कविताएँ ::
पंकज प्रखर
घर जाने में
पहले घर में घुसते ही
एक अजीब-सा उतावलापन होता था
कि मैं बड़ी तत्परता से नज़र फेर लूँ
कि सब कुछ यथावत है या नहीं
और घर भी जैसे मेरी प्रतीक्षा में
अपना सारा काम-धाम छोड़कर खड़ा हो।
आँगन में अलगनी पर माँ की साड़ी सूखती रहती
धुएँ से काले हुए रौशनदान ताकते रहते
कि जैसे मैं उन्हें पहचान रहा हूँ या नहीं।
माँ गुनगुनाते हुए चावल बीनती दिख जाती
गाना गुनगुनाते वक़्त माँ से कुछ कहो तो
वह बोलती नहीं थी
कई बार कहो तो वह झुँझला जाती
माँ का झुँझलाना तब बहुत अच्छा लगता था।
शाम के वक़्त घर पहुँचो तो
पिता बाज़ार से सब्ज़ी लाने गए होते
और कुछ ही क्षण में आ जाते
यह दृश्य इतना नपा-तुला था
कि इसमें कुछ भी नयापन
या अजीब नहीं दिखाई देता
चाहे जितनी बार बाहर से लौटकर घर जाओ।
अब चाहे जितनी बार घर जाओ
माँ चावल बीनते हुए दिखाई नहीं देती
धुएँ से काले पड़े रौशनदानों को कोई फ़र्क़ नहीं
कि मैं उन्हें पहचान रहा हूँ या नहीं
पलस्तर जमी हुई काई के नीचे से
देखते हैं मुझे और चुप हो जाते हैं।
बाज़ार से सब्जी लाने जैसी
अब कोई प्रक्रिया नहीं
सब्ज़ीवाला अब ठीक दरवाज़े पर ही आ जाता है।
लगता है जैसे समूचा घर
एक सफ़ेद चादर से ढक गया है
और वे सारी चीज़ें
जिन्हें मैं बड़े उतावलेपन से ढूँढ़ता हूँ
उसके नीचे छुप गई हैं।
घर जाने में अब
घर जैसा सुख नहीं रहा।
घर जाने में अब डर लगता है
कि फिर मुझे लौटकर आना है।
भूलना
भूलना एक प्रक्रिया का नाम है!
—मुझे नहीं आती।
मुझे अब भी तमाम पुरानी चीज़ें
याद आती रहती हैं।
अक्सर किसी पुरानी किताब में
कोई चीज़ ढूँढ़ने लग जाता हूँ
जैसे किसी पन्ने पर कोई नाम लिखा हो
या कभी किसी किताब में
कोई डाक टिकट छुपाया हो।
कई बार माँ से
उस पुरानी साड़ी के बारे में
पूछने लग जाता हूँ
जिसे बचपन में कभी
उसे पहने हुए देखा था।
चीज़ें अब पहले जैसी नहीं रहीं
मेरी स्मृति में बसी पुरानी चीज़ें
कायांतरित हो गई हैं
पर वे मुझे भूलती नहीं।
लोगबाग़ कहते रहते हैं
कि सब कुछ भूलकर
आगे बढ़ना ही जीवन है।
मैं सोचता हूँ
सब कुछ भूलने के बाद
जो बचेगा
वह जीवन तो न हो सकेगा!
इस उम्मीद में
इस उम्मीद में कब तक रहूँगा
कि स्वीकृत हो जाऊँ
मैं
हृदय में तुम्हारे
बह उठे
तुम्हारे नयन-कोटरों में
अविरल प्रेम हमारा।
मैं नहीं चाहता
प्रेम में
प्रतिद्वंद्वी बनूँ
या फिर दया का पात्र बन
उस युवराज के सम्मुख लज्जित रहूँ
जिसे वरण करो तुम।
मैं ख़ुद के भीतर रखकर
नेह के सब संदर्भ
दूर राजधानी से तुम्हारी
विचरता रहूँगा
जनपद की धूल बनकर।
मैं तुम्हारे प्रेम में
छितवन बनूँगा
महकता रहूँगा
उस निर्जन नदी किनारे
जहाँ पलता रहेगा सौंदर्य
जीवित रहेगा प्रेम!
