महाप्रकाश की कविताएँ ::
मैथिली से अनुवाद : शैलेंद्र शैली

maithili poet mahaprakash
महाप्रकाश

जूता मेरे सिर पर सवार है

जूता मेरे सिर पर सवार है
मैं नंगे पाँव रगड़कर
ख़ून की नदी को पाँव में बाँधे
काँटों के अंतहीन जंगल से लड़ता
मरुभूमि में लेटा हूँ
आँखों में पानी की सतह पर टूटती
अर्जित स्वप्न-संगीत की मेरी विद्रोहिणी राग-रागिनी
उलाहना-उपराग आलापती है
मेरी आस्था के सार्थक शब्द मेरे संस्कार की आधारशिला
किस आश्रम किस ज्योतिपिंड को मैंने पुकारा था
यात्रा से पहले जहाँ टिकाए थे अपने पैर
अपने संकल्पित पैर
जहाँ फेफड़ों में भरी थी सर्वमांगल्ये मंत्रपूरित हवा
किस गली किस चौराहे पर अनाम हुए…

मेरे साथ के लोग संबंध सर्वनाम अपने विशेषण अपनी सुरक्षा के अन्वेषण में फँस गए
जूते के आदिम गह्वर में बना लिए अपने-अपने घर-दरवाज़े

हे मेरी हिस्से की ज्योति-सखे देखो
कहाँ-कहाँ से झड़ गए हैं
मेरी आस्था के चित्रलोक
कहाँ-कहाँ से झड़ गए हैं रंग

मेरा दर्द बताएँ
कहाँ-कहाँ से टूट गया है मेरा
शक्तिक्रम
मेरा हाथ पकड़ो
जूता मेरे सिर पर सवार है।

सिंह-तंत्र

लोककथा का एक सिंह
जम्बूद्वीप की गद्दी पर बैठ गया
पुश्तैनी अधिकार से बन बैठा भाग्य-विधाता
उन सैकड़ों-हज़ारों ख़रगोश-शिशुओं का
जिसे कान पकड़कर
उठा लेते थे लोग
समय-असमय
हरी-भरी ज़मीन से अपने हित के लिए

किंतु रूपक स्वरूप वह सिंहराज
द्युति के ग्रह पर सवार होकर निकलता था
रौंदता कभी पानी को
कभी लहलहाते खेतों कभी
आकाश तो कभी दिशाओं को

मात्र बाँटने के लिए
शब्द एक जो परिभाषाहीन
याचित जुलूस
कभी सूखे
श्रीहीन फूलों के टूटे हार

अवाक् नहीं होते थे वे
बहुत-बहुत सवाक् उनके संग जुटे थे
ख़रगोशों के शावकों को
जंगल के पुरखों से
बहुत कुछ अज्ञात… ज्ञात था

इसलिए वे अंधे कुएँ नहीं
नदी नहीं सागर नहीं
उदास एक शांत
नदी के किनारे जा बैठा
दिन था साफ़
जैसे प्रार्थना के बाद
चिर-प्रतीक्षित भोर

किंतु एक दुर्घटना हो गई
दिख गया उस नि:काय नदी में
पातालोन्मुख नीलाकाश
दिख गया आरक्त होंठ के नीचे
दाढ़ी में छिपा
वह चर्चित तिनका दिख गया
चेहरे पर चतुर्दिक पसरता
कालिख की मोटी होती रेखा

भयंकर गर्जन-तर्जन किया उस सिंहराज ने
विस्फोट से काँप उठा वनप्रांतर
फट गई एक हज़ार नौ सौ अठ्ठासी माताओं की छाती आसन्न साकार संकट से
किंतु वह ख़रगोश का बच्चा
आवाज़ की उत्तेजना से
जा गिरा गंगा की गोद से बहता
प्रशांत से समुद्र में
डूबते मस्तूल की तरह चिल्लाता…
नहीं… नहीं वह अबाध घूमता हुआ
आकाश को मथता नक्षत्र की तरह
आहत राजहंस का आर्त्त चीत्कार
…कहाँ हो आदिकवि
…कहाँ है सिद्धार्थ की पवित्र गोद?

लेकिन श्रेष्ठिजन विद्वतमंडली
कुंडली के सर्प की तरह
अँधेरे गह्वर में
क्यों होने लगे हैं
प्रश्नाकुल गह्वरित
इस अरण्य में साफ़ है दिन
कि हाथों की रेखा दिख जाती है
…क्यों होता है समय शांत
कि खुल जाती है अंतर्यात्रा?

