‘पाताल लोक’ पर ::
स्मृति सुमन

स्मृति सुमन

अमेज़न प्राइम पर प्रसारित हो रही वेब सीरीज ‘पाताल लोक’ अनेक कारणों से चर्चित और प्रशंसित हो रही है। इस पर कई दृष्टिकोणों से चर्चा की जा सकती है, पर मेरे ख़याल से चर्चा करते हुए इस बात पर ध्यान जाना चाहिए कि इस सीरीज के केंद्र में ‘वर्ग’ है जो यह दिखाता है कि भारत जैसे देश में वर्ग की एक्स्क्लूसिव श्रेणियाँ नहीं हैं; बल्कि वर्ग जाति, लिंग, समाज और धर्म आदि से जुड़कर इंटरसेक्शनल श्रेणी का निर्माण करता है। एक वर्ग के भीतर कई स्तर हैं और यह इंटरसेक्शनलिटी रोचक-मनोरंजक कथावस्तु और जैविक किरदारों की परिकल्पना से उभरती है।

आउटर जमनापार के जिस पुलिस स्टेशन और इंस्पेक्टर से कहानी शुरू होती है, ऐसा लगता है कि केंद्रीय चरित्र के वर्ग को और वर्ग से जुड़े होने के अंतर्द्वंद्व को दिखाना कहानी का उद्देश्य है; लेकिन यह इतना साधारण नहीं है। दो किरदार (हाथीराम चौधरी और संजीव मेहरा) कहानी के केंद्र में रहते हैं और परिधि पर भी चले जाते हैं और इसका अंतर दर्शकों को विचलित नहीं करता। सामान्य तौर पर सिने माध्यम में जैसे ही मुख्य किरदार स्क्रीन पर नहीं होता हमारा ध्यान बँट जाता है, ‘पाताल लोक’ इसका अपवाद है।

हाथीराम (जयदीप अहलावत) निम्न मध्यवर्ग का एक व्यक्ति है और संजीव मेहरा (नीरज काबी) एक ऊँचे वर्ग का। बाक़ी चरित्र केंद्र में भले ही नहीं हैं, पर कहानी में उनकी भूमिका केंद्र में है और यही चरित्र धर्म और वर्ग, लिंग और वर्ग, जाति और वर्ग की इंटरसेक्शनलिटी दिखाते हैं। जाति, जेंडर, धर्म और वर्ग के आधार पर बने सियासती और सामाजिक पूर्वाग्रह जिनके कारण किए जाना वाला भेदभाव और इस भेदभाव से हाशिए के लोगों के जीवन में जितने तरीक़े की कठिनाइयाँ आती हैं, कहानी में उसे प्रामाणिकता से गढ़ा गया है।

‘पाताल लोक’ में पुलिस और मीडिया दोनों राज्य के उपकरण के तौर पर कैसे काम करते हैं, यह तो दिखाया ही गया है; इनकी स्वायत्तता का फ़रेब भी दिखाया गया है। उदारवादी राज्य और समाज में व्यक्तिवाद इतना केंद्र में है कि सिस्टम से लड़ने या सिस्टम में काम करते रहने के बाद भी व्यक्ति सिस्टम और समाज के ऊपर या तो अपने आत्म को वरीयता देते हुए सिस्टम में ऊँचा चढ़ता जाता है या सिस्टम में अपने आपको किसी तरह से बचा पाता है। झूठ को सच की तरह गढ़ने वाला संजीव मेहरा सिस्टम को इस्तेमाल कर अपने आसन्न पतन को पूरी तरह टालकर ऊँचा उठ जाता है, वहीं हाथीराम सिस्टम का सच जानने के बाद अपने को किसी तरह बचा पाता है।

इस सीरीज में केंद्रीय किरदारों की लिखाई अद्भुत है और यह अद्भुत इसलिए भी लगती है कि भारत में इस तरह किरदारों को कम ही गढ़ा जाता रहा है। यह कहा जा रहा है कि यह सीरीज ‘तहलका’ के संस्थापक-संपादक तरुण तेजपाल के उपन्यास पर आधारित है। बहुत बार किसी कृति पर सीरीज बनती है तो उसमें लिखाई का अस्तित्व खोया-सा लगता है, लेकिन इसमें लिखाई दृश्यों में गहराई से आती है। जयदीप अहलावत और नीरज काबी ने लिखी गई भूमिका को अपने अभिनय से और ऊँचा उठा दिया है। नीरज जहाँ भंगिमाओं और छोटे (कभी-कभी न सुने जा सकने वाले) संवादों से अपने किरदार को शेड्स देते हैं तो जयदीप एक मुखर प्रवाह में हैं जिसमें वह द्वंद्व को भी सजीव करते हैं।

