कविताएँ ::
ज्योति पांडेय
ज्योति पांडेय स्त्री-कविता का अभिनव स्वर हैं। उनकी कविताएँ जिज्ञासा और जिजीविषा की सम्यक भाव-चेतना से अनुप्राणित हैं। ये कविताएँ अचंभित नहीं करतीं, बल्कि अपनी तरलता से अंतस में लय होती जाती हैं।
इन कविताओं में स्त्री-विमर्श जैसा बाह्य ताप नहीं है, बल्कि मलिन स्वर में अंतर्भुक्त स्त्रियों की संवेदनाएँ/एषणाएँ हैं। व्यथा की कथा हो या उल्लसित करने वाले क्षण; उनकी कविताओं में एक विस्मृत कर देने वाला ठहराव है। इन कविताओं से गुज़रते हुए अनछुए स्त्री-मन की स्पृहा को अनुभव किया जा सकता है। प्रेम यहाँ स्वतःस्फूर्त है, अतः सहजता और गंभीरता का प्रवाह अपने वेग से गतिसाध्य है।
कोमल स्वर की इन निगूढ़ कविताओं को बार-बार पढ़ने का मन करता है।
—प्रशांत विप्लवी
पढ़ना मेरे पैर
मैं गई
जबकि मुझे नहीं जाना था।
बार-बार, कई बार गई।
कई एक मुहानों तक
न चाहते हुए भी…
मेरे पैर मुझसे असहमत हैं,
नाराज़ भी।
कल्पनाओं की इतनी यात्राएँ की हैं
कि अगर कभी तुम देखो
तो पाओगे कि कितने थके हैं ये पाँव!
जंगल की मिट्टी, पहाड़ों की घास और समंदर की रेत से भरी हैं बिवाइयाँ।
नाख़ूनों पर पुत गया है—
हरा-नीला मटमैला सब रंग;
कोई भी नेलकलर लगाऊँ
दो दिन से ज़्यादा टिकता नहीं।
तुमने कभी देखे हैं क्या
सोच के ठिकाने?
मेरे पाँव पूछते हैं मुझसे
कब थमेगी तुम्हारी दौड़?
मैं बता नहीं पाती, क्योंकि, जानती नहीं!
तुम कभी मिलना इनसे
एकांत में—
जब मैं भी न होऊँ।
ये सुनाएँगे तुम्हें
कई वे क़िस्से और बातें
जो शायद अब हम तुम कभी बैठकर न कर पाएँ!
जब मैं न रहूँ
तुम पढ़ना मेरे पैर,
वहाँ मैं लिख जाऊँगी
सारी वर्जनाओं की स्वीकृति;
ठीक उसी क्षण
मेरे पैर भी मेरे भार से मुक्त होंगे!
विस्मय बचा रहे
देखने को इतना विस्तृत आकाश—
और जहाँ भी जाओ सिर खुला ही रह जाए!
नापने को इतनी बड़ी धरती—
और जितने क़दम चलो,
पाँव तले सिमटती जाए!
देखने को अप्रतिम सौंदर्य से लदी प्रकृति—
और झर-झर सब कुछ झरता जाए!
हाथ फैलाओ तो हवा भी न समेट पाओ।
आगे बढ़ो तो समय चार मील दूर खिसक जाता है।
सारे कच्चे रंग पक्की तासीर लिए
कपड़ों से छूटते हाथों से लगते जाते हैं।
उम्र तारीख़ों की लाठी पकड़कर
उधर निकलती जा रही है; जहाँ राह ही नहीं।
और मन?
अटका है उस पुराने खिलौने की चाभी में।
(खिलौना टूट चुका है।)
इस सबके बीच,
सतह से लेकर तल तक
ठिठके हुए जल में
अचानक खनक आए
कंकड़ जितना विस्मय—
बचा रहे सबमें
जब सारी दुनिया
मुग्धताओं से ख़ाली होने लगे!