अभिसारिका
उस दिन मैंने अनायास ही
विनोद में कह दिया :
यह नील परिधान
तुम्हारी सुवर्ण कमनीय देह पर नहीं शोभता।
लेकिन शुभे! अबकी आना मिलने तो
पहनना वही नीली फुलकारी वाली कुर्ती,
तिस पर ओढ़ना अपना कुसुम्भी दुपट्टा
और बालों को खुला न छोड़ना
नही तो ये उच्छृंखल तरयौना खेलेगा उनसे
मेरी लरजती उँगलियाँ कोसेंगी ख़ुद को।
पहनना वही श्यामवर्णीय तरयौना जो गए दिन
अस्सी घाट से लाई थीं तुम।
सुवर्णे! अबकी आना जब
पायल न पहनना
वह रति में बाधा ही पहुँचावेगी।
गुल्फ में पहन लेना श्याम वर्ण का सूत
इधर-उधर की नज़र से बचने के लिए
पहना करे हैं ये आजकल स्त्रियाँ।
दिन भर की चाक-डस्टर धूल से किरकिराते
विशाल पुंडरीक नेत्रों को धुल लेना
गुलाब मिश्रित जल से।
तदुपरांत घी से सजे कज्जल चूर्ण से
करना उन्हें अंजित
निकालना एक पतली-सी कोर,
अहा! यह रात्रि अत्यंत सघन हो उठेगी।
भ्रू-अलकों के मध्य में कुमकुम न लगाना
नही तो इस कृष्ण रात्रि में प्रस्फुटित हो उठेगी
तुम्हारे प्रदीप्त ललाट पर यह ज्योतिर्मय लालिमा।
श्याम वर्ण की लघु बिंदी रखना
भ्रू-लताओं के तनिक ऊपर।
सुवर्ण कंगन न पहनना मणिबंधों में!
डालोगी जब गलबहियाँ तो चुभेगी ग्रीवा में मेरे।
सुनो! यह बूढ़ा आम्रवृक्ष तनिक बुदबुदाता है
अबकी यहाँ न मिलने आना प्रिया!
प्रिये! जब आना तो अपने नाम से
उपसर्ग (सु) पृथक कर देना
यह चंपा लजा जाती है तुमसे।
आना! तनिक रात ठहर जाए तब
छतों पर कूदने की आवाज़ बंद हो जाए जब
आ जाना! रख देना अपने अधर मेरे अधरों पर!
सब कुछ अनकहा पढ़ लूँगा।
चूमकर ग्रीवा पर रख देना एक दंत-पंक्ति
मेरे वक्ष के रोम में फँसाकर अपनी दुबली उँगलियाँ
रख देना अपने स्तनों को मुख पर मेरे
तुम्हारे उभारों में छुप, सोऊँगा
विस्मृत होकर, निश्चिंत!
पहर दो पहर तक।
आजकल
सोते हुए अचानक से याद आता है
कि आज एकादशी है।
मैं चौंक जाता हूँ!
हड़बड़ाकर उठता हूँ और
माँ को फ़ोन करता हूँ।
अपने हड़बड़ाने पर ग़ुस्सा भी आता है मुझे।
अचानक से याद आता है कि
मैंने छोड़ दिया है जलता हुआ चूल्हा
उबलता हुआ दूध और
दाल में नमक डालना ही भूल गया हूँ।
कई बार तो खुला ही छोड़ देता हूँ नल को।
बिस्तर पर लेटे-लेटे सोचता हूँ
पूरे दिन का हासिल तो याद आता है
कि दफ़्तर में आज की हाज़िरी नहीं लगाई मैंने।
टेबल पर छोड़ आया हूँ किताबें और
सब्ज़ीवाले को पैसे भी नहीं दिए हैं।
बकरियों को देखता हूँ तो
मुझे अपना बड़का खेत याद आता है।
मैं अक्सर भूल जाता हूँ बड़का खेत को।
बड़का खेत में अबकी अरहर बोया गया है
और अभी बाजरा काटने को पड़ा है।
जीवन की तमाम उथल-पुथल के बीच
चीज़ें याद नहीं रहतीं अक्सर।
लेकिन इन तमाम अव्यवस्थाओं के बीच
अगर कुछ स्थिर है तो
वह किसी की याद है
जो नष्ट नहीं होती!
