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संदीप निर्भय

संदीप निर्भय

गाँव, गली और घर के बारे में सोचता हुआ

गाँव—
थार में खड़ी खेजड़ियों पर मिंमझर आ गई होगी
रबी फ़सलें पक गई होंगी
पखेरू गीत गा रहे होंगे
किसानों, मज़दूरों के चेहरे चमक रहे होंगे
कई छोरियाँ ब्याह दी गई होंगी
गाँव की गलियाँ
घर-बीती, पर-बीती और बातों की बातें कर रही होंगी

सुबह—
माँ-बापू ऊँट-गाड़ा लेकर खेत चले गए होंगे
दादी पूजा-पाठ करने के बाद
गायें दुह रही होगी
अनुमान से अधिक दूध देने पर मुस्कराई होगी
कुछ गुनगुना रही होगी बिलावना करती हुई
समूचे घर का झाड़ू निकाल रही होगी
बच्चों को स्नान-पानी कराया होगा
उनके बाल सँवारती हुई
माथे और हथेलियों पर चाँद बनाया होगा
अब चूल्हा सुलगाया होगा पीढ़े पर बैठकर
बनाकर बाजरे की रोटी और राबड़ी
पिछ्ले वर्ष बची सांगरी का तड़का लगाया होगा
इस बीच दादा नें दूजी चाय पी ली होगी
चुनरी का साफा पहनकर
बैठकर तिबारी में
पोते-पोतियों को खिला रहे होंगे या
सुना रहे होंगे बीसवीं सदी की बातें चिलम पीते हुए

तीन बजे—
गायें घर के सामने खड़ी होकर रँभाती होगी
दादी ओढ़ना सँभालती हुई
चारपाई से खड़ी होकर
उन्हें अपने-अपने खूँटों से बाँध रही होगी
फिर नीरा-चारी और पानी पिलाकर
दुधारू गायों के लिए भिगोकर खल
बना रही होगी दुपहर की चाय
चाय पीकर दादा
पड़ोस में ही अब्दुल चाचा के घर चले गए होंगे
बची ज़िंदगी के ढेरिये पर सपनों का सूत कातते हुए
बना रहे होंगे बच्चे रेत पर तोता-मैना आदि
या हँसते, खेलते, रेत उछालते हुए
‘क’ यानी कबूतर ‘ख’ यानी खरगोश लिख रहे होंगे

शाम—
माँ-बापू थके-हारे खेत से लौट आए होंगे
जैसे शाम होते-होते लौट आते हैं
पखेरू अपने घोंसले में
गाड़े पर से बोझा उतार लिया होगा
अँगोछे से पसीना पोंछते हुए
बैठ गये होंगे लंबी साँस लेकर चारपाई पर
छुटकी बापू के लिए
ठंडे पानी का लोटा भर ले आई होगी
माँ, दादी और छुटकी तीनों मिलकर
निपटा लिया होगा घर का सारा काम
दादी भोजन परोस रही होगी
एक जाजम पर बैठ सभी खाना खा रहे होंगे
खाना खाने के बाद
बच्चे सो गए होंगे दादा से लोक-कथाएँ सुनते हुए

और मैं
देश के दक्षिण के किसी कोने के किराए के मकान में बैठा
आधी-रात गए लिख रहा हूँ कविता
गाँव, गली और घर के बारे में सोचता हुआ
मेरे प्यारे गाँव! कैसे बताऊँ तुम्हें
कि मेरी सिसकियाँ
और दुनिया भर की सारी कविताएँ
एक वैश्विक महामारी के काले पत्थर पर सिर पटक रही हैं।

जिस दिन मैंने गाँव को अलविदा कहा

जिस दिन मैंने गाँव को अलविदा कहा
उस दिन मेरा एक साल का बेटा
खेल रहा था
केदारनाथ सिंह की कविताओं के साथ
और कविताएँ
गालों पर चिकोटियाँ काटती हुईं
तितली की तरह चूम रही थीं उसकी हथेलियाँ

जिस दिन मैंने गाँव को अलविदा कहा
उस दिन मेरी अंधी माँ की आँखें
सजल हो गई थीं
मेरे सिर पर हौले-से हाथ फेरती
कुंकुम का तिलक लगाती हुई
ख़ुश रहना, लंबी उम्र का दिया था आशीर्वाद

जिस दिन मैंने गाँव को अलविदा कहा
उस दिन तिल-तिल बड़ी होती बहन ने
मेरे हाथ में रख दी थी
सतरंगी-राखी
और अगले बरस ब्याहने की चिंताएँ

जिस दिन मैंने गाँव को अलविदा कहा
उस दिन बापू के छुए थे पाँव
और उन्होंने
मेरी पीठ थपथपाते
खाँसते हुए कहा—
घर का सारा भार अब तेरे कंधों पर है

जिस दिन मैंने गाँव को अलविदा कहा
उस दिन हँसते-खिलते
गुवाड़, धोरों और झोहड़ियों ने
मेरी जेब में रख दी थी
अपनी सारी कलाएँ, लोकगीत, कथाएँ

जिस दिन मैंने गाँव को अलविदा कहा
उस दिन मेरे थैले में थे
सरसों के फूल, गेहूँ की बालियाँ
थोड़ी-सी मिंमझर
तीन जोड़ी कपड़े
दो जोड़ी अंडरवियर, बनियान
तीन बीड़ी के पैकेट और एक किताब

अब मेरे पास शहर में बचे हैं
एक जोड़ी कपड़े
लीरोलीर सपनें
और फटी किताब के कुछेक पन्ने
मेरे प्यारे गाँव! मैं अब
शहर की रची हुई साज़िशों के हत्थे चढ़ गया हूँ
फिर भी भीतर बचा रखी है घास की तरह आस।

रोटी

पिछले कई महीनों से वह
बनाता रहा है रोटी
पर बहन की तरह
गोल-गोल रोटी बेलकर
अँगुलियों से तवे पर
घुमा-घुमाकर
फुला-फुलाकर कहाँ सेंक पाया है

जैसे-तैसे बेलकर रोटी
सेंकता जब तवे पर
कभी अधकच्ची रह जाती
कभी जल जाया करती

आज माँ की तरह उसने
बाएँ पाँव के घुटने पर
रख दी ठोड़ी और
कुछ सोचता, गुनगुनाता हुआ
गोल-गोल रोटी बेल दी है
फुला-फुलाकर सेंक दी है

और खिड़की पर चोंच मारती
गौरैया को देखते हुए
हौले-से कहा—

बापू! अब तेरा कपूत बेटा
बेरोजगार नहीं रहा
घर की थाली में
लगावण के साथ
रोटी परोसने लायक हो गया है।

संदीप निर्भय गाँव-पूनरासर, बीकानेर (राजस्थान) के रहने वाले हैं। इन दिनों रोज़गार के प्रसंग में वह केरल के एक ज़िले में विस्थापित हैं। उनकी कविताओं ने इधर ध्यान खींचना शुरू किया है। उनका एक कविता-संग्रह ‘धोरे पर खड़ी साँवली लड़की’ शीर्षक से इस वर्ष प्रकाशित हुआ है। 

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