कविताएँ ::
प्रियंका दुबे

प्रियंका दुबे

स्त्री के पैरों पर

होंठों के जूते

होंठ चूमने वाले
प्रेमियों से भरे इस संसार में,
तुमने हमेशा
पिछले दिन की थकन में डूबे
मेरे सोते पैरों को चूम कर
सुबह जगाया है मुझे।

‘फ़ुट फ़ेटिश है तुम्हें’,
कहकर अपने पैर कंबल में समेटते हुए
झिड़क-सा दिया था मैंने तुम्हें
एक दुपहर।

जवाब में तुमने,
कुछ कहा नहीं।

सिर्फ़ इतना प्रेम किया मेरे पैरों को,
कि मुझे लगने लगा जैसे
मैं जूतों की जगह
तुम्हारे होंठों को पहने घूमती रही हूँ।

आतुर पैर

तुम्हारी दुलारती गोद में आते ही,
किसी रिपोर्टर के धूल सने बीहड़ पैरों से
एक प्रेमिका के आतुर पैरों में
तब्दील हो जाते हैं
मेरे पाँव।

दाहिने पैर के अँगूठे को
यूँ ही सहलाते बैठे तुम
जब भी डूब कर टॉमस मान को पढ़ते हो,
तो इतना प्यार आता है मुझे तुम पर!

बिस्तर पर यूँ पड़े-पड़े ही
कंधे पर रख देती हूँ एक पैर
उसी पैर के अँगूठे से फिर,
तुम्हारे कान को गुदगुदाती हूँ।

मुझ में कामना की आग
चेहरे से नहीं,
अपने पैरों पर
तुम्हारे
अलसाए स्पर्श से चढ़ती है।

जुराबें

खिड़की से झाँकते देवदारों पर झरती
बारिश की अनवरत बूँदों को
सारी रात सुनती रही हूँ।

पहाड़ों के पीछे,
उफ़क़ तक जाती है मेरी तृष्णा

क्या कोई अंत है इस प्यास का
जो हर बारिश के साथ बढ़ती ही जाती है?

कंबल में भी,
बर्फ़ से ठंडे पड़े मेरे पैर
हर बूँद की आवाज़ पर
तुम्हारे होने की चाहना से
और भर जाते हैं।

देखो न,
कितना चले हैं तुम्हारी याद में!

कितनी भी जुराबें पहन लूँ,
यूँ ही पत्थर से ठंडे पड़े रहते हैं।

तुम्हारी हथेलियों के खोल के सिवा
जैसे कोई अलाव ही नहीं
जो इन्हें नर्म कर
फिर से ज़मीन पर खड़ा कर पाए।

टोनी गटलिफ़ के लिए

गर्मियों की इन दुपहरों में
घंटों तुम्हारे पैर अपनी गोद में रखे,
पड़ा रहता हूँ,
यूँ ही कमरे में।

और तुम?
तुम अपनी किताब के पन्नों में मशग़ूल
मेरी छाती पर सुलाकर अपने पैर
भूल ही जाती हो जैसे!

जब धीरे से चूमता हूँ
तुम्हारे दाहिने पैर के अँगूठे को
तब जाकर याद आता तुम्हें!

‘अरे, मिट्टी लगी है पैरों में!’

हँसते-हँसते कहती हो जब,
तो तुम्हारे साथ-साथ
तुम्हारे मीठे शब्द भी सारे
फ़र्श पर बिखरने लगते हैं।

‘तुम्हारे पैरों में मेरा दिल है। है ना?’
पूछते हुए,
मैं खींच लाता तुम्हें अपने पास।

‘नहीं, टोनी गटलिफ़ का दिल है’

फिर उन शीरीं पैरों को
सीने से लगाकर
चूमते हुए
यही सोचता हूँ
कि मेरा यह फ़्रांसीसी रक़ीब
आख़िर किस आसमान का सितारा है?

तुम हँसते-हँसते थक जाती जब
तो मेरे बालों को सहलाते हुए कहतीं,
‘स्त्री के मिट्टी सने गंदे पैरों को सबसे सुंदर प्रेम
टोनी गटलिफ़ की फ़िल्मों में ही किया गया है
इसलिए, मेरे पैरों में सिर्फ़ उसी का दिल है’

टोनी गटलिफ़ की फ़िल्म ‘गाडजो डिलो’ की स्मृति में

पैरों जितना प्रेम

‘मैं वहीं हूँ, तुम्हारे पैरों के पास’
यही तो होता है
याद में धँसते
मेरे हर संदेश का जवाब।

न होंठों के पास,
न सीने पर।

वह हमेशा यूँ ही बैठा रहा है—
मेरे पैरों के पास।

चुंबन का महावर

उसे माँ का आख़िरी चेहरा तो नहीं,
बस चिता पर रखे उनके पैर याद थे।

महावर में रँगे
उनके मृत पैरों की वह अंतिम स्मृति,
अक्सर ख़ाली दुपहरों में
उसके भीतर बजने लगती।

तब नींद में डूबे मेरे पैरों को
अपनी बाँहों में खींच कर,
वह अपनी भीगी पलकें
उन पर रख देता।

मद्धम सिसकियों में डूबी
उसकी बुदबुदाती आवाज़ से
फिर नींद टूटती मेरी।

‘तुम महावर मत लगाना कभी।
मैं चूम-चूम कर
यूँ ही
लाल रखा करूँगा तुम्हारे पैर।’

बोसों का मलहम

मई की गर्मियों में
जैसलमेर के रेगिस्तान में उलझी पड़ी हूँ।

चुनावी रिपोर्टिंग का बीसवाँ दिन।

पचास डिग्री पर खौलती रेत पर
जब-जब जूते-बंद पैर उतारती हूँ
तो जुराबों से भाप उठती है।

जलते कोयले-सी रेत।

चलते-चलते सोचती हूँ,
जब ऊपर इतनी जल रही है,
तो भीतर से कितना जलती होगी धरती?

