कविताएँ ::
हिमांशु विश्वकर्मा

नदियाँ और बेटियाँ
उन्नीस वर्षीय हिमानी के लिए… एक सुदूर पहाड़ी ग्रामीण इलाक़े से आई लड़की, जो स्नातक के लिए महिला महाविद्यालय हल्द्वानी प्रवेश लेती है। साल भर खेल के क्षेत्र में जीवन सँवारने का लक्ष्य लेकर महाविद्यालय की अनेकों प्रतियोगिताओं में प्रतिभाग करती रही। बैडमिंटन में उच्चस्तर की सक्षम खिलाड़ी होने पर भी जिसके बेहतरीन खेल, भविष्य और प्रेरणा को आंतरिक गुटबाज़ी और प्रशासनिक ठगबाज़ों ने आगे नहीं बढ़ने दिया।
जैसे सुदूर पहाड़ों से आती हैं नदियाँ
ऊँचे पर्वतों
ताज़ा हवा और
हरे पत्तों पर बिसरी ओस की बूँदों को
उलाँघकर मैदानों तक
ठीक वैसे ही हिमाल की बेटियाँ
उलाँघकर आती हैं मैदानों पर
असंख्य देहलियाँ
अनगिनत भेड़ें
अलौकिक बुरूंश1सुर्ख़ फूलों का राज्यवृक्ष [Rhododendron] और क्वेराल2कचनार [Bauhinia Variegata] के पुष्प
मैदानों में आकर
नदियाँ सींचती हैं
तीव्र-निरंतर और नीरस
पिंजरों में बंद
शहरों के फड़फड़ाते ख़्वाबों को
फिर भी मोड़ दी जाती उसकी दिशा
क़ैद कर लिया जाता है उसका संवेग
बदल दिया जाता उसका रंग
और उसकी देह में ठूँसी जाती है
तमाम सभ्यताओं की गंध
मैदानों पर आकर
मेहनत और लगन से
बेटियाँ खींचती हैं
अपने सपनों की लकीरें
ईजा-बाज्यू3माता-पिता और दाज्यू4बड़ा भाई भेजते हैं दुआएँ
भेजते हैं—
काफल5ग्रीष्मकाल में 4000-6000 फ़ीट पर लगने वाला पहाड़ी जंगली फल [Myrica Esculena] जिस पर अनेकों लोक-कथाएँ हैं… , ककड़ी, बिरुड़े6स्थानीय पाँच-सात तरह की उगने वाली दालें और घी
बेटियाँ जब बढ़ने लगती हैं
शहर में
अपने भविष्य के लिए
तभी
खींच लिए जाते हैं
उसके हाथ
हाशिये पर रख दिए जाते हैं उसके ख़्वाब
पूछे जाते हैं अनगिनत सवाल
निर्दोष वह जब लड़ती है
हक़ की लड़ाई
बोला जाता है उसे गँवार
पढ़ाई जाती हैं—
संस्कार और मर्यादाओं की पोथियाँ
बेटियों को सताया जाता है
दी जाती हैं
गालियाँ
मैदानों पर आने के लिए
उनके क़दमों को बाँध दिया जाता है
तोड़ दी जाती सीढ़ियों पर चढ़ने की आस
मोड़ दिए जाते हैं उनके रास्ते
छीन लिया जाता है उनसे
उसके जीवन का
हौसियापन7ख़ुश-मिज़ाज/बिंदासपन
भ्यास
पहाड़ को छोड़कर शहर में बसे ठेठ पहाड़ियों के लिए
पहाड़ के सयाणों8समझदार लोग
ख़ुश रहो,
तुम्हारी ज़मीनें ख़रीदी जा रही हैं
अब अच्छे दामों में
लेकिन
शर्त लगा लो
उस पैसे से तुम
भाबर में ख़रीदे प्लॉट की नींव को
दौड़ती सड़क के बराबर भी नहीं कर पाओगे
और याद रखना
एक दिन तुम्हारी ही नस्लें
तुम्हारे नाती-नातिनें
पोते-पोतियाँ
तुमको देंगे गालियाँ
थूकेंगे तुम्हारी करनी पर
कोसेंगे तुमको कि
उस टैम9समय तुमने
ज़मीन और जंगल और पानी नहीं बेचा होता तो
गति10बुरा समय होना ऐसी नहीं होती
हम ठैरे मिट्टी से अन्न उपजाने वाले
पानी से घराटों को गति देने वाले
पेड़-पहाड़ों और जंगलों में घूमते जंगल चलाने वाले
हाय!
