कविताएँ ::
शहबाज़ रिज़वी

हम दोनों
हम दोनों का रिश्ता दुःख का रिश्ता था
हम दोनों एक दूजे के संग रो सकते थे
हम दोनों एक दूजे के संग रोए भी
फिर हम में से एक ने हँसना सीख लिया
हम दोनों की आँखें बोझल आँखें थीं
हम दोनों के ख़्वाब बड़े नखरीले थे
हम दोनों ने रात की चादर फाड़ी थी
फिर हम में से एक ने सोना सीख लिया
हम दोनों एक बस्ती के दो बरगद थे
हम दोनों पर बच्चे झूला करते थे
हम दोनों को माँएँ कोसा करती थीं
फिर हम में से एक ने चलना सीख लिया
हम दोनों एक दरिया के शैदाई थे
हम दोनों पर आग की वहशत तारी थी
अब हम दोनों के मरने की बारी थी
फिर हम में से एक ने जीना सीख लिया
राब्ता
जब भी कभी बारिश हुई
हमने एक दूसरे को ख़बर की
भीगे पेड़ और खेलते बच्चों की तस्वीरें लीं
मेरे यहाँ कम बारिश हुई
मेरे मोबाइल की गैलरी भरी है
उसकी भीगी हुई छत से
छत पर भीगे हुए फूलों से
फूलों को छूते हुए उसके हाथों से
हाथों में लगी हुई मेहँदी से
फूल किसे पसंद नहीं?
लेकिन उसके बालों और कानों के बीच
मुँह चिढ़ाते हुए फूल
मुझे कभी अच्छे नहीं लगे
इन बातों को मैं नज़्म कर रहा हूँ
क्यूँ कर रहा हूँ?
क्योंकि यहाँ आज बारिश हो रही है
और वो नहीं है
जब तुम किसी से प्रेम करो तो
अलगाव के बाद भी
इतना राब्ता बचा रक्खो
कि एक दूसरे को
बारिश की ख़बर दे सको
आत्महत्या के हज़ार तरीक़े
आत्महत्या करने के लिए
ज़रूरी नहीं कि मैं हत्या करूँ
अगर मुझे आत्महत्या करनी हो तो
मैं लिखूँगा एक सुसाइड नोट
और उसे पढ़ते-पढ़ते सो जाऊँगा
अगर मुझे आत्महत्या करनी हो तो
मैं लिखूँगा एक प्रेम-पत्र
और अपनी प्रेयसी को न भेज पाने की
आत्मग्लानि लिए दर-दर भटकता रहूँगा
अगर मुझे आत्महत्या करनी हो तो
मैं नदी नाव से पार करूँगा
अगर मुझे आत्महत्या करनी हो तो
अपनी उम्र के लड़कों को
क्रिकेट खेलते हुए देख कर गुज़र जाऊँगा
अगर मुझे आत्महत्या करनी हो तो
पटरी पर नहीं उस प्लेटफ़ॉर्म पर आराम करूँगा
जहाँ तुम देखते-देखते
आँख से ओझल हो गई थीं
अगर मुझे आत्महत्या करनी हो तो
मैं हत्या नहीं करूँगा
ज़रूरत से ज़्यादा
इंसान जब ज़रूरत से ज़्यादा थक जाता है
उसे नींद नहीं आती
एक रोज़ मैंने उस्ताद के घर का सारा काम किया
जैसे : घर की नाली साफ़ की
बाग़ से आम तोड़े
फ़र्श पर पोंछा लगाया
और उनके बच्चों के साथ खेला
मैं नहीं थका
लेकिन इसके बदले में उस्ताद ने मुझे तालीम दी
मैं बहुत थक गया
उस रात मुझे माँ की गोद में भी नींद नहीं आई
ज़रूरत से ज़्यादा भूखे रहने पर
आपसे खाया नहीं जाता
एक शाम
मैं अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ गया तो
उन्होंने अपने सपाट माथे पर
चिंता की तमाम लकीरें भर कर
अंदर आवाज़ दी—
अरे कुछ खाने को लाओ…
अंदर से हमदर्दी के प्लेट पर
तंज़िया तौर पर सजे
काजू-किशमिश-बादाम आए
मेरी भूख मर गई
ज़रूरत से ज़्यादा पढ़ लेने पर
आप लिख नहीं पाते
स्वप्निल भाई ने इसी वजह से
अपनी क़लम से अपनी शह-रग काटी
और अपनी नज़्मों को ज़िंदा कर लिया
ज़रूरत से ज़्यादा प्यार मिलने पर