अनकहा
अगर खोदकर देखो तो
एक के ऊपर एक
चिपकी हुई परतें दिखाई पड़ेंगी
पर इस सड़क की ज्यामितीय संरचनाएँ
तुम्हें कभी नहीं बताएँगी
आबला-पाई के क़िस्से।
पत्थरों के टुकड़े यह नहीं बताएँगे
कि कभी यहाँ धान का खेत भी हुआ करता था।
यह विशाल पुल जो खड़ा है
इस नदी की छाती पर
इसकी मेहराबें यह नहीं बताएँगी
कि आख़िरी बार कब इसकी लहरें
आसमाँ छूने को मचली थीं।
ये किनारे तुम्हें कभी नहीं बताएँगे
कि मनुष्य ने अपनी आख़िरी यात्रा
यहीं पूर्ण की थी।
ये मुआवज़े वाला रजिस्टर लिए बैठा है जो बाबू
वह मुआवज़े की तारीख़ कभी नहीं बताएगा।
उसकी पीली फ़ाइलों में दफ़्न दस्तावेज़ चुप हैं,
ज़बान को लकवा मार गया हो जैसे।
लेकिन वह जो सड़क किनारे
पगडंडियों पर चल रहा है
उससे पूछो…
उसकी चमकती आँखें बताएँगी
कि इन्हीं पगडंडियों पर
चलने वालों की छाती पर बना है
यह राजमार्ग।
पिता और बरगद
पिता और बरगद
उनकी कहानियों में
अनगिनत बार आता था
वह गाँव के मुख्य मार्ग जैसा था
जिस पर खड़े होकर प्रायः
वह कहानियाँ सुनाया करते थे।
पिता के कोप से बचने के लिए
कितनी बार खोड़रों ने उन्हें
अपनी गोद में सुलाया
या फिर पूरे गाँव की ओसौनी से लेकर
पूरे जवार के मीठा के पकने तक की
जाने कितनी कहानियाँ सँभाले था वह।
मैंने जबसे होश सँभाला
पिता की लंबी उम्र की ख़ातिर
माँ को इसी बरगद में
धागा लपेटते देखा।
बरगद अब नहीं रहा,
पिता भी नहीं रहे!
बरगद पहले गया
पिता बाद में।
और!
पिता के साथ
कहानियों में
बरगद भी चला गया!
पिता की याद
किसी के जाने से
नहीं बदलता है सब कुछ
रात अब भी होती है
ठीक समय पर
दूर कहीं चलती है अब भी
एक आटा चक्की।
ठीक पौने बारह बजे
छत पर होती है
धम्म! की आवाज़
और आँगन में कूद पड़ती हैं
पेड़ से ग़ुर्राती हुई बिल्लियाँ।
सुबह होते ही पेड़ों पर
उग जाते हैं पत्ते
जैसे ज़ख़्म पर
खिल जाते हैं नए फूल।
मुझमें दिखती है
बस दरवाज़े की रिक्तता
जो नहीं भरेगी
कभी!
भूलना फिर
भूल जाना कितना सुखद होगा!