तुमने झूठी ठसक के चक्कर में
पीढ़ियाँ ख़राब कर डालीं
आधा रह गया
तुम्हारा संसार
गाँव में सरकारी सैप11साहब हो गए
और शहर में
भ्यास12भुस्स/सहज/बुद्धू पहाड़ी
अराजक
अनिल कार्की के लिए
पहाड़ से उतरकर जब हम
समतल मैदानों पर पहुँचे
देखा कि
यहाँ सड़क ज़्यादा लंबी और चौड़ी है
दूर क्षितिज पर ठहरा प्रतीत होता वाहन भी
उन्नत दौड़ में माहिर
कोसों फैली सभ्यताओं को थामे
कोरी हवाओं से गुज़रता हुआ
किसी के लिए नहीं रुकता
फिर फ़लाँ आदमी भी क्यों रुके?
जब उसे मिल रहा हो
बेतरतीब लसलसा उन्मादी गोश्त
वह सहज ही लेता है भाग विमर्शों में
अपनी ही ढिबरी पर माचिस से लगाता है आग
और दुनिया भर के गोबर-ज्ञान-उपलों को
चिपकाना चाहता है
दूसरों की देह से
और बना रहना चाहता है
अद्वितीय
स्मरणीय
जो स्वीकारे जाने को योग्य
पर स्वभाव में अराजक
यही ख़ुराफ़ात उसे
अब ले आई पहाड़ों की ओर
ताकि भर सके पहाड़ की देह को
अपनी अभद्र महक से
विभिन्न सामाजिक सभ्यताओं में
पुरुषत्व का भाव रहा—अराजक
स्त्रीत्व को माना गया—स्थायी
और स्थायी के मर्म पर
अराजक ने उठाई
हमेशा ही उँगलियाँ
मैदानों से संपर्क से पहले
पहाड़ स्थायी था
अब हो चुका है
अराजक
रचनावादी
नैनीताल के ख़ास रंगकर्मी महेश जोशी जी, एच.एस. राणा और ललित तिवारी के लिए
विभिन्न रचनावादी संस्कारों में सम्मिलित होते हुए भी
नाट्य और रंगमंच के युवा साथी
जब मिल पड़ते हैं
ज़िंदगी की उकाल13चढ़ाई और उतारों के बीच कहीं
तब वे क्या खोजेंगे?
तब वे क्या भोग रहे होंगे?
इस तर्पण के मध्य में
तुम और मैं
तब क्या रोप रहे होंगे?
एक से नहीं होते
रंग हर दिन के
न ही उन पर सवार धवलकिरण
उसी वेग से पड़ती है
जिस वेग से
उस दिन पड़ी थी
ठीक एकलव्य और संजय की शक्ति की तरह
एक को मिली पक्ष की दृष्टि
और एक से छीना गया उसका धम्म
काल-कालांतर
सब मौन
सबको ज्ञात
पर चोग़ों की बनावट अभी अच्छी नहीं
भीतर का मद्य
अभी भी उसी व्यापकता में
रस की मीठी धारा
अकिंचन का लहू बन फूट रिसता है
मस्तिष्क समाज का जब फूटेगा
तब उसमें सूर्यधवल फूटेगा
अगर
मनन जालसाज़ी है
मन उसका भागी है
अगर
यौवन बेगारी है
तो तन उसका व्यापारी है
और चेतना जब उत्पन्न रिसती जाती है
वह पीछे-पीछे कल्प द्वार बंद कर आती है
गूढ़ संतुलन
गूढ़ इच्छा
गूढ़ संवाद
देखो! तीनों नश्वर
और
चुनाव केवल
अपने सत्य का!
ब्यू14बीज
मेरे हिमाल के लिए
जहाँ हिमाल से दूर
शहर काट रहा होता है
रात को दिन की तरह
उम्दा टेक्नोलॉजी और
स्वयं को बेहतर दिखवाने की होड़ में
लाँघता है बैठे-बैठे
सफल होने के फ़ॉर्मूले
नेक्स्ट वीकेंड को जबरदस्त रोमांच से भरने के लिए करता रहता है प्लान
उसी समय उसका मन जूझता है
निरंतर उस जूते की तरह
जो महँगे शौक़ में ख़रीद तो लिया है
पर पैर के तलवों में बराबर चुभन
बनाए हुए है
काटता है उसको
इनफ़ीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स
चका-चौंध
बाज़ारवाद
और
पूँजी की माया में लिप्त भ्रम
उसी भेड़चाल
और रैट रेस से थोड़ा अलग-थलग
गाँव में
एक पिता सुबह-सुबह
घुघूत15फ़ाख़्ता, कफुआ16चैत के महीने में बासने वाली एक पहाड़ी कोयल, गिणी17गौरैया, टेपुल्लिया18हिमालयन बुलबुल
हाय!
