कविताएँ ::
राही डूमरचीर
इस दुनिया में ही
सारी उम्मीदों को तुमसे जोड़कर
खोना नहीं चाहता तुम्हें
बनाना-बिगाड़ना जिन्हें आता है प्यार में
वे किसी दूसरी दुनिया के होते होंगे
शायद अभी तक उनकी दुनिया में
काम के घंटे बाँधने की लड़ाई नहीं लड़ी गई
वहाँ दास प्रथा को दूसरे नामों से जाना जाता हो
हो सकता है वहाँ आज भी
बेहतर समाज का सपना देखने वाले
छुप-छुपकर मिलते हों
इसलिए तुम्हें न पा सकने की नाउम्मीदी
तुम्हें पा सकने की उम्मीद से बड़ी है
क्योंकि हमारे इस अपनी दुनिया में
बहुत नहीं
पर
लड़ाई बड़ी है
दुमका
एक खड़िया दोस्त का ख़त
एक
इससे पहले
महज़ उपराजधानी था मेरे लिए
अब मेरी रातों में
जागता है दुमका
अपने छोटे-छोटे धड़कते
सपनों के साथ
दो
नदियाँ जो चारों तरफ़ से
दुमका को घेरे हुए हैं
नदियाँ जो वीरान हो गईं
लूट लिया गया
जिनके बालू और पानी को
दुमका की कहानी कहती हैं
तीन
दुमका नहीं आता
तब देख ही नहीं पाता
कि दुनिया में इतने संताल भी बसते हैं
झारखंड के एक बड़े नेता के
आलीशान आवास के ठीक बाहर
अब भी एक वृद्ध संताल दंपति बेचता है हड़िया
चार
दुमका नहीं आता
तब पता ही नहीं चलता
कि बोलने में थोड़ा सुर मिलाने से
गीत बनता है
चलते हुए थोड़ा हिलने से
नृत्य बनता है
पाँच
दुमका नहीं आता
तब पता नहीं चलता
कि भूखे-प्यासे दुमका के हाथ
भात खिलाते हैं बंगाल को
बांग्ला कविताओं में हरियाली की वजह
कुछ यह भी है
छह
दुमका का पानी
दुमका के बाँध में रुकता है
पर जाता है बंगाल
बंगाल के खेत सींचता
रोता रहता है
दुमका
सात
बांग्ला साहित्य में
बारंबार आए दुमका के बंगाली,
दुमका में कम
‘सोनार बांग्ला’ में ज़्यादा जीते हैं
दुमका आज भी उनके लिए कॉलोनी सरीखा है
और वे यहाँ के बाबू साहब
आठ
दिकू होता जा रहा
बहुत भ्रमित है दुमका
मारवाड़ियों, बंगालियों, बनियों के बीच
अपनी पहचान को पाने के लिए
तड़प रहा है
दुमका
नौ
बाहर की छोड़िए
उपराजधानी होते हुए
राँची में अल्पसंख्यक है
दुमका
दुमका कहने से राजधानी में आप
झारखंडी होने का बोध नहीं पा सकते
दस
बहरहाल, फ़ोन करता हूँ दुमका
पूछता हूँ—कुएँ में पानी का स्तर
क्या अब भी उतना ही है ऊपर?
जवाब पाकर होता हूँ आश्वस्त
कि अब भी बचा हुआ है
दुमका!
आख़िरी बार
एक
घर थमा हुआ-सा लगता है
वापस लौटने पर
बिखरी हुई चीज़ों के साथ
बटोरना पड़ता है ख़ुद को
तुम्हारी दी हुई एक घड़ी ही है
जो कभी नहीं रुकती
टिक-टिक करती
हमेशा आगे बढ़ती दिखती है
तुम आगे बढ़ गई हो
तुम तुम्हारी दी हुई घड़ी हो गई हो
दो
पिता प्रवासी थे धनबाद में
गाँव वापस लौट आए,
मेरे पैदा होने के बाद
फिर
नदियाँ धमनियाँ बन गईं
जंगल साँसों की हरियाली
और पहाड़ चिर सखा
फिर क्या जाता धनबाद
आज इसी शहर के
स्टेशन से
विदा ली तुमने आख़िरी बार
अब क्या ही जाऊँगा धनबाद
तीन
नहीं मिलना था,
पर मिल ही गए
फिर से राँची में
नहीं देखना था,
पर देखा
साथ-साथ प्रपात
नहीं जाना था,
पर गए
पत्थलगड़ी वाले
ख़ूबसूरत गाँवों में
साँसें इतनी हरी थीं
शाल की छाँव में
कि समझ ही नहीं पाया
रास्ते भटक रहे थे
जंगल-जंगल
या हम
राँची से
ट्रेन दुमका जा रही थी
शायद
इस बार मैं जा रहा था
आख़िरी बार
चार
साथ-साथ
देखा था बहते
तुम्हारे
कोयल-कारो को
फिर भी
तुम्हें बेहद पसंद थी
मेरे गाँव की बाँसलोई
किनारे बैठा
पसंदीदा चट्टान पे
बाँसलोई को देख रहा हूँ
मौज से बहते
कैसा नासमझ था
तुम्हें तो होना ही था नदी
और मैं चला था बाँधने
***
24 अप्रैल 1986 को जन्मे राही डूमरचीर की कविताएँ बहुत चुपचाप कई वर्षों से कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। इस प्रस्तुति से पूर्व आख़िरी बार उनकी कविताएँ साल 2009 के किसी महीने में ‘परिकथा’ में आई थीं। इसके बाद से वह कविताएँ लिखते ज़रूर रहे, लेकिन उन्होंने उन्हें कहीं भेजा नहीं। दुमका (झारखंड) में शुरुआती तालीम के बाद शांतिनिकेतन, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और हैदराबाद विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी करके वह इन दिनों झारखंड लौट आए हैं और अपना वक़्त ज़्यादातर गाँव में गुज़ारते हैं, यहाँ से वह उस कॉलेज में पढ़ाने जाते हैं, जहाँ वह कॉन्ट्रेक्ट टीचर हैं। उनसे rdumarchir@gmail.com पर बात की जा सकती है।
ये कविताएँ बहुत अच्छी हैं.
मोनिका कुमार
मेरे आस-पास घूमती कविता…………
वेलडन राजीव दा.
सुंदर कविताएँ