प्रश्न पूछती हूँ
तभी जब मैं घोर अज्ञानता के सुख में थी।
तुमने मुझे दिशाएँ, देश और द्वीप कंठस्थ करा दिए—
और मैं हूँ, जो एक-एक दूब पर ठहर जाती हूँ;
ज़रा तुम्हीं भान करो अब मेरी यात्रा का!
मेरे सगे वे सारे अनुत्तरित उत्तर
जो मेरी प्रतीक्षा में हैं;
रोज़ मेरे स्वप्न बनाते हैं,
उनके संबंधी प्रश्न
तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेंगे!
मैं कल्पना करती हूँ,
क्या कोई ऐसा दिन, ऐसा पहर आएगा
जब नीलगाय चर जाएगी
तुम्हारे रटाए समस्त देश और द्वीप? उस दिन,
इस जटिल यात्रा के बोझ से मुक्त,
मैं कितनी हल्की हो जाऊँगी न!
कल्पना के नभ में तैरते
मैं दूब की जड़ से
देख पाती हूँ उस पारदर्शी पंखों वाली चिड़िया को
जिसके इस पार और उस पार
कोई भेद नहीं है।
सब समान है। जस का तस!
और मैं!—
मात्र उतनी हूँ
जो भूत में घट चुकी है।
वर्तमान में घट रही है।
और भविष्य में घट रही होगी।
क्या तुम कभी मुझे समझा पाओगे
कि मैं उस चिड़िया से श्रेष्ठ क्योंकर हूँ?
मुझमें आत्महत्या का साहस नहीं—
इसलिए प्रश्न पूछती हूँ!
और ये प्रश्न पूछते
मुझे फिर याद आते हैं
प्रतीक्षारत वे सारे अनुत्तरित उत्तर!
रख लेना था
मुझे झुंड में खिलने वाले फूलों का
प्रयोजन जानना था।
साथ ही जानना था,
सारे तारे
एक साथ ही क्यों जाग जाते हैं?
सारी हवा इकट्ठे ही क्यों
बह चलती है?
मुझे देखना था,
दिन का चाँद।
रात का सूरज।
समंदर की मिट्टी।
और,
पानी की प्यास।
मुझे पकड़ने थे,
समय के साथ भागते
शब्द।
साँस के साथ दौड़ता
नाम।
बालों के साथ गिरता
भूत।
क़दमों के साथ पीछे छूटता
रास्ता!
मुझे रख लेने थे
सारे कटे नाख़ून।
पानी के साथ बहा
दूसरे दिन का आलता।
विवाह के दिन का भरा सिंदूर।
आँखों की पहली बोली।
कान में डाली सोने की तार।
स्लेट पर लिखा—माँ!
स्केच किए पहाड़ और झोपड़ी।
पहली अल्हड़ कविता।
और,
वे सारे क्रिकेट मैच
जो बिना समझ के देखे थे।
मुझे छोड़ देने थे
सारे समझदार फ़ैसले।
मुझे थूक देने थे
सारे मीठे पान।
मुझे पी लेना था
सारा नीला रंग।
और,
उगल देना था
अंदर का
सारा हरा।
मुझे जीवन-भ्रम से प्रेम है
जिस दिन मृत्यु का अंकुर फूटेगा मुझमें,
देह की जगह शून्य का एक विशालकाय पेड़
झट्ट से उग आएगा!
तुम रोओगे। चीख़ोगे। चिल्लाओगे।
नोचोगे-खसोटोगे मुझे।
या संभवतः प्यार करोगे। छुओगे हौले से।
चूमोगे।
पर, मैं थिर रहूँगी।
अपने जीवन के दिनों में
मुझे जिन चीज़ों पर गुमान था
और तुम जिन पर मोहित थे,
तिल-तिलकर तिरोहित होती जाएँगी वे
चिता की आग में!
मेरे चमकदार बाल,
जीवंत आँखें,
नर्म होंठ,
सब प्लास्टिक-से जलकर पिघलने लगेंगे।
तुम मौन खड़े किनारे
देखोगे सब…
और मैं तब भी,
थिर रहूँगी!