पता नहीं किन-किन
पक्षियों और भौरों की गुनगुनाहट से साथ उठकर
गिलास भर चहा खाकर
हल और हौल19दो बैलों का जोड़ा जभाँधूत20अड़ियल/ताक़तवर कुमथलों21कंधे पर टिकाकर
दो बरस की
चेली22बेटी को साथ में लेकर
छिड़कता है अपने खेतों में
पुश्तैनी भकारों23मिट्टी और गोबर से लीपा गया बड़ा लकड़ी का बक्सा-फॉउलों24ताँबे का घड़ा में रखा अलौकिक ब्यू25बीज
बोता है धरती के सीने में गेहूँ
न्योली26एकल रूप से मुख्यतः विरह, विलाप, याद, प्रेम, सुख या दुःख में फूटा गीत… की धुनों के साथ करता है
फसकबाजी
दबाता है होंठों
और दाँतों के बीच मधु का नरम डोज़
और
माँ
जो कि अभी पुनः माँ बनने वाली है
रोज़ धार चढ़ कर लाती है
एक पुसोलिया27रिंगाल/बाँस से बना एक शंकुनुमा डलिया जिसको पीठ पर लादकर घास/गोबर/मिट्टी आदि जमा कर एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है… हरी घास
गोठ28गाय-बकरियों-भैसों को रखने का स्थान की धिनाली29दूध, दही, घी, छाछ के लिए चुनती है
दुधिलपात30एक पेड़ जिसके पत्ते गाय-भैसों को खिलाने से उनका स्वास्थ्य और दूध बढ़ता है , बांजपात31ओक के पत्ते और सालम32जंगली घास
काटती लाती है अपने हिस्से का मांगा33घास उगने की जगह
बतकों34बातें/गप्पें में निश्चिंत कहती है—
बुर जन मानि हाँ35कृपया बुरा मत मानना
न्योली गाती हुई पहाड़ की छाती पर
उड़ेलती है
गोबर के दर्जनों भर डोके36पीठ पर लादे जाने वाली शंकुनुमा डलिया
और फोड़ती डालती है अंसख्य
मिट्टी के डाले37बड़े-बड़े टुकड़े
आने वाली
नई पीढ़ी के लिए
पहाड़ और काफल
मेरी तरह तुम्हारी भी
यादें
पहाड़ से
जुड़ी होंगी
और जब कभी भी
प्रेम में
पहाड़ को
याद करोगी तो
काफल के बिना यह
अधूरा होगा।
फफूँद
बादलों की घड़म-चड़म
और आशाओं की नरम-गरम
पगडंडियों पर बड़ी मार्फ़त होती है
बक़ौल जकड़े रह जाती हैं
ठहरी हुई
बेचोट संवाद की जड़ें
वो नहीं पनपने देती दूब
सियू्ण38बिच्छू घास… पहाड़ के जीवन से जुड़ा एक पौधा और बाभिल घास39रस्सियाँ, झाड़ू बनाने में प्रयुक्त होने वाली घास
ठीक हवा के विपरीत सभ्यताओं को जलाता हुआ
फ़िरंगी पिरुल40चीड़ की पत्तियाँ
जो कल तक रोज़गार था,
निखट पढ़ी-लिखी पहाड़ की जवानी के लिए
उसे ख़ूब लपटाया गया
जंगलों के बीच
दौड़ाया गया
नीतियों के नाम पर लोक
सिर मुड़वाया गया
जो अभी अनाथ भी नहीं हुआ है
ठीक गोधूलि के समय
एक बार फिर मारा गया
किसी आदर्श ग्राम में
भैंस का कट्या41लोक-जीवन की कथावस्तु पर विद्यासागर नौटियाल की प्रसिद्ध कहानी
अशिक्षित और मानसिक कुरूपता के
पाठ्यक्रम से लैस
दिमाग़ बंद कमोबेश
और इतवार के दिन का खिलखिलाता घाम
चित्त लगी कुर्सियों के पैरों से
उड़ाने लगी है सैंध
अभी सावन आने में बहुत समय है यार
फिर भी इस ग्रीष्म में ही
जमने लगी है
आदमी के नितंबों में फफूँद
नैनीताल पर
यहाँ कभी नहीं आई गर्मियाँ
न ही पिघला पाया सूरज
शहर की सर्द हवाओं को
मई का यह महीना
चिनार के पत्तों
पर होकर सवार
ख़ूब उड़ता है
सैलानियों के दिलों में
हिमांशु विश्वकर्मा की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। इससे पूर्व उनकी कविताएँ ‘अनुनाद’ और हिंदू कॉलेज [दिल्ली] की हस्तलिखित पत्रिका ‘हस्ताक्षर’ में प्रकाशित हो चुकी हैं। वह हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषा विभाग, कुमाऊँ विश्वविद्यालय [नैनीताल] में शोधार्थी हैं। उनसे iamhimanshuvishwakarma@gmail.com पर संवाद संभव है।