वे तमाम स्मृतियाँ
जो चाहे-अनचाहे
वक़्त-बेवक़्त
मस्तिष्क की तमाम विविधताओं के बीच
तैरती रहती हैं
वे सब की सब
ख़ुद-ब-ख़ुद ख़त्म हो जाएँ।
कोई समूची पृथ्वी का
चक्कर लगा आए और भूल जाए
कि ठीक इस वक़्त घड़ी में कितने बजे हैं
जैसे कोई भूल ही जाए कि
आज कौन-सी तारीख़ और कौन-सा दिन है।
जैसे दफ़्तर वाले दिन
कोई धूप में बैठे इत्मीनान से
सेंकता रहे अपनी ठंडी पीठ
और उसे याद न रहे कि
आज छुट्टी का दिन नहीं।
प्रेम की गई स्त्रियाँ किसी दुपहरी
बरगद के नीचे सुस्ताती हुई मिलें
और धूल उड़ाती गाड़ी के साथ
उड़ जाएँ उनके चेहरे
उनका स्पर्श।
यह कितना सुखद होगा
कि जब भी हम किसी से मिलें
एक अजनबी की तरह मिलें
मिलने की तरो-ताज़गी लिए हुए।
पर यह आसान नहीं
कि आदमी यकायक भूल जाए सब कुछ।
भूलने वाली इक उम्र में पहुँचने के बाद भी
याद रह जाएगा बहुत कुछ
मस्तिष्क से रिसती रहेंगी
वे तमाम स्मृतियाँ
जिन्हें गाहे-बगाहे हमने भूलने की
असंख्य कोशिशें कीं।
मरने की ख़बर
किसी के मरने की ख़बर कैसे मिलनी चाहिए?
ठीक वैसे ही जैसे किसी के जन्म की ख़बर मिलती है
या फिर धीरे-धीरे
कि बीमार
बहुत बीमार और फिर
फ़लाँ अब नहीं रहे!
धीरे-धीरे पेड़ों को सूख जाना चाहिए
हवाओं को अचानक से रुक जाना चाहिए
जैसे अचानक से साँस रुक जाती है
फिर कोई नब्ज़ टटोलकर धरती से कहे कि
अभी रुको
तुम नहीं चल सकती
कोई मर गया है
इसी पृथ्वी का वासी था
या अचानक से कोई यह कहे कि
पिता मर गए!
फिर ज़ोर से चिल्लाकर कहे कि
मर गए
मैं आस-पास की चीज़ों से कहूँ
कि पिता मर गए!
तुम सुन रहे हो पिता मर गए हैं
मुँह बाँधी हुई स्त्री
संगीत से थोड़ा विमुख होकर
मुझे देखे और कहे
हाँ शायद सचमुच मर गए
पर मरने की ख़बर ऐसे नहीं मिलनी चाहिए!
खेत की मेड़ पर पिता से बतियाते हुए
जानते हो!—पिता ने बहुत गंभीर होते हुए कहा।
यह छितवन बहुत पुराना है।
इसने अपने अखाड़े में न जाने कितने
पहलवानों की जवानी के दाँव देखे हैं
उनके बुढ़ापे को छाँव देते हुए
उनकी कमज़ोर पसलियों से झूलती
त्वचा को भी देखा है
मेरे बेटे, जैसे ये गेहूँ की जड़ें
सोख लेती हैं पानी को
वैसे ही सोख लेना अपने उठान को
कभी मत करना घमंड
चुपचाप बहते रहना क्यारियों के बीच
तैरते पानी की तरह
विघ्न-बाधाओं को चीरते-ठेलते हुए
फिर जब तुम्हारी हड्डियाँ बूढ़ी हो जाएँ
तो यही छितवन देगा छाँव तुम्हें
आख़िर किसी ने तो देखा होगा बचपना उसका?—
मैंने उत्सुकता में पूछा।
पिता ने हँसते हुए कहा—
मेरे पिता ने भी ठीक ऐसे ही बताया था
जैसे मैं तुम्हें बता रहा हूँ
तुम भी ठीक ऐसे ही बताना अपने बच्चों को।
और कितना कम होता जा रहा हूँ
दुनिया भर की रातों का कालापन
मेरी आँखों के नीचे जमा हो गया है
मेरे चेहरे की त्वचा सूखने लग गई है
ये आईना झूठ तो नहीं बोल सकता
कल तक मेरे भीतर का युवा
इसी आईने में देखता था
प्रेमिका के चूम लिए गए कपोल
होंठों को छूकर फूले नहीं समाता था
