कविताएँ ::
रवि प्रकाश
मैं इस दुनिया को पहचानने से इनकार करता हूँ
एक
अस्पताल से लड़खड़ाती हुई मेरी लाश
बीमारी की शिनाख़्त के लिए मर्चुरी में पड़ी हुई है
जिस बीमारी के लिए मेरा इलाज चल रहा था
पोस्टमार्टम के बाद अब वह अनिश्चित है
उन काग़ज़ों में कई तरह की बीमारियाँ हैं
जिससे यह पता चलता है कि मैं बहुत बीमार था
मुझे कई बीमारियाँ थीं
मेरे मस्तिष्क का रक्त कभी भी जम सकता था
मेरा हृदय कभी भी दर्द से फट सकता था
मैं कभी भी इस दुनिया को पहचानने से इनकार कर सकता था
मैं कभी भी किसी दूसरी दुनिया में जा सकता था
मेरी लाश अस्पताल से श्मशान के बीच
पुलिस की सुरक्षा में ग़ायब है
मैं नहीं जानता
कि मैं जीवित हूँ या मृत
मेरी मृत्यु स्थगित है जीवन की तरह।
दो
कौन लौटना चाहता है मेरे भाई
भोजन देखते ही ठहर गया मैं उसके पास
लौटते हुए भी!
इतनी भूख है कि डूबकर खाना चाहता हूँ
कहीं नहीं जाना चाहता।
जल देखते ही
ठिठक गये मेरे पाँव
लहू और श्वेद से लथपथ
इतनी प्यास है कि ओक से नहीं
तैरकर पीना चाहता हूँ
इतने घाव हैं कि नहीं चाहता
जम जाए उस पर रक्त
उसे पीड़ा देता रहा मेरा स्वेद
मैं उन्हें जीवित रखना चाहता हूँ बग़ैर टीस के
यही मेरी बचत है, यही मुझे मिला है
लेकिन बग़ैर पीड़ा के कोई ज़ख़्म रहता ही नहीं
इतनी धूप है कि छाँव में बैठकर
नींद के उस पार खेतों में घूमकर आना चाहता हूँ
मैं कहीं नहीं जाना चाहता
इतना सन्नाटा है कि इन्हें सावधान करते हुए
ज़ोर से चीखना चाहता हूँ
होगा! ज़रूर होगा एक अपूर्व कोलाहल
अपने हाथों से बनाया है हमने इसे
हम इसे मुर्दा शांति से भरने नहीं देंगे
इस भय में तुम्हें जीने नहीं देंगे
दी है काया तो जीवन भी हम ही देंगे
हम तुम्हें निष्प्राण होने नहीं देंगे।
तीन
शीला!
एक डूबती हुई बेबस शाम में
तुम निकली हो काम की तलाश में
मुझसे पूछती हुई
कि कुछ काम मिल जाता तो कर लेती
यह बताते हुए कि तुम सारा ही काम कर लेती हो
तुम कमर पे हाथ रखे खड़ी रहती हो
जैसे धूप में सूखती पटरी पर शून्य लिखा हो
शीला! मर चुकी माँ की नींद से चादर हटाते
किस बच्चे की माँ हो तुम
चेकपोस्ट पर लटके हुए किस आदमी की औरत हो तुम
शहर के बीचोबीच शिनाख़्त के लिए
लावारिस पड़े किस भाई की बहन हो तुम
सीने पर दाग़ की तरह बचे हुए स्तन वाली
कौन-सी स्त्री हो तुम
किस शहर में किया था अपनी बेटी का ब्याह
अब वह किस शहर में है
यह भूल चुकी किस माँ की बेटी हो तुम
किस बहन की बहन
मुँह पर मास्क लगाए
किस बेशर्म सभ्यता की नंगी तस्वीर हो तुम
किस बुझे हुए चूल्हे की राख हो तुम
किस कवि का सौंदर्य हो तुम
किस इंतजार का भटका हुआ बादल
कहाँ चली जा रही हो शीला
खंडहरों के नीचे पीछे और पीछे
मदार की झंखाड़ के नीचे
मैं डूब जाऊँगा तुम्हारे पीछे
नीचे! और नीचे
तुम्हारी ही तरह, तुम्हारे ही साथ।
चार
दाल भात देखते ही ऐंठकर
माँ की छाती से पलट गई हो
ममता का यह धागा
निष्प्राण सड़कों की तरह दूर तक खींचता हुआ बदहवास
जिसे मैं बढ़कर पकड़ लेना चाहता हूँ
लेकिन हाथ कुछ नहीं आता
कुछ नहीं था वहाँ
सिवाय पसलियों के भीतर फैले हुए अकाल के
रेगिस्तान के
जिसे तुम सोखती रहती हो