मौत बिखेर देगी मेरी देह के जले टुकड़ों को।
हवा, पानी, आग, आकाश और पाताल में
थोड़े-थोड़े हर ओर रह जाएँगे
मेरे कभी रहे होने के साक्ष्य।
और मैं थिर रहूँगी!
मृत्यु! तुम सबसे बड़ा और बलशाली सत्य हो।
और बचा नहीं जा सकता तुमसे,
बावजूद इसके
मैं नहीं चाहती मरना।
मुझे जीवन-भ्रम से प्रेम है!
प्रणय का पहाड़ा
रात के उस एक पहर में बस हम तुम होते हैं!
जब घड़ी की टिक-टिक अपनी नोक पर समय को रखकर
कदम-कदम ऊँघती सरकती है।
उसकी जम्हाई में समाते जाते हैं,
बिस्तर, कमरे, घर, मोहल्ले
शहर, देस, समंदर, पर्वत…
फिर पृथ्वी और कई छोटे-बड़े ग्रह-उपग्रह भी…
उसी पहर में
‘हम’
प्रणय का पहाड़ा
और काम का ककहरा
साथ-साथ पढ रहे होते हैं…
मैं जल के रंग की आत्मा बन जाऊँगी
भोगे जा चुके सुखों-सा व्यर्थ है
जिया जा रहा जीवन!
जल पर किरणों-सा तिरता
कुर्ते से टूटकर गिरने वाले बटन जितना अधीर,
इतना रिक्त स्थान जमा है कि कुछ रखने की जगह तक नहीं।
मेरे पाप जीवन सहेज न पाया और इसका पूरा भान था मुझे।
लेकिन, मेरे सुखों ने मृत्यु भी दूषित कर दी; इसका खेद कैसे मिटाऊँ?
अंतिम दिन मैं चाहकर भी नहीं धारण कर पाऊँगी श्वेत वस्त्र।
जीवन! तुम्हें खूँटे से बाँधकर ही कूदना होगा मुझे अब जल में।
मेरे महावर के रंग का फूल बनकर विदा देना मुझे।
मैं जल के रंग की आत्मा बन जाऊँगी।
मृत्यु की गंध मैं भाँप लूँगी जब वह दूर होगी कई मील तभी।
खोल देना तुम मेरे केश और मुहाने से देखना अंतिम स्नान,
जैसे कुछ न हुआ हो, यों हिलेगा पीपल।
आकाश का नीला नदी को ताकेगा।
मृत्यु का चेहरा मरकर भी सफ़ेद नहीं पड़ता!
क्या तुम आओगे
यथार्थ पसरता जा रहा है
जेठ की धूप जैसे
हर कोने-कतरे।
…और मैं दुबकी बैठी हूँ
तुम्हारे प्रेम की आकाशपुष्प छाँव में।
मुझे डर है
किसी भी क्षण
धूप निगल जाएगी
तुम्हारे प्रेम सहित मेरा पूरा अस्तित्व!
ऐसा होने के ठीक पहले
मैं जानना चाहती हूँ,
क्या तुम आओगे?
दूर ठहरे उस झक्क नीले आकाश के कोर पर
मुस्कुराते! क्या तुम आओगे?
…और आँखों की मार्फ़त
क्या भेजोगे मुझ तक
तसल्ली का एक नम बोसा? बोलो!
कि बस तुम्हारे ‘हाँ!’ बोल देने भर से
मैं उस नीले आकाश में
तुम्हारी मुस्कुराहट के पास का
एक सुफ़ेद बादल बन जाऊँगी—
एक टुकड़ा सुफ़ेद बादल—कालजयी!
