी रेलगाड़ी बारिश मे भीग रही है
धीरे-धीरे नीले रंग वाली रेलगाड़ी
अब बारिश के रंग में बदलती जा रही है
जैसे हक़ीक़तें साइड लाइन होने पर
धुँधली यादों में बदल जाती हैं
बारिश में भीगती हुई रेलगाड़ी का रंग
धुँधला हो गया है
वह अब भी प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ा है
उसे याद नहीं आ रहा
उसे कहाँ जाना था
या वह रेलगाड़ी को भीगते देखते रहने को
यों ही उतर गया है प्लेटफ़ॉर्म पर बेमतलब
बजरंग बिश्नोई (जन्म : 1944) पचास से अधिक वर्षों से कविता के इलाक़े में सक्रिय हैं। वह समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं, लेकिन उनकी कविता पर नज़र कम गई है। ‘हरारत में तीसरी नदी’ उनका कविता-संग्रह है। उनसे bajrangbishnoikalpi@gmail.com पर बात की जा सकती है।