कविताएँ ::
मौलश्री कुलकर्णी

मौलश्री कुलकर्णी

पुरखे : सन् 90 की यादें

वे दुखी लोग थे,
लेकिन हर वक़्त आँसू पोंछते, कविताएँ करते, उदास गीत सुनते दुखी नहीं,
साग काटते, देर से सोते, छत बुहारते, क़र्ज़ उतारते, हँसते, मुस्कुराते, चुटकुले सुनाते,
दुखी लोग…
उन्होंने कभी क्रांतियाँ नहीं कीं,
ज़्यादा से ज़्यादा लव मैरिज कर ली थी।

महान नहीं थे वे,
दूसरों को नीचा दिखाते, छोटों को पीटते, बड़ों को गालियाँ देते थे,
लेकिन फिर साथ बैठ चित्रहार देखते,
लंबी चटाई डाल, खर्राटे भरते सो जाया करते थे वे लोग…

बहुत लड़ाकू थे वे,
अपने-आपमें उलझे, बड़बड़ाते, चीख़ते-चिल्लाते
लेकिन जब घर में पहली लड़की पैदा हुई,
उन्होंने पूरे मोहल्ले को दावत दे डाली,
और फिर तीन साल तक अपने लिए नए कपड़े नहीं बनवाए…

बहुत चिड़चिड़े थे वे,
कि अपना घर, अपने लोगों को पीछे छोड़कर,
एक नए परिवार को सँभालना और टिक पाना,
वहीं एक साल भर की बच्ची को काँख में दबाए,
रोटियाँ बेलना और रोते ही जाना,
फिर ख़ुद ही ख़ुद में दे देना वे सारे जवाब,
जो किसी और के उधारी थे,
खिलखिलाकर हँस देते थे वे जब,
पड़ोस का बच्चा किसी की पतंग काट लाता था…

जब विजेता लगे थे इतिहास लिखने में,
इन दुखी लोगों ने छत पर चढ़कर,
एंटीना सीधा कर लिया था,
पुरखों के सारे क़र्ज़ चुका दिए थे,
रेडियो पर बजने वाले सारे नए गाने सीख लिए थे,
और घर के पहले-पहले बच्चे को,
लहसुन-अजवाइन वाले सरसों के तेल से मलकर,
धूप में सुला दिया था।

घर आना

घर आना हर बार
जाना-पहचाना होता है
भीतर रह रहे आठ साल के बच्चे के लिए,
जिसे उम्मीद है कि इस बार
उसके साथ कुछ बेहतर होगा।

आठ साल के उस बच्चे के ज़ख़्म
अभी कच्चे हैं
जो मिले हैं उसे
बड़ों की खाल पहने
घायल, घबराए बच्चों से
वे बच्चे जो भर नहीं पाए अपने घाव,
पीढ़ी-दर-पीढ़ी सौंपते गए इन्हें
विरासत में।

ये बातें तुम अब समझने लगे हो,
लेकिन नहीं समझता अभी
तुम्हारे भीतर रह रहा
आठ साल का बच्चा
इसलिए वह तड़प उठता है जब
बड़ों से तुम माँग लेते है वो
जो उसे चाहिए था,
वह बच्चा मानता है इसे अपनी कमी और
बार-बार फोड़ता है अपना सिर
पत्थर पर मारकर।

वह अभी माफ़ करना नहीं जानता,
वह सिर्फ़ आठ साल का है
अभी नहीं सीख पाया है
आँखें बंद कर सुकून से मुस्कुरा पाना।

अब तुम्हें ये करना है कि
उस छोटे, उदास, ज़ख़्मी बच्चे को
कसकर गले लगाओ
उसे दिखाओ कि
प्रेम करना और माफ़ कर पाना
कितना सुंदर है
और ये भी कि जब सिर मारने से
नहीं टूट रहे हों पत्थर
तो बग़ल से निकल जाना कमज़ोरी नहीं
ख़ुद की हिफ़ाज़त करना है।

अगर हो सके तुमसे तो
गले लगा लेना
उन दो बूढ़े, घायल बच्चों को भी;
इसलिए नहीं कि ये ज़िम्मेदारी है तुम्हारी,
बस इसलिए कि तुम उनसे
थोड़ा-सा बेहतर जान पाए हो…

एक गिलहरी की क़ब्र के बहाने

एक बड़े कवि ने लिखा :
‘जाना हिंदी की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया है’,
एक-एक कर लोग जाते रहे, चले गए
उनके जाने से कोने-कोने में बढ़ गई
उनके दो क़दमों जितनी जगह
कमरे बड़े हो गए, घर सिकुड़ने लगे
तब लगा कि जाना ख़ौफ़नाक तो है
लेकिन जाने वाले के बाद बचे रह जाने से थोड़ा कम।

जाने वाले अक्सर जल्दी में होते हैं,
उनकी बातें, यादें, साड़ियाँ, तस्वीरें,
जीवन भर समेटते हैं वे जो रह गए हैं।

फिर एक रात क़रीब साढ़े ग्यारह बजे,
छत पर टहलते हुए
नज़र आती है
सड़क पर बर्फ़ हो चुकी एक गिलहरी
बिना आवाज़ किए खोले जाते हैं दरवाज़े,
खोदी जाती है मिट्टी पीछे वाले आँगन में
और एक ईंट भर जगह में दफ़ना दी जाती है
नन्ही-सी गिलहरी।

उसकी क़ब्र पर पढ़ा जाता है फ़ातेहा
उन सभी को याद करते हुए
जिन्हें अलविदा कह पाने का मौक़ा नहीं मिला
की जाती हैं दुआएँ उन सभी के लिए
जो बचे हैं अब जीवन में एक सुराख लिए

फिर एक सुबह नज़र आता है एक पीला फूल
मुस्कुराता हुआ
उस गिलहरी की क़ब्र पर,
कुछ कलियों को साथ लिए।

फूल याद दिलाते हैं जाने वाले की,
फूल निशानी होते हैं रह जाने वालों की।


मौलश्री कुलकर्णी की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। उनकी कुछ कविताएँ आज से क़रीब छह वर्ष पूर्व ‘जानकीपुल’ पर प्रकाशित हुई थीं। उनसे moulshree.k@gmail.com पर बात की जा सकती है।

1 Comments

  1. अंचित मार्च 2, 2022 at 9:11 पूर्वाह्न

    सुंदर कविताएँ।

    Reply

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