छोटी यात्राओं के पथिक
छोटी यात्राओं के पथिक
प्रायः
छोटे पैरों और सीमित दृष्टि वाले होते हैं।
उनकी यात्रा अक्सर ख़ुद से ख़ुद पर
समाप्त हो जाती है।
उन्हें नहीं लगता
कि दुनिया बहुत बड़ी है।
वे जानते हैं
अपने रास्तों के मोड़।
आँखें मूँदे
घने कोहरे में भी
निकल पड़ते हैं अपने गंतव्य की ओर।
उनको नहीं मिलती
कोई बाधा,
रुकावट नहीं बनता कोई मौसम, पेड़ या पत्थर।
उनकी पोटली में
बँधा होता है
छोटी भूख का बीज
और प्यास का नन्हा सोता।
उन्हें दौड़ना नहीं आता,
साँस फूल आती है।
उनके चलने, रुक जाने में भी
रास्तों का रस है।
छोटी यात्राओं के पथिक
जेबों में ठौर लिए चलते हैं।
मैंने देखा
मैंने देखा,
वाष्प को मेघ बनते
और मेघ को जल।
पैरों में पृथ्वी पहन
उल्काओं की सँकरी गलियों में जाते उसे
मैंने देखा।
वह नाप रहा था
जीवन की परिधि।
और माप रहा था
मृत्यु का विस्तार;
मैंने देखा।
वह ताक रहा था आकाश
और तकते-तकते
अनंत हुआ जा रहा था।
वह लाँघ रहा था समुद्र
और लाँघते-लाँघते
जल हुआ जा रहा था।
वह ताप रहा था आग
और तपते-तपते
पिघला जा रहा था;
मैंने देखा।
देखा मैंने,
अर्थहीन संक्रमणों को मुखर होते।
अहम क्रांतियों को मौन में घटते
मैंने देखा।
संज्ञा को क्रिया, और
सर्वनाम को विशेषण में बदलते
देखा मैंने।
सब देखते हुए भोगा मैंने—
‘देख पाने का सुख’
सब देखते हुए मैंने जाना—
बिना आँखों से देखे दृश्य,
बिना कानों के सुना संगीत,
बिना जीभ के लिया गया स्वाद
और बिना बुद्धि के जन्मे सच
जीवितता के मोक्ष हैं।
उत्सुकताएँ
दिन के ढलते फेफड़ों ने
उगल दिए हैं अपने सारे भेद।
सूरज समेट रहा है
किरणों की सुनहरी मछलियाँ।
और रात का मछुआरा
जाल लगाने की तैयारी में है।
उबासी लेते समय की
दूसरी पारी की
घंटी बज गई है।
अँधेरा गुप्त तहख़ानों की
चाभियाँ टटोल रहा है।
समंदर के अंदर की चुप्पी
जेलीफ़िश की चहलक़दमी से टूट रही है।
हरे शैवाल चाँदनी लपेटे पड़े हैं।
जाल में फँस जाने वाली मछलियाँ,
मृत्यु से ठीक पहले के सुनहरेपन में दमक रही हैं।
मछुआरा झींगुर, चाँद और कश्ती का क्रम बनाने की
असफल कोशिश कर रहा है।
और चाँद
समय के सारे रहस्य खारे नील में उड़ेल
सो रहा है।
उत्सुकताएँ हैं,
जो आँखें चमकाती हैं, बस!
बाक़ी रात और चाँद दोनों नींद में हैं।
यहाँ प्रस्तुत टिप्पणी और कविताएँ ‘सदानीरा’ को अमिताभ चौधरी के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं। ज्योति पांडेय की कविताओं के कहीं प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। उनकी पैदाइश बनारस की है। वह कविता, फ़ोटोग्राफी और पत्रकारिता के संसार से संबद्ध हैं। बरेली में रहती हैं। उनसे 06j.jyoti@gmail.com पर बात की जा सकती है।
अँधेरा गुप्त तहखानों की चाबियाँ टटोल रहा है….
Bahut sundar, sarahniya. Ujjawal bhavishy ki kamnae.
सहज रूप में तो नारी मन की व्यथा दिखती है मगर मुझे व्यथित (हतोत्साहित नहीं) मानव मन दिखा। बहुत सुंदर रचना।
अद्भुत रचना
अति सुंदर कविता
अप्रतिम ।