कविताएँ ::
रमाशंकर सिंह
मित्रों की बात
मित्रों के बहकावे में न आएँ
जब वे कहें कि आप सुंदर हैं
इसका अर्थ इतना भर है कि
आपका साथ उन्हें रखता है सहज-राग में
जब वे कहें कि आपकी बात आती है समझ
इसका अर्थ है
कि वे आपको सुनते हैं
जब वे कहें कि आप विद्वान हैं
तो यह मानकर चलिए
कि वे मानकर चल रहे हैं
आप अहमक़ नहीं हुए अभी तक
जब वे कहें कि आपको कविता की तमीज़ है
आपके पास है समझ भाषा की
तब वे कहना चाहते हैं
कविता मुद्रण के बाहर
जीवन में घट रही है
वे जीवन को देखने की सलाह देते हैं तब
मित्रों की बात
उनके कथन में नहीं
उनकी प्रतिध्वनियों में हैं।
गली का नियम
मेरी गली में सुबह
सबसे पहले आते हैं चार सुअर
साफ़ करते हैं उसे जैविक रूप से
एक छोर से दूसरे छोर तक
फिर आती है एक बुढ़िया
पैंतीस किलो की
झाड़ू लगाती है इतनी तन्मयता से
जैसे कोई गृहस्थ बुहारता है अपना द्वार
फिर आता है एक नौजवान
चमकती देह लिए
कूड़ा उठा ले जाता है
इन सबका घर
कानपुर शहर के दूसरे छोर पर है
वे वहीं चले जाते हैं बड़ी फुर्ती से
शाम को गली में जलते हैं दीये
पंडित जसराज को सुनता है एक बूढ़ा
एक महिला बालकनी में लौकी की तरह लटककर
गलचौरा करती है
कोई गाली देता है फ़ोन पर
ये दो दुनियाएँ कभी नहीं मिलतीं एक दूसरे से
सुबह-शाम।
सात जन्म
मिलें मुझे सात जन्म
हर जन्म में
दुनिया की सारी औरतों की
कविताओं का करूँ अनुवाद।
स्पीच थेरेपिस्ट के लिए
वे शब्द को देह देते हैं
मुकम्मल होता है
उनसे ही स्वर का बलाघात
अक्षर की सही जगह
दुनिया और भाषा के बीच
वक्ता और श्रोता के बीच
ईश्वर, पुजारी और पवित्र पुस्तकों के बीच
वे पुल बनाते हैं
वे राह बनाते हैं
शब्द की
उसके अर्थ तक ले जाने के लिए
वे फूल को फूल
रेडियो को रेडियो
और माँ को माँ बनाते हैं।
अगर मिली ज़िंदगी
अगर मिली ज़िंदगी
तो तुम्हें प्यार करूँगा
उतार दूँगा तुम्हारे सदियों के उधार
चुरा ले आऊँगा
तुम्हारे लिए
इंद्र के बग़ीचे से पारिजात
अभी थोड़ा-सा धीरज धरो
नगर में आए हैं तथागत
कर आऊँ उनका दर्शन
इस बार नहीं फँसूँगा उनके मुखमंडल की आभा में
तुषित1बौद्ध धर्म के अनुसार स्वर्ग। संदर्भ : बुद्धचरित। स्वर्ग भी जाना नहीं है मुझे
नहीं पगलाऊँगा मुक्ति के पीछे
अभी शामिल होना है
निःशब्द जाते जुलूसों में मुझे
हारे हुए लोगों के
लाठीचार्ज से लौटे सूजी पीठ लिए
अपनी मछलियाँ अपने पान-फूल
अपनी नदी अपना पेड़ बचाने के विरोध में
शामिल होना है मुझे
अपने छोटे भाइयों के शवदाह में
वे ख़ूबसूरत और बहादुर लोग
हमेशा की तरह इस बार भी मारे गए हैं
एनकाउंटर में
चोर-उचक्के-डाकू कहकर
सिर पर आकांक्षाओं की गठरी लादे
दमकती आत्माओं वाली
स्त्रियों के गोल के संग-संग जाना है मुझे
जनतंत्र की रैली में
और शायद लौट आऊँ घर तक सकुशल
सरपट दौड़ाए जा रहे
शाही घोड़ों और पीतल जड़ी लाठियों से बचकर
बचना इसलिए है कि तुम्हें करना है प्यार
तुम्हारे लिए बचाए रखनी है पारिजात की ख़ुशबू
थोड़ी-सी बचाए रखनी है आग
बार-बार मार खाकर लड़ते जाने की ज़िद
बचाए रखनी है
कि ऐसे ही छोटी छोटी लड़ाइयों में हारे हुए लोग
बदल देते हैं लड़ाई के तौर-तरीक़े
बदल देते हैं सत्ता का व्याकरण
कि तब तक तुम बचाकर रखना धैर्य
मैं बचाए रखूँगा पारिजात की ख़ुशबू।
धुँधलापन
आँख थोड़ी ख़राब है
दिखती है हर चीज़ धुँधली
शहर धुँधला दिखता है
बिजली के तार पर बैठी चिड़िया दिखती है धुँधली
शरद-पूर्णिमा का चाँद दिखता है धुँधला
हड़बड़ी में और ध्यान से देखने पर भी
आदमी थोड़ा कम आदमी दिखता है
उसका क़द
जी-हुजूरी में घिस गया है शायद
आँखों का ही दोष था
कि गिरगिट मुझे कहानीकार दिखा
पिछले शहर में वह अपनी प्रेमिका
और उससे भी पिछले क़स्बे में अपनी पत्नी
गाँव में माँ को छोड़कर भाग आया था
जब वह लिख रहा था गांधी की जीवनी
तब पुलिस उसे ढूँढ़ रही थी
मानबहादुर सिंह2मानबहादुर सिंह सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश के कवि थे। उनकी हत्या कर दी गई थी। की हत्या के आरोप में
