कविताएँ ::
प्रमोद पाठक
ख़्वाब
मेरे पास एक ख़्वाब है
जिसमें रोशनी है, चिड़िया है, धान है
धान की बाली लेकर उड़ी चिड़िया भूख के मुँह में घोंसला बनाती है
भूख को स्वाद का सुख मिलता है
धान की ख़ुशबू अंदर उतरती है
मेरी पसलियों में चमक भर देती है
प्यार करने वाले मुझसे यह रोशनी ले जाते हैं
और अपनी ज़ुबान, आँखों और देह को दहकाते हैं
अब मेरे पसीने में प्यार की चमक और धान की ख़ुशबू भरी है
इन्हें सौंप दूँगा तुम्हें ओ धरती
अगली बार जब तुम मुझसे मिलोगी।
तुम यहाँ रहो सम्राज्ञी
आओ
इस रात को एक सफ़र की तरह तय करके आओ तुम
और सीधी मेरे सपनों के पानी में उतर जाओ
एक मछली
आँखों में झिलमिलाती अपनी कोमलता से भरी
यह कैसा कमाल है तुम्हारे होने का
कि भाषा ख़ुद तुम्हारी गंध बनकर चली आती है मुझ तक
मैं इसका क़ातिल नहीं हो सकता
या अल्लाह मुझे माफ़ करना
सपनों के बाहर मृत्यु निश्चित है
तुम यहाँ रहो यहाँ सम्राज्ञी
यह मेरी नींद का महासागर है।
एक कहानी आसमान की
आसमान एक बच्चा है
और चाँद उसके मुँह में घुलता हुआ बताशा
वह घुलता जाता है मुँह में हर रोज़
और टपकती जाती है लार
फैलती जाती है चाँदनी
घुलते-घुलते एक दिन बीत जाता है बताशा
आसमान फिर मचलता है
रोता हुआ पाँव पटकता है
उसकी माँ रात
फिर कहीं ढूँढ़ती है बताशा—
इधर-उधर कोनों-कुचारों में,
जंगल के गुच्छों में, नदी के नीचे, पहाड़ों के पीछे,
समंदर के डिब्बे में आख़िर उसे मिल ही जाता है
तारों भरी थैली में पड़ा एक और बताशा चाँद
जिसे पिछली बार रख दिया था सँभालकर इसीलिए
कि पता था फिर मचलेगा आसमान बताशे के लिए
उसकी एक-एक हरकत से वाक़िफ़ है
लाकर रख देती है मुँह में बताशा
इस तरह कुछ रोज़ फिर चुप और शांत रहता है आसमान।
मगर सपने अड़े हैं
कहे मुताबिक़
मैं सब चीज़ों को बाहर छोड़ आया हूँ
अपनी याद को पत्तों के बीच रख आया हूँ
तुम उनके नीचे से गुज़रोगी छूते हुए
तो ओस की बूँदें तुम्हारी हथेलियों को नम कर देंगी
बस!
अपनी चाहत को सौंप आया हूँ सितारों को
किसी अँधेरी रात में एक बार उठा दोगी अपनी नज़र आसमान की तरफ़
तो चमकीली लकीर बनाती एक उल्का बढ़ेगी तुम्हारे पाँवों की ओर
उन्हें चूमने की अधूरी इच्छा लिए
बेचैनी मैं अपनी धरती को सौंप आया
और छोड़ दिया उसे घूमने के लिए चौबीसों घंटे
ताकि वह ख़याल रख सके इस बात का
कि दिन के समय दिन हो और रात के समय रात
मैंने सपनों से कह दिया
कि ढूँढ़ लें अब कोई और नींद की नदी
वहीं जाकर तैराएँ अपनी काग़ज़ की नाव
इस दरिया में अब पानी कम हुआ जाता है
सबने मेरी बात मान ली
मगर सपने अड़े हैं
कहते हैं कि हम यहाँ के आदिवासी
इसी किनारे रहेंगे
चाहे जो हो!
प्रमोद पाठक की कविताएँ ‘समालोचन’ ने प्रमुखता से प्रकाशित की हैं। वह बच्चों-बड़ों दोनों के लिए समान रूप से लिखते हैं और शिक्षा की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘शिक्षा विमर्श’ के संपादक हैं। जयपुर में रहते हैं। उनसे pathak.pramod@gmail.com पर बात की जा सकती है।
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