या यह कि
अग्नि-परीक्षा के दौरान क्या सीता को
यूँ ही आग पर चलना पड़ा होगा?

और, मेरी कौन-सी परीक्षा हो रही है यहाँ?
कमबख़्त, इस बीहड़ तक तो नेता भी वोट माँगने नहीं आ रहे।

सारी परीक्षा सिर्फ़ रिपोर्टर की?

इस जलते आसमान के नीचे भी,
तुम्हारी याद के बादल मुझे घेरे हुए हैं।

जब लौटूँगी,
तब न जाने कितने दिन
अपने सीने पर रख कर ही सोया करोगे
यह ज़ख़्मी पैर।

इक तुम्हारे बोसों से ही तो
सूखते रहे हैं
मेरे पैर के छाले।

लड़की के पैर

कटी-फूटी एड़ियों वाले
अपने रूखे पैरों की ओर
हमेशा उसी करुणा से देखती आई हूँ
जिस करुणा से शायद
प्रेम के क्षणों में
पृथ्वी सूरज को देखती होगी।

जब से जन्मी,
तब से अब तक
हमने साथ ही नापा पूरा देश

पहाड़, जंगल, बीहड़ हो,
नदी या जलता कोयला।
भटकते रहे हैं हम यूँ ही
कभी देश में प्रेम
तो कभी प्रेम में देश तलाशते हुए।

पैरों में पहनने के लिए बने जूते
जब भी संसार ने फेंके मुझ पर
तब बिना जूते वाले
मेरे इन पैरों ने ही
तेज़ दौड़ लगाकर
हमेशा बचाया मुझे।

किसी भी लड़की के
सबसे पुराने प्रेमी
उसके पैर ही तो हैं।

पैर,
जो उसे सिर्फ़ ज़मीन पर नहीं,
अपने होने के लिए
ख़ुद खड़ा होना सिखाते हैं।


प्रियंका दुबे की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। उनके पास कई वर्षों से पर्याप्त कविताएँ हैं और उन्हें प्रकाशित न करवाने से संबद्ध पर्याप्त संकोच भी। हिंदी-दृश्य में उनकी और कविताएँ सामने आएँ, यह प्रकाशन इस उम्मीद में संभव हो रहा है। प्रियंका सुपरिचित और सम्मानित पत्रकार हैं। उन्होंने अपनी ज़मीनी रिपोर्टिंग से समकालीन पत्रकारिता में उल्लेखनीय और स्मरणीय स्थान तय किए हैं। ‘नो नेशन फ़ॉर वुमन’ शीर्षक से उनकी एक पुस्तक अँग्रेज़ी में प्रकाशित हो चुकी है। वह इन दिनों बराबर यात्राओं में हैं और स्वतंत्र रचनात्मक लेखन कर रही हैं। उनसे priyankadubeywriting@gmail.com पर बात की जा सकती है।

7 Comments

  1. चन्दन श्रीवास्तव अगस्त 2, 2021 at 7:17 पूर्वाह्न

    गेह राग की कविता पढ़ी है, देह राग की तो खैर पढ़ी ही है, पैर राग की पहली बार पढ़ी। पढ़ वाने के लिए धन्यवाद। आगे हिंदी का कोई विद्वान इन कविताओ पर लिखते हुए गत्लिफ की फिल्म के बरोबर का बोध खड़ा करने के लिए किसी चार्ली चैपलिन को याद करेगा, ये बताएगा कि मशीन के किस दांत में फंस कर आदमी की देह पूरी की पूरी पैर हो गई। माने कुछ भी …

    Reply
  2. प्रमोद अगस्त 2, 2021 at 9:12 पूर्वाह्न

    बेहद सुन्‍दर कविताएँ सौन्‍दर्य और ऐन्द्रिकता का नया प्रतिमान गढ़ती़। शुक्रिया लिखने और पढ़वाने के लिए!

    Reply
  3. अंचित अगस्त 2, 2021 at 11:38 पूर्वाह्न

    बहुत सुंदर कविताएँ। पढ़वाने के लिए शुक्रिया

    Reply
  4. Avneesh kumar अगस्त 3, 2021 at 5:16 पूर्वाह्न

    बेहद सुंदर कविताएँ👌👌

    Reply
  5. दिनेश श्रीनेत अगस्त 3, 2021 at 12:08 अपराह्न

    इन कविताओं को बहुत पहले आ जाना चाहिए था। जमीनी स्तर पर काम करते हुए, जीवन की विरूपताओं को देखते-परखते अपने सौंदर्यबोध और संवेदना को बचाना भी एक चुनौती होता है। एक जर्नलिस्ट की ये कविताएं आश्वस्त करती हैं कि मुश्किल समय में भी संवेदनाओं को बचाकर रखा जा सकता है।

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  6. सोनाली मिश्रा सितम्बर 3, 2021 at 10:00 पूर्वाह्न

    यह कविताएँ बहुत सुन्दर हैं!

    Reply
  7. लीना मार्च 30, 2022 at 4:13 अपराह्न

    इन कविताओं में प्रेम इतना जीवंत है जैसे दृश्य चल रहें है। बहुत अच्छी कविताएं
    लीना मल्होत्रा

    Reply

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