कविताएँ ::
मिथिलेश कुमार राय
ऋण
एक बार मैं ऋण माँगने गया
उन्होंने कहा कि सबसे पहले अपनी पक्की नौकरी का काग़ज़ दिखाइए
मेरे पास पक्की नौकरी नहीं थी
मैं एक चाकर था
कभी ईंट ढोता
कभी कुदाल चलाने के लिए पकड़ लिया जाता
तब उन्होंने कहा कि आप अपने
या अपने पिता के नाम की ज़मीन के टुकड़े का
एक काग़ज़ ही ले आएँ
लेकिन मेरे पूर्वज भूमिहीन थे
मुझे और मेरे पिता को
अपने पूर्वजों से भूमिहीनता ही विरासत में मिली थी
मैंने उन्हें यह सब सच-सच बतलाया
अगला सवाल उनका यह था कि घर में कितना सोना है
मैंने कहा कि नहीं है
सोना का ऐसा है कि वह हमारा असली भी चोरी चला गया है
इसके बाद जब वे चुप लगा गए
तब मैंने उनसे यह पूछा कि साहब सब पूछ लिए
क्या आप हमसे हमारी ज़रूरत नहीं पूछेंगे
हमारे इस सवाल पर उन्होंने कहा
कि हमारे सवालों में यह सवाल शामिल नहीं है
क्षमा कीजिए, हम आपको आपकी ज़रूरत के आधार पर
ऋण नहीं दे सकते
निकलते हुए मैंने बहुत हल्के स्वर में यह कहा
(ताकि कोई सुन न ले)
कि ज़रूरत को आधार बनाकर देते
तो ऋण पर पहला अधिकार हमारा होता।
भरे पेट पानी पीने की आवाज अलग होती है
दोपहर की बात है
दरवाज़े के सामने आकर एक राहगीर ठहर गया
उन्होंने पीने के लिए पानी की माँग की
राहगीर को पानी उपलब्ध कराया गया
वे पूरा लोटा पानी पी गए
मैंने उनसे पूछा
कि अब तक भूखे क्यों हो
राहगीर कुछ न बोला
घर से चार रोटी लाकर
मैंने उसकी हथेली पर धर दी
गमछे में रोटी बाँधते
उसने मेरी ओर यह सवाल उछाला
कि आप कैसे समझ गए कि मैं भूखा हूँ
मैं भूख को पहचानता हूँ
मैंने कहा
जब कोई ख़ाली पेट पानी पीता है
तो अलग तरह की आवाज़ आती है
भरे पेट में अलग तरह की
आवाज पहचानने की यह कला
मुझे भूख ने सिखाई है
मैंने उन्हें बताया
भूखा आदमी इस तरह खाता है कि जैसे प्रार्थना कर रहा हो
बहुत भूखे आदमी का कौर
सामान्य से कुछ बड़ा होता है
वह जब तक दो-चार निवाले मुँह में नहीं रख लेता
उसको स्वाद की सुध नहीं आती है
भूखा आदमी खाते हुए मौन हो जाता है
जैसे प्रार्थना कर रहा हो
भोजन के आसन पर बैठते ही
वह जैसे ध्यान में उतर जाता है
उसका हाथ अपने आप रोटी को तोड़ता है
उसमें सब्ज़ी भरता है
और उसको मुँह में रखकर
पुनः इसी क्रिया को दुहराने में लग जाता है
भूखा आदमी मुँह को इस तरह चलाता है
कि जैसे कोई वाद्य-यंत्र बजाने बैठा हो
और तल्लीन हो गया हो
तब उसकी आँखें रोटी के जले कोने पर नहीं टिकतीं
उसकी जीभ अधिक नमक होने को माफ़ करते हुए चलती है
भूखा आदमी पेट से आ रहे अनहद नाद को सुनता है
और लोटे के पानी को अपने कंठ से नीचे उतारकर
उसको बार-बार जाग्रत करता है।
पता
थकावट पाँव से पता कीजिए
बातें उदासी का पता कभी नहीं बताएँगी
इसके लिए आँखों में झाँकिए
चेहरे पर ग़ौर कीजिए
यह देखिए कि जब चेहरे पर हँसी आती है
होंठ फैलकर कितने लंबे होते हैं
कहते हैं कि हँसी आने पर
चेहरे पर एक रौनक़ भी आती है
जैसे फूल खिलता है
ठीक वैसे ही होंठों पर हँसी आती है
और पूरी देह खिलखिलाने लगती है
यह देखिए कि होंठ स्वतः फैला तो है न
और जब होंठ फैला
तब दाँत दिखे कि वे छिपे ही रहे
बातों पर मत जाइए
बातें बन-ठन कर बाहर आती हैं
जबकि हँसी
बनाने के क्रम में बिगड़ जाती है
आप हँसी का बिगड़ना पकड़िए।
स्वाद
नमक के साथ
रोटी का जो स्वाद बनता है
अगर इसमें दो फाँक प्याज़
और अचार भी मिला दिए जाए
तब उस स्वाद में किस तरह का बदलाव आ जाएगा
दो हरी मिर्च
और इत्ता-सा कड़वा तेल उसके ऊपर डाल देने से
जिस तरह की चटनी बनेगी
वह रोटी के साथ मिलाकर खाने में
किस तरह का आनंद देगी
क्या इसको खाते हुए चटखारे ले पाएँगे
और जब पेट भर जाएगा
तब क्या तृप्ति की सूचना में एक लंबी डकार भी निकलेगी
लगातार यही खाने से
चेहरे पर जो चमक आएगी वह कितनी दूर से दिखेगी
क्या शरीर में वह कुछ बल भी बढ़ाएगी
आँखों की रोशनी इससे कितनी प्रभावित होगी
और पैरों की गति पर इसका कितना असर पड़ेगा
सवाल असंख्य हैं
लेकिन कुछ सवाल ख़ुद से करने पड़ते हैं
ख़ुद ही उसके जवाब भी तलाशने पड़ते हैं
उत्तर की उपेक्षा काल में यह एक सामान्य-सी बात है।
भूत से नहीं
भूत से डर नहीं लगता बाबू
सब बनी-बनाई बातें हैं
तुम्हीं कहो कि उसने कब किसको कहाँ दबोचा
जो डरा वो अपने ही भरम से डरा होगा
धूप से भी डर नहीं लगता
उससे तो जब अबोध था
भय तभी मिट गया था
अब तो इस देह से उसकी इतनी गहरी यारी हो गई है
कि स्याह होकर इसी से चिपककर पड़ा रहता है
पानी से सर्दी से डर नहीं लगता
सर्दी के दिनों में
पानी उलीचते तुमने भी कई बार देखा होगा
शुरू में देह काँप-काँप जाता था
लेकिन बार-बार वही करने से
वह डर पता नहीं कैसे कहाँ बिला गया
यथार्थ से बड़ा डर लगता है बाबू
सपने आते हैं कि जिससे हँसकर बोलता-बतियाता था
वही हँसिया लेकर दौड़ा चला आ रहा है
लंगोटिया जो अविश्वास की नज़रों से देखता है
उसी डर से कलेजा काँप-काँप उठता है।
मौसम एक गवाह है
बेईमान मत कहिए साहब
चाहे तो धूप से पूछ लीजिए
जितना लिया सब झलकता है इस देह पर
यह जो रंग साँवला है,
इस बात का सबूत है
कि चुकाने को जेठ में भी घर से बाहर ही रहा था
चाहे तो आप बहते हुए पसीने से पूछ सकते हैं
मेरी रात की नींद भी इस बात की गवाही देगी
कि चुकाने की फ़िक्र में
वह भिनसारे तक बाहर ही रही थी
भादों की बारिश की भाषा आप नहीं समझेंगे
तलवे देखकर तो अनुमान लगा ही सकते हैं
ज़रा सोचकर देखिए
कि पैर कादो में क्यों दौड़ लगाता रहा
हज़म करने की मंशा रहती तो
पूस में किसका मन करता है पछिया में टहलने का
चाहे तो इस मेड़ से पूछ लीजिए
मेड़ पर जल रहे उस अलाव से
कट-कट करते दाँत
और काँपती छाती की आवाज़ से पूछ लीजिए
कि चुकता करने के उद्यम में ही
यह कुकुर खाँसी उठी है।
मिथिलेश कुमार राय सुपरिचित हिंदी कवि हैं। उनकी कविताओं की एक किताब ‘ओस पसीना बारिश फूल’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुकी है। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुत से पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : मल्हार गाना हमारी आदत है
बहुत बहुत बधाई!
कविता मानवीय संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने में सफल। बहुत अपील किया।