आप प्यार नहीं कर पाते
यही वजह थी जब उसने मेरे लिए
राजस्थान की सारी रेत निचोड़ कर
मोहब्बत की नदी बनाई तो
मैं उसमें तैर नहीं सका
डूब गया
ज़रूरत से ज़्यादा
ख़ुदकुशी के बारे में सोचने से
आप ख़ुदकुशी नहीं कर पाते
इसीलिए आज मैंने कुछ नहीं सोचा
मरने से ज़रा पहले
बहुत मुश्किल होता है
किसी तैराक का नदी में डूब कर मरना
घर कभी नहीं चाहता
उन लोगों पर गिरना
जो उसमें रहते हों
बहुत मुश्किल होता है
उन जंगलों में गुम होना
जिनके पेड़ आपके दुःख सुनते हों
मरुस्थल कभी नहीं चाहता—
उसके सामने कोई प्यासा मरे
बहुत मुश्किल होता है
उन गलियों में भटकना
जहाँ आपने अपना बचपन जिया हो
बाप कभी नहीं चाहता
उसकी उँगली
उसके बेटे की मुट्ठी से फिसल जाए
बहुत मुश्किल होता है
जब आप अपनी ही मिट्टी पर
अजनबी बना दिए जाएँ
माँ कभी नहीं पूछती कि
उसकी पीठ से लगने वाला कौन है
बहुत मुश्किल होता है
उस साथी का बिछड़ना
जिससे मोहब्बत के अलावा
हर तरह का रिश्ता हो
साँस का चलना ही अगर ज़िंदगी है
तो मैं भी सबकी तरह ज़िंदा हूँ
जन्मदिन मुबारक
वह समुंदर की शोख़ मौजें हैं
जो गुज़र जाए गर कभी छू कर
दिल के सब दाग़ धुल-से जाते हैं
बाज़ औक़ात इतनी चंचल है
जैसे बच्ची कोई भरे घर में
दौड़ती फिरती हो नदी की तरह
उसके आरिज़ पे गहरे गड्ढे हैं
जैसे दरिया में हो भँवर कोई
उसमें उतरे तो डूबने वाला
ज़िंदगी को भी छू के लौट आए
दोस्ती उसकी ठीक ऐसी है
जैसे मजनूँ को दश्त-ओ-सहरा में
और दीवाना कोई मिल जाए
मेरा होना कहाँ ज़रूरी है
उसकी मौजूदगी बताती है
ख़ुदकुशी : पहली कोशिश
शाम का वक़्त था
तेज़ हवा थी
दरिया में तूफ़ान उठा था
लहरें उठ कर हाथ मिलातीं
कहती थीं—
आओ घर को चलें हम
मिट्टी तुम्हरा देस नहीं है
तुम पानी थे
तुम पानी हो
ख़ुद को पहचानो
आओ मेरी पीठ पर बैठो
गर्दन पकड़ो सो जाओ
शाम ढले जब
सूरज अपने घर जाएगा
कहाँ जाओगे?
कैसा लगेगा?
तन्हा होगे
ख़ाक मलोगे
फिर रोओगे
मैं लहरों की बात में आया
और दरिया में ग़ोता लगाया
शहबाज़ रिज़वी [जन्म : 1995] नई पीढ़ी के कवि हैं। हिंदी-उर्दू दोनों में नज़्में-ग़ज़लें कहते-रचते हैं। उनकी हिंदी कविताओं के प्रकाशित होने का यह संभवतः प्राथमिक अवसर है। शहबाज़ की ज़ुबान में एक ख़ास रंग, संगीत, नरमी और उदासी है। वह ‘आहत-नैरंतर्य’ यहाँ नहीं है, जो हमारे कवियों को तेज़ आवाज़ और ग़ुस्से या पछतावे से भरता आया है; कभी-कभी सिर्फ़ तेज़ आवाज़ और ग़ुस्से या पछतावे से, कविता से नहीं! कवि से shahbazhussain2k11@gmail.com पर संवाद संभव है।
भाई, यह कवि तो बहुत अच्छा है! लाजवाब कविताएँ लिखता है। सभी कविताएँ बहुत अच्छी हैं। इधर जो नए कवि आए हैं, उनमें यह सबसे संभावनाशील है। रिज़वी को बहुत-बहुत बधाई और आपका बहुत-बहुत आभार कि आपने इतनी ताज़ा कविताएँ पढ़वाईं।
बढ़िया कविताएं हैं। कविताओं में नयापन और युवापन दोनों है। जीवन और मृत्यु से नजदीकी भी। शुभकामनाएं।
जबर्दस्त लिखते हैं शहबाज़ रिज़वी …वस्ताविक मर्मस्पर्शी और सहज सरल धारदार…कवि को बधाई 💐💐