कविताएँ ::
पायल भारद्वाज
ऊधौ मन न भए दस बीस
एक मन में माँ रहती और एक में बच्चे
न मैं अधूरी माँ बनती न अधूरी बेटी
एक समूचा मन दोस्ती पर ख़र्च होता
और एक प्रेम पर
एक मन पहले प्रेमी के साथ चला जाता
एक आख़िरी के
एक मन किसी निष्ठुर प्रेमी को रोज़ कोसता
और एक उसी निष्ठुर को दिन-रात दुआएँ देता
प्रेम को उपयुक्तता अनुपयुक्तता की तमाम कसौटियों पर
तौलने वाले मन और होते
एक सीधा-सादा मन होता जो आकंठ डूबा रहता प्रेम में
एक मन बनारस गंगा घाट पर धूनी रमाता
एक कुटिया बनाए रहता उत्तर-पूर्व के जंगलों में
एक मन गाँव में भूसे की नई बोगी में कुलाँचे मारता
एक रचा बसा रहता ज़िम्मेदारी के चूल्हे पर पोता फेरने में
एक मन दूसरों के साथ न्याय करता
और एक अपने साथ
एक मन अपने लिए मरता
और एक अपनों के लिए
ऊधौ मन न भए दस बीस
होते तो अच्छा होता!
किस मिट्टी की बनी हो तुम
कृतघ्न हो तुम!
अपमानित सुख लताड़ता है
वह मेरे चारों ओर प्याज़ के छिलकों-सा बिखरा है
और मुझे उसकी गंध नहीं सुहाती
आँखें मूँदकर वर्षों के अँधेरे में टटोलती हूँ
कोई शूल जो धँसा रह गया
चीख़ जो दबकर रह गई भीतर
किसकी गूँज है जो अब तक चली आती है
क्यों नहीं टिकता सुख को कोई रंग-रोगन
किस दु:ख के आँसुओं की नमी से
अब तक सीली हैं मन की दीवारें
अँधेरे में सिर्फ़ अँधेरा हाथ लगता है
तस्वीर लेते हुए कैमरे से निकलकर धिक्कारती है
उस महान फ़्रांसीसी आविष्कारक जोसेफ़ नीप्से की क्षुब्ध आत्मा
कि नहीं दर्ज़ करने तुम्हारे खोखले अट्टहास
उकताकर लोग अक्सर पूछते हैं—
किस मिट्टी की बनी हो तुम!
मैं माँ से पूछती हूँ
मेरी निर्मिति में तुम्हारे रक्त के अलावा उदासी भी शामिल है
मुझे अपने गर्भ में धारण करते समय तुम उदास थीं?
माँ टालते हुए कहती है—
‘उदासी तो स्त्री की संगिनी है…’
मैं उस संगिनी का हाथ पकड़ लेती हूँ
एक दोस्त जो ज्योतिष पढ़़ रहा है
मेरी कुंडली बाँचते हुए पूछता है—
‘काला रंग तुम्हारा पसंदीदा है न?’
उसे कहाँ मालूम जिस संगिनी का हाथ मैंने पकड़ा था
काला उसका पसंदीदा रंग है।
दीमक
जिस पर टिकी घड़ी की सुइयाँ
उसके चारों ओर सरपट दौड़ते हुए
कई पूर्ण कोण बनाती हैं
लेकिन जिसके हिस्से समय का
एक न्यूनतम कोण भी नहीं
रसोईघर के सामने लगी दीवार घड़ी के
ठीक बीचोंबीच स्थित
वह कील हूँ मैं
मैं भागते हुए समय का पिछड़ा
और छूटा हुआ वह सिरा हूँ
जिसे विगत जीभ चिढ़ाता है
और आगत डराता है
जिसे न तो आगे बढ़ने की चाहत है
और न ही पीछे लौटने की सहूलत
ज़िंदगी के साइड इफ़ेक्ट्स
सुरसा की तरह मुँह फैलाए जाते हैं
और मुझे हनुमान की तरह
स्वयं को संक्षिप्त कर बच निकलने की कला भी नहीं आती
उसने कहा था—मुझे भूल जाओ
यह बात रोज़ याद आती है
क्या भूलना है यह याद रहता है
क्या याद रखना है याद नहीं
दिमाग़ की मकड़ी अपने ही जाल में फँसी कुलबुलाती है
‘आख़िरी बार क्या अच्छा लगा था…?’
मैं कहती हूँ—
‘…याद नहीं, शायद समंदर
बिल्कुल अपने जैसा…
खारा और नीरस, जीवन से उकताया हुआ…’
वे कहते हैं—
‘समंदर उल्लास है और जीवन वरदान…’
सुनकर मन की मटकी से ऊब छलक जाती है
सुनो! रात के सन्नाटे में मेरे सीने से आती आवाज़ सुनना
दीमक के कुतरने की आवाज़
ऊब दीमक है और मेरा जिस्म लकड़ी का ढाँचा
तुम देख सकते हो इस ढाँचे को मिट्टी होते हुए?
मेरी मिट्टी को समंदर के हवाले करना
मुझे यक़ीन है इस बार वह मुझे नहीं ठुकराएगा।
महामारी में अक्टूबर
सुन्दर हमेशा सुन्दर नहीं होता
सुन्दर के आधे ‘न’ में
जानबूझकर दबा दिया जाता है
कुछ न कुछ असुन्दर
पीड़ाओं की अनुगूँजें हैं
सुन्दर के उच्चारण में
उस ‘र’ की पीड़ा जिसे छोड़ दिया गया
सुन्दर के अंत में लाकर
पारिजात से धरती के यौवन को सजाता मनभावन अक्टूबर
हमेशा मनभावन नहीं होता
रुख़ बदलती हवाओं से बेवक़्त झरे जाते हैं
जीवन के हरसिंगार
टीस बेचैनी उनींदेपन और फूटती नसों की पीड़ा से कुम्हलाए जाते हैं
सुन्दरता के सुन्दरतम प्रतिमान
दिपदिपाती ढिबरियों से रोशनियाँ नहीं शोले फूटते हैं
तालू से चिपकी जीभ पुकारने में अक्षम है प्रिय का नाम
किसी दूसरे लोक में भटकती आत्मा
छटपटाती हुई देह में लौटती है कि बाक़ी हैं कई काम
वरना सुन्दर तो नव वसन धारण किए निष्प्राण देह भी
कुछ कम नहीं लगती!