आँखे इतनी ख़राब हो गई हैं मेरी
कि हत्यारा दिखने लगा है महात्मा
नदी का पेट काटकर बालू निकालने वाला ठेकेदार
गा रहा है नदी सूक्त
मुझे लगता है कि मेरी आँख ख़राब है
मैं भागकर डॉक्टर के पास जाता हूँ
वह आगे-पीछे चक्कर लगाता है
जैसे किसी पेड़ को काटने से पहले लकड़हारा
तस्दीक़ करता है
पेड़ की गोलाई
उसकी लंबाई
उसका वज़न
उसके गिरने की दिशा
डॉक्टर एक सर्द आवाज़ में कहता है
घर लौट जाओ, बंधु
तुम्हारा दिमाग ख़राब है
आँखें ठीक हैं।
रमाशंकर सिंह हिंदी कवि-लेखक और अनुवादक हैं। वह इतिहास और समाजविज्ञान के इलाक़े में सक्रिय हैं। उनका अध्यवसाय और उनकी योजनाएँ व्यापक हैं। उनका कुछ काम बहुत महत्त्वशाली और उल्लेखनीय प्रकाशन-स्थलों से प्रकाशित हो चुका है। वह भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में (मार्च 2018-मार्च 2020) फ़ेलो रहे हैं। उनसे ram81au@gmail.com पर बात की जा सकती है। उनसे और परिचय के लिए उनका एक आलेख यहाँ पढ़ें : किताब की यात्रा
रमाशंकर सिंह की कविताएं मैंने पहली बार पढ़ी। इसे आप मेरी सीमा कह सकते हैं। व्यक्तिगत अनुभवों को विराट दायरे में देख पाना इन कविताओं को खास बनाती है। उन्हें बहुत बहुत बधाई
‘कविता मुद्रण के बाहर जीवन मे घट रही है’ फिर तो सृजन का संसार जीवन इतना ही वृहद और व्यापक होगा और उसमे शामिल होंगे वह सभी जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हमारे जीवन का हिस्सा है फिर चाहे वह मित्र हो या मेहतर, स्पीच थेरेपिस्ट हो या अनुवादक। डॉ रमाशंकर अपनी कविताओं में भाषायी लालित्य से ज्यादा भाव पर जोर देते है और उसके लिए विषय जो चुनते है वह एक कविता के लिए अनोखा मालूम पड़ता है या यूं कहें उसमे नवाचार दिखता है।ऐसा लगता है कि एक प्रबुद्घ समाजविज्ञानी का संवेदनशील ह्रदय इन कविताओं में अभिव्यक्ति पाता है।
डॉक्टर साहब की कविताओं की ख़ास बात जोकि शुरू से ही रही है, वह है, एक गंवई-सुजान शैली में बात को क्रमवार रखना और अच्छी बनावट के निष्कर्ष के फेर में न पड़ना (इसे अवधी में, “तिथेन तिथे बात कहि डारत हैं” कहते हैं)। उनकी शुरुआती कविताओं के डेरिवेटिव्स में “…. ..कि” से बात व्युत्पन्न होती थी, जोकि एक बार फिर अवधी लोक-कहन शैली साबित होती है।
लोक की इस “कहन” शैली में गंवई सामाजिक खिलंदड़ नहीं बल्कि कम उम्र में ही पुरखे की तरह दिखते हैं, जैसा कि “मित्रो की बात” में डॉक्टर साहब दिख रहे हैं।
कूड़ा उठाते नौजवान की चमकती देह (जिसके पास कम वस्त्र हैं और धूप ने जिसकी त्वचा को साँवलेपन की चमक में ढाल दिया हो)
या फिर, बॉलकनी से लौकी की तरह लटकती महिला (कानपुर शहर की बालकनियों में लौकी नहीं होती होगी, शायद किसी शहरी घर की बालकनी में ऐसा नहीं होता होगा, जबकि गंवई गाँवो की छत व बाहरी टाँड़ पर लौकी, सेम, सरपुतिया फलती थी)….जैसे रूपक एक साथ एक सुजान और संवेदनशील सभ्यता-पारखी को प्रस्तुत करते हैं।
अंतिम कविता में, उनकी गुस्सैल तमतमाती भंगिमा है, जिसमें उनका समाजविज्ञानी-कवि-छात्र-आंदोलन कारी सभी कुछ एक साथ आते हैं।
ये कम और पकी हुई कविताएं हैं, जिसमें स्पीच थेरेपिस्ट भी कविता है अगर किसी विषय को पहली बार कविता में आने को कविता का मान मिले तो।
beautiful expressions 🙂
रमाशंकर सर की कविताएं मोहित करती हैं, जब मैं ऐसा कहता हूँ तो इसमें कोई उपमानों का दुहराव नहीं बल्कि मेरा कविता को देखने का वह नजरिया है जिसके आधार पर मैं कविता संबंधी अपने पसंद का निर्माण करता हूँ। कवितायें इतनी आकर्षित करती हैं कि मन करता है कि बार बार पढ़ूँ, ऐसा नहीं कि बार बार पढ़ने से उसके अलग अलग अर्थ मिलते हो बल्कि यह ऐसा है कि मैं बार बार उन कविताओं की भाव भूमि से गुजरना चाहता हूँ। एक सार्थक सृजन शायद इसी को कहा जाता होगा।
बहुत बढ़िया कविताएं सर