आज इन्हीं होंठो पर सिगरेटों के काले धब्बे हैं
अनगिनत बार बोले गए झूठ के दाग़ जमे हुए हैं
जाने कितनी महत्त्वाकांक्षाओं का बोझ
जमकर पीला पड़ गया है
इन आँखों की पुतलियों में
मुझे नहीं लगता
यह आईना झूठ बोल रहा है
मैं पिछले कई दिनों से
उँगली पर रोज़ाना गिनता रहा हूँ हिसाब
रातों को जोड़ता रहा हूँ
तमाम फ़ायदे-नुक़सान
वर्गीकरण की पद्धति में छाँटता रहा हूँ
चीज़ों को
एकाएक चौंक उठता हूँ मैं
रात जब मध्य में होती है
मुझे दिखती है गली में उठती धुंध
जिसमें से बाहर आता
एक नया-नया जवान हुआ लड़का
जिसकी चमकती आँखें जिज्ञासा से भरी हुईं
हज़ारों सवालों के जवाब जानना चाहती हों जैसे
मैं उठता हूँ
आईने में देखता हूँ और मुझे लगता है
हर रोज़ मैं खुद में कितना-कितना
और कितना कम होता जा रहा हूँ।
फलाने के दुल्हिन
वह मशीन में चारा काटती है
चारे के साथ काटती है दु:खों को
सानी के साथ गोत देती है ग़मों को
गोबर के साथ पाथ देती है उपले में
कभी न पूरा हो सकने वाले स्वप्न
आँचल के खूँट से गठिया के
रखती है आटा की पिसाई का दाम
ठीक समय पर गेहूँ में डाल देती है यूरिया
और दुपहरिया में जाकर हाँक आती है
अरहर के खेत से बकरियाँ
सुलगा देती है शाम होने से पहले धुअँरहा
ताकि धुएँ के साथ उड़ जाए
उसके हृदय की अनकही पीर
चेफुआ झोंक के बनाती है भात
सनई के रस्सी से बनाती है
गाय का पगहा
और बरूआ से बीनती है
बेटियों के गौने के ख़ातिर मोनिया
माँ कहती है लछमिनिया है वो
जबसे आई उसका घर भर गया
मैं कहता हूँ कितनी अभागन है
उसका बेटा छीन लिया उसकी सौत ने
जब शहर से आता उसका मरद और उसकी सौत
तो सोती है खटिया बिछा के भूसऊला में
बैठती है अकेले आग के पास
जोड़ती है भूसी का दाम
और पूरा करती है हिसाब
बेटा जब कहता है मौसी
तो कलेजे में मचलता हुआ वात्सल्य
आँख के कोर पर आकर सूख जाता है
ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव की बात पर
जब हँसती है तो उसकी झूलनी शरमा जाती है।
उसकी झूलनी में झूलते है
उसके जीवन के न जाने कितने रंग
वह मेरे गाँव की इकलौती औरत है
जो झूलनी पहनती है।
एक असाध्य प्रमेय-सा
ठीक इन्हीं दिनों में
मिले थे तुम
टूटकर जैसे स्वर्ग से इंदीवर
कोई आ गिरा हो हथेली पर मेरी
मैं विदग्ध हो तुम्हारे स्पर्श मात्र से
भूल चुका था संताप सारे
विस्मृत हो गई थीं सुधियाँ सब
पर ये क्या अभिसार को आतुर
ज्यों ही खुले नेत्र
हाय! जाने किस ओर गए तुम!
पुकारता हूँ बार-बार
देखता हूँ घूमकर
पर्वत-नदियाँ
द्वार-द्वार
हाय! जाने किस ओर गए तुम!
लौटती नहीं प्रतिध्वनि
मेरी पुकार भी खो गई!
काश!
काश देख लेता एक बार
तुमको नयन भर!
प्राण मेरे…
भर जाते तृषित नयन
खिल उठते कुम्हलाए अयन
छलक उठते अश्रु
होता प्रफुल्लित-प्रतिपल
गूँज उठते हृदय में
मधुर प्रणय के गान मेरे
हाय! पर यह हो न सका
आज इन चुप दीवारों के बीच
शून्य-सा बैठा हुआ
सोचता हूँ मैं!