पराश्रयी

घर से बाहर नहीं निकलता हूँ
अचानक अपने अस्तित्व से शिकायत हो जाती है
और डर लगता है

लोग पूछ ही देते हैं, क्या करते हो?
आत्मीयता के लिफ़ाफ़े से निकला यह प्रश्न
हरी घास नहीं; असंख्य काँटों का जंगल होता है
लहूलुहान अँधेरे क्षितिज पर
अपने नंगे रूप को छूते हुए डर लगता है

एक ख़ास खूँटी है और वह मैं हूँ
लोग बारी-बारी से अपना ग़ुस्सा
मैले कपड़ों-सा टाँगकर
मुक्त हो जाते हैं

कार्यालय की फ़ाइलों में डूबे पिता कहते हैं
नहीं, अब ताक़त नहीं कि बँधा रहूँ
धैर्य नहीं कि जुता रहूँ अनवरत
और तुम ब्लेड तक के लिए पैसे माँगते हो
कब तक मैं तुम्हारा सहारा बना रहूँ
आँख की नसों से लेकर कमर तक झुक गई है
सहारे की तुम्हें नहीं, मुझे ज़रूरत है
माँ की आँखों में अटकी कोई झील
कितनी ही बार बदल लेती है करवट
माँ और पिता मेरे दो ध्रुव हैं
अचानक किसी दिन टूट जाएँगे

मैं देखता हूँ, फिर
कितने ही टुकड़ों में बँटकर
कितनी ही अनजान दिशाओं में बह जाता है
अँधेरे का चीत्कार
अँधेरे में ही दम तोड़ देता है
यह मेरा संस्कार है कि मैं
सिर के ऊपर झूलते जूतों को
न तो अपनी जीभ को लपलपा कर
चाट पाता हूँ और न ही
जूते छीनकर तेज़ी से
किसी निश्चित दिशा में भाग ही सकता हूँ।

अग्रजों का स्वागत

आइए, हे अग्रजो, आइए!
आपका स्वागत है, आइए
लेकिन आप अपने उपदेशों का पिटारा बंद रखिए
मुझे नहीं चाहिए आपके पैर या मुट्ठी
मैं अपने ही पैरों से नापूँगा देश-कोस
मेरी अपनी ही मुट्ठी में है कालखंड का मानचित्र
मैं अपने हाथों टटोलता हूँ, टटोलता रहूँगा प्राणशिरा
आइए, हे अग्रजो, आइए!

आपके सिर की छतरी अपनी नहीं है
आप समा नहीं सकेंगे उसमें
उसकी कमानी टूटी और कपड़े फटे हैं
ज़ोर से पकड़े हैं धूप में, बारिश में वह नहीं बचेगा
आँधी में उड़ जाएगा
वह बहुत छोटा है
आइए, हे अग्रजो, आइए!

किसी अहिंसात्मक शब्द को
गले हुए शब्द की लाश को
लगातार कोरामिन की सुई देने से
लगातार ऑक्सीजन सुँघाने से
नहीं उड़ सकेगा वह कबूतरों की तरह
नीले उन्मुक्त आकाश में
वह फटे गुब्बारे-सा धर्म से बैठ जाएगा
आइए, हे अग्रजो, आइए!

आँधी में छिपाइए नहीं
वह सड़ गया है, दुर्गंध आ रही है
लोहे की टोपी उतार लीजिए
भारी हो गया होगा सिर
मत जाइए दीवार के उस पार
शरीर लोहे की तरह ठंडा हो जाएगा

लोहा कटता है छेनी से
हथौड़े से पड़ती है चोट
अभी मेरे हाथ में काग़ज़ है
अभी मेरे हाथ में क़लम है
आइए, हे अग्रजो, आइए!
—आपका स्वागत है!

परकीया के प्रति

खिलते होंगे अब भी बंशीवट के फूल
बहता होगा अब भी नदी का पानी
—अविराम
कुचरता होगा अब भी छप्पर पर
—कौआ
फिसलती होगी अब भी हाथों से
—कंघी
किंतु अब नहीं होगी किसी को शपथ,
स्वप्न अथवा जागरण में मेरी
—प्रतीक्षा
आईने में निहारती अपने गीत-गंध-पर्वत
कहाँ किसी को करता होगा पुलकित
मेरा ही नाम।

महाप्रकाश (मूलनाम : जयप्रकाश वर्मा) का जन्म 1948 बनगाँव, सहरसा (बिहार) में हुआ। उनके मैथिली में दो कविता-संग्रह ‘कविता संभवा’ और ‘संग समय के’ शीर्षक से प्रकाशित हैं। वह कथा-लेखन और अनुवाद के इलाक़े में भी सक्रिय रहे। उनका निधन 18 जनवरी 2013 को नई दिल्ली में हुआ। शैलेंद्र शैली हिंदी-मैथिली कवि-कथाकार और अनुवादक हैं। वह अध्यापक हैं और सहरसा में रहते हैं। उनसे betamama01@gmail.com पर बात की जा सकती है।

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *