कविताएँ ::
रेयाज़ुल हक़
नई दिल्ली नोटबुक : कुछ अधूरी कविताएँ और एक पूरा सवाल
शोमो, फ़. और अ. आ. के नाम, जादूगरी के लिए
जॉन बर्जर के लिए
इस बीच
क़त्लगाह होती इस जगह में
ज़िंदा होना आख़िरी दलील है,
सरहद
जो मेरी और तुम्हारी नज़रों के बीच है
भरोसे को नफ़रत में बदलती हुई
मुल्क वह सब कुछ है अब
जो इसके बीच में है,
दादरी
रेलें शहरों में दाख़िल होती हैं
और लौट जाती हैं
अख़बार छपते हैं
और पढ़े जाते हैं
राबिस में धंसे कंचों पर
चमकती है सर्दियों की धूप
बाँस के कोठे में
नई कोंपलें फूटी हैं,
दर्द
खाई से उठता है
और बेयक़ीनी के आसमान पर
कातिक की धूप-सा उगता है
वह जो पत्थरों की मार
और आग की लपटों से पैदा होता है,
उम्मीद
घास में नए पत्ते आए हैं
तालाब में रिस रहा है नाला
पानी बैठ कर बातें करता है
सूखते सूखते रह गई धान से
बोरों में रह गई दाल को चूहों का ख़ौफ़ है
ग़ुंडे दिल्ली में हैं
और उम्मीद के सिर पर इनाम है,
जो कहा जाता है
अवाम की ज़बान
भूल जाने के बाद
कवि,
कविता से मुख़ातिब होता है,
जो नहीं कहा जाता
मैंने तुम्हारे लिए फ़िक्र की
कौन होगा
जो मेरी फ़िक्र करेगा,
जागना
बुरे सपनों की
एक गहरी नींद है,
ताक़त और कमज़ोरी
तुम्हारी हड्डियों तक में जज़्ब है
नफ़रत हमारे ख़िलाफ़
हम जानते हैं तुम्हारी ताक़त
हम जानते हैं तुम्हारी कमज़ोरी
हमारे खिलाफ़ नफ़रत
जो तुम्हारी हड्डियों तक में जज़्ब है,
कविता के नाक़ाबिल विरोधी
बची रहेगी तुम्हारी कविता
क़ब्रगाहों के सन्नाटे
और क़त्लगाहों के शोर के ऊपर
जैसे जुलाई के आख़िरी हफ़्ते की उमस
जैसे चेहरे पर लगा एक ज़ख़्म
इसके बच जाने का जश्न मनेगा
बाज़ार में इसकी पहली खेप के बाद
जब तहख़ानों में, माल की तरह
यह ख़ुद को तैयार करेगी
“वज़न सही है”
“प्रिजर्वेटिव्स नहीं हैं”
(उनका होना पकड़ में न आए,
तरकीब यही है)
“लेबल ही सब कुछ है गाइज़”
“लेट्स मेक सम नॉइज़”
तुम हर जुगाड़ करोगे
हर हत्या को भूल जाओगे
तुम सुनोगे
एक बदबूदार, सूखे कुएँ में
गूँजती अपनी आवाज़
और जश्न की तैयारियाँ करोगे
बाहर जल्लाद अँधेरा
पसर रहा होगा
बची हुई बस्तियों पर,
मुर्दाघर में बेदख़ल
उतने भरोसे के लायक़ नहीं है
कोई भी जवाब
जितनी उम्मीद करते हैं हम
अपने सवालों से,
गुनाह
जब आख़िरी लाश
जल चुकी होगी
हम सोचेंगे
कि हमें क्या करना था
रोकने के लिए
पहला क़त्ल,
जिस दिन तुम विदा होगे, शायद इसे समझो कि हमने तुमको क्यों कभी पसंद नहीं किया
तुमने मुल्क को
नफ़रत का कारख़ाना बना दिया
और गलियों को
शोर मचाती भीड़ की शिकारगाह
शायद तुम यक़ीन न करो
मगर शिकारगाह में नफ़रत
वह पहली चीज़ होनी चाहिए थी
जिससे तुम बचना पसंद करते,
फ़ाशीवाद
दरख़्त सूख चुका है
तुमने खिलौने नहीं बनाए
तो उसे दीमकें खाएँगी
या वह लाशें जलाने के काम आएगा,
फ़ौरन
जवाब दो
सवालों की खातिर
देर हो चुकी है,
हम जिसे मुल्क कहते हैं
यह जगह साफ़ की जानी है
लाशों को खुले में न छोड़ें,
हत्या
एक ज़िंदगी तबाह होती है
एक क़ौम को घेरा जाता है
एक मुल्क बनता है,
लोकतंत्र
हाँका करती भीड़
वोट डालती है
हत्यारे पद की शपथ लेते हैं,
मुल्क
सरहदें तामीर की जा रही हैं
ईंट तराशी जा रही है
हाथ मज़बूत हो रहे हैं
सड़कों पर कुचली हुई लाश में
तब्दील कर दिए जाने का ख़ौफ़
कर रही है मर्दुमशुमारी,
दस्तूर
संदिग्ध होने के लिए
नाम एक क़ायदा है
संदिग्ध होना काफ़ी है
मार दिए जाने के लिए
मौत
क़सूर की निशानी है
ज़िंदगी किसकी निशानी है
क़सूरवार मौत के इस क़ायदे में?
वक़्त एक तकलीफ़देह इमारत है
राबिस रहेगी जब तक
नमी पास नहीं आएगी
उसके बाद सीलन
उसके बाद कीच
उसके बाद दलदल,
रास्ते की निशानियाँ
क़तार यहाँ से शुरू होती है
भट्ठी आगे है
फ़र्क़ बनाए रखें
और दाहिनी तरफ़ रहें
बाईं तरफ़
एक तीखा मोड़ है,
हमने जब भी अँधेरे को अँधेरा कहना चाहा, तुमने कहा कि चीज़ों को इतना पुख़्ता करने की ज़रूरत नहीं है, और अब जब एक पुख़्ता अँधेरा हमारी रगों में पैबस्त हो रहा है, तुम कहते हो कि नाम हमेशा नाकाफ़ी होते हैं
कुछ भी तो नाक़ाबिले-क़बूल नहीं है
सिर्फ हाँके में घिरी बस्ती से उठते हुए धुएँ और गंध से होने वाली
ज़रा-सी तकलीफ़ के सिवा,
इस तरह ली जाती है राय
सबने कहा
हाँ!
ना कहने वालों से
वसूल ली गई थी ज़ुबानें
और कहा गया
जम्हूरियत जीत गई,
नक़्शे पर 11 मार्च 2017
जहाँ नहीं पहुँचना था
हमारा सफ़र वहीं से शुरू हो रहा है,
वाल्टर बेंजामिन के लिए
दलील का नाकाम होना
शिकस्त नहीं है
शिकस्त है एक सही दलील का न होना
जब ताक़त हो
सबसे बड़ी दलील,
कामयाबी
बारिश में चींटियों को देखा है?
रेयाज़ुल हक़ हिंदी कवि-लेखक और अनुवादक हैं। वह ‘हाशिया’ नाम के ब्लॉग के संपादन के लिए भी चर्चित रहे हैं। इन दिनों वह सिनेमा और इतिहास के रिश्तों पर अपने शोध के सिलसिले में बर्लिन (जर्मनी) में हैं। उनसे reyaznama@gmail.com पर बात की जा सकती है।