हाथीराम एक दमित आत्म वाला व्यक्ति है जो अफ़सरों से सुनता है और मातहतों को सुनाता है, लेकिन सुनाकर भी वह सोच में पड़ जाता है। पर वही हाथीराम चौधरी जब अपने बेटे के द्वारा चुराई गई बंदूक़ लौटाने जाता है और वहाँ जिस भाषा का इस्तेमाल करता है, वह मनोविज्ञान के आधार पर भी सटीक है। वहाँ गालियाँ भी सामान्य लगती हैं। जयदीप के अभिनय को दर्शक सेलिब्रेट कर सकता है, लेकिन नीरज के अभिनय को महसूस करके ही उस किरदार की गहराई को मापा जा सकता है।

‘पाताल लोक’ देखते हुए कोरियाई फ़िल्म ‘पैरासाइट’ का ध्यान आता है। ‘पैरासाइट’ में भी निम्न वर्ग और उच्च वर्ग के अंतर्विरोध से बनने वाले समाज की कहानी है। इस ग्लोबल महामारी के समय में ‘वर्ग’ की तरफ़ फिर बौद्धिकों का ध्यान गया है। निम्न वर्ग के जीवन में किस तरह की आकांक्षाएँ होती हैं, किस तरह की हताशाएँ आती हैं और उन आकांक्षाओं के कारण जिस तरह की घटनाओं का वे सामना करते हैं, उसमें वर्ग और उसके भीतर भी श्रेणी की अहम भूमिका होती है। ‘पाताल लोक’ में चारों किरदार अतीत से भागने के लिए एक अलग वर्तमान गढ़ना चाहते हैं, लेकिन भविष्य उनके लिए कुछ और तैयारी किए हुए है जिसमें अप्रत्याशितता है। ‘पैरासाइट’ में यह अप्रत्याशित घटनाओं के विकास-क्रम में उपस्थित होता है, लेकिन ‘पाताल लोक’ में यह सामाजिक सरंचना के भीतर योजनाबद्ध है। ‘पैरासाइट’ में चार सदस्यों का परिवार है जो ज़मीन नहीं, बल्कि ज़मीन से भी नीचे रहते हैं। ‘पैरासाइट’ के चरित्रों का विकास घटनाक्रम की प्रतिक्रिया में विकसित होता है, लेकिन ‘पाताल लोक’ में हाशिए के ये चारों किरदार निर्देशकीय परिकल्पना का अनुसरण करते हुए लगते हैं। ट्रांसजेंडर, मुस्लिम, दलित और उत्पीड़ित तबके के किरदारों के चयन से ऐसा लगता है कि निर्देशक एक स्टेटमेंट देना चाहता है। कहानी के साथ इन चारों का चरित्र खुलता नहीं। ऐसा लगता है कि प्लान कर दिया गया हो कि क्लास फ़ैक्टर के साथ इन चार को इंटरसेक्शनिलिटी में धर्म और वर्ग, लिंग और वर्ग, जाति और वर्ग दिखाना है। इन चार श्रेणियों के प्रति समाज की मुख्यधारा का जो पूर्वाग्रह है या अंदाज़ा है, उसको तोड़ा जाना चाहिए… यह संदेश देने की कोशिश है। सीरीज के इस प्लॉट में चीनी के चरित्र की लिखाई के मुक़ाबले अन्य किरदारों की लिखाई कमज़ोर है, शायद इसलिए भी कि ‘चीनी’ वाला प्लॉट अभी अनएक्सप्लोर्ड प्लॉट है—सिनेमा की दुनिया में।