लू के थपेड़ों में सूखती हुई
और मुस्कुरा उठी हो उस अजनबी को देखते हुए,
तुम मुस्कुराते हुए कभी अपनी माँ को देखती हो
कभी उस अजनबी को
तुम्हें देखकर ऐसा कहा जा सकता था कि
तुम अपनी माँ को उस व्यक्ति से प्रेम कर लेने की प्रस्तावना रख रही हो
प्रेम की प्रस्तावना एक साथ कितनी लाचार
और कितनी निश्छल
भूख, भोजन और ममता के बीच झूलती हुई
दया की सूली पर चढ़ती हुई।
पाँच
लैम्पपोस्टों की शेष रह गई
बमुश्किल रोशनी की यह जगह है रात की
शराबियों और मुसाफ़िरों का पेशाबघर
उसी पेशाब की नमी में उगी झंखाड़ के भीतर
बसी हुई हैं बस्तियाँ घोंसलों की तरह लटकती हुईं
खेल रहे हैं उनके बच्चे घोंसलों के नीचे
जाता हूँ उनके पास और वे चीख़ने लगते हैं
चीं चीं चीं चीं आसमान में तारों की तरह
छिटकने लगती है यह चीख़ें दिक्काल तक तैरती हुईं
भीतर ब्रह्मांड को भेदती हुईं
उधार के शब्द और सौंदर्य से पेशाब की बास आने लगती है
हे मेरी साहित्यिक दुनिया,
यह सिर्फ़ काल है
अकाल है
कोरोना काल नहीं है
यह सदियों से चली आती भूख है
उसकी दरवाज़े पर दस्तक है
यह सदियों से चली आती बीमारी है
जिसके शिकार हम ख़ुद हैं
यह बाज़ार में हुई हत्या की खो गई सूचना है
प्रकट होती हुई,
ख़ुद अपनी शिनाख़्त करती हुई
हे मेरी साहित्यिक दुनिया,
हम यायावर नहीं, आवारा नहीं, विस्थापित हैं—
भटकते हुए, अपनी दुनिया खोजते हुए
यह दुनिया हमारी नहीं है, पृथ्वी हमारी है
मैं इस दुनिया को पहचानने से इनकार करता हूँ
मैं इसमें रह नहीं सकता
हे मेरी साहित्यिक दुनिया, हे मेरे लोगो,
अपने होने के कारण ढूँढ़ो
इस जीवन का कोई मतलब ढूँढ़ो…!!
रवि प्रकाश हिंदी कवि-लेखक हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुत से पूर्व प्रकाशित उनकी कविता के लिए यहाँ देखें : नागरिक-परिक्रमा
इतनी प्यास है कि ओक कर नहीं
तैर कर पीना चाहता हूँ
शुभकामनाएं भाई
इस अभिव्यक्ति के लिए शुक्रिया!
क्या हम कह सकते हैं कि हमें इन कविताओं का इंतज़ार था ? पता नहीं। लेकिन ये कवितायें फॉइल पेपर में लिपटी गलीच चमक वाली दुनिया से सवाल पूछ रही हैं,उसे झकझोर रही हैं– इस बात का इंतज़ार था। इसमें “हम सब मर जायेंगे” का धूर्त मध्यवर्गीय जवाब नहीं है।
शीला–को काम नहीं है, सारे ही काम कर सकती है और उसकी छातियाँ उसके शरीर पर दाग की तरह बची हुई हैं…लौटने वाले क्या सचमुच “लौट” रहे हैं? उनकी भूख-प्यास-चीख के बीच मुर्दा शांति से भरी हुई दुनिया को यह कवितायें झिंझोड़ रही हैं।
यायावरी और अनिकेतपने की नरम डायरियाँ लेकर अहा अहा करने वाली साहित्यिक दुनिया के बरक्स, इस कविता में वे विस्थापित हैं जोकि– मैं कौन हूँ नहीं, कहीं तंबू गाड़कर विश्राम की जगह खोज रहे हैं। म्यांमार और उत्तरी अफ्रीका के देशांतर विस्थापनों से लेकर अपने ही देश में …”कहीं न पहुँच पा रहे” लोगों का यह विस्थापन बहुत दारुण है।
(मैं हर तरह से ख़ुद को सुरक्षित कर दीर्घजीविता के जतन कर रहा हूँ, मेरे इस जीवन के मानी क्या हैं ? क्या सचमुच कोई मानी हैं ? यह कविताओं आपको अपराधबोध से मुक्त नहीं करती हैं, आपको जिम्मेदारी पहचानने की जिम्मेदारी देती हैं)