मुखर स्त्रियाँ
मुखर स्त्रियाँ डायन होती हैं
लंबे नाख़ून और नुकीले दाँतों वाली
लील जाती हैं घर की तथाकथित शांति
क्लेश उनका पसंदीदा शग़्ल है
मोस्ट वांटेड क्रिमिनल्स हैं वे स्त्रियाँ
जो जानती हैं
अपनी ज़रूरतें, अपने अधिकार, अपनी पसंद-नापसंद
वे कहते हैं स्त्री देवी-स्वरूप है
देवियों के मुँह में ज़बान नहीं होती
उनके होंठ हिलते और खुलते हैं
शालीनता से मुस्कुराने के लिए
सुमधुर, कर्णप्रिय, आयुवर्धक भजनों और वचनों के लिए
देवियाँ मार दी जाती हैं
मर जाती हैं
फाँसी लगाकर, ज़हर खाकर, पानी में डूबकर, धरती में समाकर
निश्चय ही वे स्वर्ग को प्राप्त होती हैं
लाल जोड़े में सजी
सौभाग्यपूर्वक भस्म होती हैं
पति अथवा पुत्र द्वारा दी गई मुखाग्नि में
डायनें मरती नहीं
मारती हैं
निगल जाती हैं लोथ के लोथ
वे शापित हैं
आजीवन अपनी मुखरता का त्रास झेलने के लिए।
बेचैनी
बेचैनियों की अभिव्यक्ति के लिए
कोई अभिधा व्यंजना नहीं मिलती
रिक्त हो जाते हैं शब्दकोश
भाव हृदय में आते तो हैं
पर मुखरित नहीं होते
लौट आते हैं मस्तिष्क के तंतुओं से टकराकर
उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं नाभि के इर्द-गिर्द
बराबरी पर छूटती है
दोनों पैरों के बीच एड़ियाँ रगड़ने की प्रतियोगिता
घुटने पेट की तरफ़ ही मुड़ते हैं
इसलिए नहीं कि दादी कहती थीं
बल्कि इसलिए कि याद आती है माँ
रीत चुकी आँखें निचोड़ देती हैं
कशमशाकर दो चार आँसू
रेगिस्तान में एक नागफनी फूटता है
कोई अजनबी ताना-बाना है सिर के भीतर
एक दूसरे में फँसी हुई कुछ बंद नलकियाँ
कोई धागे का गुच्छा है उलझा हुआ
जितना सुलझाओ और उलझता है
छूटता जाता है
जाने क्या है जो छूट रहा है
हाथ नहीं आता
हाथ आती है बस बेचैनी
जिसे भाषा में पकड़ना
शब्दों और अर्थों में बाँधकर रखना यूँ भी संभव नहीं।
नया देश है रज़िया बी
यह देश गांधी का देश नहीं रहा
यह देश अब गांधी के हत्यारों का है
प्रीत यहाँ की रीत अब नहीं रही
यह नया देश नफ़रतों का देश है
जिसने खसोट लिया है नेहरू के कोट से गुलाब
ओ रज़िया बी
अब यहाँ बुर्क़ा नहीं चलेगा
न चलेगा सलाम दुआ
अल्लाह के नाम वालों के दिन गए रज़िया देवी
यहाँ बस राम चलेगा
चलेगा छद्म बजरंगियों का खों-खों करता झुंड
जो नोच डालेगा तुम्हारे तन से कपड़े का एक-एक कतरा
‘‘तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था’’
विलुप्ति के कगार पर हैं ये कहने वाले ‘मजाज़’
यहाँ बस धार्मिक प्रतिद्वंद्वी भेड़िए हैं
भेड़िए जो थोप देना चाहते हैं तुम्हारे सिर पर हिजाब
जो घोंट देना चाहते हैं बुर्क़े में तुम्हारी साँस
भेड़िए जो ज़बरन नोंच देना चाहते हैं तुम्हारे तन से वही बुर्क़ा
विपक्ष के किसी झंडे की तरह
फबता मुझे भी नहीं तुम पर कोई पर्दा मेरी दोस्त
पर यक़ीन है मुझे तुम ख़ुद उतार फेंकोगी इसे
तोड़कर तमाम बेड़ियाँ
खड़ी हो जाओगी जब अपने पैरों पर
जान जाओगी जब सारी हक़ीक़त
तब तक हिम्मत रखना
डटी रहना, अड़ी रहना
बढ़ती रहना सच की ओर
रोशनी की ओर
किसी भेड़िए को छलनी न करने देना
अपना स्वाभिमान, आत्मसम्मान
धर्म के नशे में डूबा यह नया देश है
जहाँ राजनीति का टूल धर्म है
और धर्म का टूल स्त्री
ख़ुद को टूल बनने से बचाना रज़िया बी
याद रखना
थोपी गई बंदिशें ही ग़ुलामी नहीं
थोपी गई आज़ादी भी ग़ुलामी है।
पायल भारद्वाज की कविताओं के प्रकाशन का ‘सदानीरा’ पर यह दूसरा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : मुझे मिले छितरे हुए प, र, ए और म