‘पाताल लोक’ इस बात का प्रकटीकरण है कि स्त्री को एकल वर्ग के तौर पर देखने का आग्रह, दरअसल दुराग्रह है। तीन मुख्य स्त्री किरदारों में दो अपर क्लास स्त्रियाँ हैं, जिसमें दो हाउस मेकर हैं और एक पेशेवर पत्रकार। जिसमें दो अधेड़ होती स्त्रियाँ हैं तो तीसरी युवा। तीनों में जो सबसे आज़ाद लगती है, अंत तक वह सबसे बँधी हुई नज़र आती है और जो सबसे बँधी हुई लगती है, उसमें एक अलग ताप है। वैसे स्त्री किरदारों को देखकर ऐसा भी लगता है कि निर्देशक इन किरदारों को लेकर हड़बड़ी में है। पुरुष किरदारों की तुलना में इनके अंतर्द्वंद्वों का स्पेस तो कम है ही विकास की रेखा भी स्वाभाविक नहीं है। संजीव मेहरा की पत्नी का किरदार जो असुरक्षित महसूस करते हुए अचानक सुलझा हुआ व्यवहार करने लगती है, उसी तरह से महिला पत्रकार पहले एकदम उन्मुक्त है और जज नहीं करना चाहती, लेकिन सीरीज के बीच से ही वह आदर्शवाद की राह पकड़ लेती है। यहाँ यह सवाल मन में आता है कि विस्तार की संभावना के बावजूद एक ही आख्यान में जो सार्वजनिक की यथार्थ अभिव्यक्ति का दावा करता है, उसमें केंद्रीय स्त्री किरदारों की लिखाई उस जैविक तरीके से क्यों नहीं है—जैसे पुरुषों की?

‘पाताल लोक’ का उद्देश्य केवल उत्तर भारत की दुनिया को संचालित करने वाले राजनीति और अपराध के समीकरण को दिखाना नहीं, बल्कि यह दिखाना है कि इस समीकरण को बचाने के लिए किसी भी चीज़ की बलि दी जा सकती है। इसका डार्क हिंसा के दृश्यांकन में नहीं, बल्कि भविष्य में इस समीकरण के टूटने की नाउम्मीदी में है। यह स्थापित करता है कि हाशिए का आख्यान हाशिए पर बना रहेगा, हाशिए के लोगों का संघर्ष मामूली; लेकिन बड़ा है और बड़े लोगों का संघर्ष अपनी ताक़त को बरक़रार रखना और मज़बूत बनाना है; लेकिन यह बड़ा लगता संघर्ष उनके लिए मामूली है। शुरुआती दृश्यों में ही पाताल लोक की चर्चा के बाद जैसे ही मुख्य किरदार पर कैमरा फोकस होता है, उसी के पैर के नीचे एक तिलचट्टे को मरते हुए देखा जाता है और यह कहानी की थीम को स्थापित कर देता है कि जो ज़मीन के लोग हैं, जो कामगार हैं, जो हाशिए का वर्ग है… वह कुचला जाएगा। बात चाहे जो भी हो, घटना चाहे जो भी हो, मुद्दा चाहे जो भी हो… वह कुचला जाएगा। एक मामूली क्रिया, लेकिन अर्थसंदर्भ गहरा। इस सीरीज़ से हम सबके मन में यह सवाल ज़रूर आता है कि अपराधी कौन है और बड़ा अपराध क्या है?

‘पाताल लोक’ के क्रिएटर सुदीप शर्मा हैं और निर्देशक अविनाश अरुण और प्रोषित राय, अनुष्का शर्मा इसकी निर्माताओं में एक हैं। सीरीज का कैमरा और लेखन अपने कथ्य को जिस सिनेमाई भाषा में गढ़ता है, वह इंटरसेक्शनलिटी को देखने के कोण उपलब्ध कराता है। इस सीरीज को देखने का एक तरीक़ा यह भी है कि उन किरदारों की भूमिका देखें जो कम समय के लिए पर्दे पर हैं, लेकिन आख्यान में निर्णायक भूमिका रखते हैं; जैसे न दिखने वाला दुनलिया हो या वाजपेयी का सहायक सचिव।

स्मृति सुमन ने सिनमा पर शोध किया है और राजनीति विज्ञान पढ़ाती हैं। सिनेमा का राजनीतिक पाठ निर्मित करना उनकी रुचि का क्षेत्र है। उनसे smritisumanma@gmail.com पर बात की जा सकती है। इस प्रस्तुति से पूर्व ‘सदानीरा’ के लिए उन्होंने ‘न्यूटन’ पर लिखा था : लोकतंत्र में आख्यान की रणनीति

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