वह कोई दिवा स्वप्न था
जो कल रात से
बरबस याद आ रहा है मुझको
कर व्याकुल हृदय को
छेड़ता है राग कोई
खींचता हैं विरह की
एक स्पर्श-रेखा
जीवन हो गया है
एक असाध्य प्रमेय-सा
छंदहीन
प्रबंधहीन
एक गहरे ठहरे जल में
डूबे हुए शैवाल-सा।
शहर से बाहर जाते हुए
एक दिन अचानक
शहर से बाहर जाते हुए
मन हुआ कि अब वापिस नहीं लौटूँगा
कभी नहीं लौटूँगा
हमेशा के लिए ही नहीं लौटूँगा।
लेकिन अगले ही पल यह सोचकर
मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई कि
अगर यहाँ न लौटा तो जाऊँगा कहाँ?
ले दे के यही तो एक जगह है
पूरी दुनिया में
कि जहाँ घर है मेरा।
बाहर की उस दुनिया में
शायद सब्ज़ीवाला न हो!
नीम का पेड़ भी न हो!
बाक़ी अगर हो भी
तो मुसद्दी के पान की दुकान
यक़ीनन न होगी।
नहीं होने के लिए
कुछ भी नहीं हो सकता है
जैसै मैं घर न लौटूँ तो बत्ती बुझाने और
बाज़ार से सब्ज़ी लाने के लिए
कोई नहीं होगा।
मेरा भीतर एकदम निरुत्तर हो गया!
हालाँकि बाहरी दुनिया में यहाँ से दूर
बहुत ख़ुश था मैं
मगर मुसद्दी के पान की दुकान ने
शायद रोक लिया मुझे।
ऐसी जाने कितनी चीज़ें हैं
जो मुझे रोकती रहती हैं
शहर से बाहर जाने के लिए।
मैं हारकर उठा
बुशर्ट से बाहरी दुनिया को झाड़ते हुए
ठीक उसी पुराने रास्ते पर आ गया।
अभी कुछ दूर चला ही था कि
साथ चलते हुए मेरे मित्र बुदबुदाए—
‘फिर से आदमी दिखने लग गए’
मैं समझ गया!
मैं वापिस लौट आया हूँ शहर में।
पंकज प्रखर (जन्म : 1994) की कविताओं के विधिवत् प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। इससे पूर्व उनकी कुछ कविताएँ, कवितांश और गद्य फ़ेसबुक-इन्स्टाग्राम-साहित्य-पृष्ठों पर ही कभी-कभी प्रकाशित हुए हैं। पर यहाँ प्रस्तुत उनकी पंद्रह कविताएँ स्पष्टतः इस बात की तस्दीक़ हैं कि उन्होंने हिंदी की समकालीन और केंद्रीय कविता में प्रचलित लगभग सभी काव्य-ढंगों को आज़माया है—सिर्फ़ राजनीतिक कविता को छोड़कर। पंकज प्रखर के विषय में यहाँ यह तथ्य भी काफ़ी आकर्षित करता है कि उनका कवि पत्रिकाओं-विभागों-प्रतिष्ठानों-संस्थानों-लेखक संगठनों की पैदाइश नहीं है। वह उस अर्थ में इंटरनेट या सोशल मीडिया की भी पैदाइश नहीं है, जिसमें एक दैनिक काव्य-उपद्रव पाया जाता है। उनकी काव्य-योग्यता ने अभी पूरी तरह अपनी राह चलना शुरू नहीं किया है, लेकिन इस योग्यता का प्रारंभिक प्रदर्शन यह बताने के लिए पर्याप्त है कि वह एक वैशिष्ट्य पाने की ओर है। पंकज प्रखर से pankaj.prakhar24@gmail.com पर बात की जा सकती है।
पंकज की कविताएं पढ़ी। लगभग सभी कविताएं स्मृति को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं।कविताएं उल्लेखनीय हैं। फलाने की दुल्हिंन कविता बेहतरीन लगी।
अलबत्ता उपमान और भाषा में नएपन की न्यूनता है जो संभवतः समय के साथ उनकी कविताओं में आएगा।
बहुत सुंदर सखी।
अच्छी कविताएँ हैं। इन कविताओं के माध्यम से नवोदित कवि पंकज प्रखर से परिचित होकर अच्छा लगा।
बड़ी ही सजीव से लगती है हर पंक्तिया ।
बहुत सुंदर❤️
बेहतरीन कविताओं में से एक है “फलाने की दुल्हिन”