कहानी ::
मनोज कुमार पांडेय

मनोज कुमार पांडेय

पुरइन की ख़ुशबू

कल बहुत देर तक उस स्कूल में भटकता रहा जहाँ हम दोनों पढ़ा करते थे। मैं वहाँ तुम्हारे पैरों के निशान ढूँढ़ता रहा। सब तरफ तुम्हारी निशानियाँ उड़ रही थीं। मैंने उन निशानियों से देर तक बात की और उन्हें बताया कि मैं अब भी तुम्हें कितना प्यार करता हूँ। यह बताते ही सारी निशानियाँ हमारे साथ के लड़के लड़कियों में बदल गईं। तब मैंने उस लड़की को देखा जिसके बारे में तुमने बताया था कि वह दिल ही दिल में मुझे चाहती है। मैंने कल उससे ख़ूब-ख़ूब बातें कीं और उन बातों में तुम्हारा ज़िक्र एक बार भी नहीं आया।

तभी तुम्हारी एक दूसरी निशानी जो गणित के अध्यापक में बदल गई थी, वह मेरे पास आई। उसने मुझे घूर कर देखा और कहा कि अगर मैं तुमसे प्यार करता हूँ तो इस दूसरी लड़की से इस तरह घुट-घुट कर बातें क्यों कर रहा हूँ। मैंने कहा कि मैं तुमसे ही बात कर रहा हूँ। तब उसने मुझे डस्टर फेंक कर मारा। डस्टर रास्ते में बोगेनबेलिया की एक झाड़ी में बदल गया। उसके काँटे मेरे माथे पर धँस गए और इस तरह मैं पूरी तरह से बोगेनबेलिया में बदल गया। फिर देर तक मैं तुम्हारी याद में डोलता रहा।

डोलते डोलते मैं हवा की तरह हल्का हो गया। मैंने अपना शरीर वहीं छोड़ दिया और पुरइन के उस तालाब के किनारे पहुँच गया, जहाँ मैं तुमसे मिला करता था। मैंने जाना कि तुम वहीं पुरइन के फूलों की ख़ुशबू में छुपी हुई हो और मुझे देख रही हो। तब मैंने ज़ोर-ज़ोर से एक कविता रची और रोया। मैं एक-एक फूल के पास गया और रोया। मैंने तुम्हारी याद के गीत गाए और रोया। ये तुम्हारी याद के आँसू थे सो मैंने पुरइन के पत्ते से एक दोना बनाया और आँसू इकट्ठे करने लगा। जब दोना भर जाता तो उसे एक बोतल में उलट लेता।

फिर मैंने तुम्हें गद्य में याद किया। उन बातों में जो कितना भी करो अधूरी ही छूट जाती थीं। इससे भी जी कहाँ भरना था। तब मैंने तुम्हें दृश्यों में याद किया। मैंने एक ऐसी फिल्म बनाई जिसमें तुम ही तुम थीं। मैंने अब तक किसी भी देश या भाषा के सिनेमा में इतनी भावप्रवण नायिका नहीं देखी थी। मैं तुम पर उससे भी ज़्यादा मुग्ध हुआ जितना उस ज़माने में हुआ करता था। जीवन में तुम्हारे न होने का अभाव मुझे चाक़ू की तरह काटने लगा। जो दर्द था उसका चेहरा हूबहू तुम्हारी तरह था। मैं उस चेहरे को देखते हुए रोया और बेसुध हुआ।

उठा तो मेरे पास एक बोतल आँसू थे।

बोतल लेकर मैं शहर चला आया।

वहाँ सिविल लाइन चौराहे पर एक तालाब था जिसके बीच में फ़व्वारा लगा हुआ था। शहर में बहुत गर्मी पड़ रही थी। तालाब में कई लड़के लड़कियाँ नंगे होकर नहा रहे थे। मेरी भी नहाने की इच्छा हुई पर मैं वह तालाब पीछे छोड़ आया था जिसमें पुरइन के फूल खिले हुए थे और जिसके किनारे मैं तुमसे मिला करता था। जिसमें एक बार कपड़े पहने-पहने हम साथ में नहाए थे और तुमने घर जाकर बताया था कि पुरइन के फूल को तोड़ने के चक्कर में तुम पानी में गिर गई थी और कपड़े भीग गए थे।

मुझे उसी तालाब की याद आई। मैंने अपना बैग नीचे रखा और तालाब किनारे बैठे भिखारी से उसका कटोरा माँगा। कटोरे में एक लड्डू था। मैंने लड्डू खा लिया और कटोरे में पानी भर-भर कर नहाने लगा। इस बीच किसी ने शिकायत कर दी कि तालाब में कुछ लोग नंगे होकर नहा रहे हैं। मुझे इस बात का पता तब चला जब पुलिस आ गई। पुलिस ने तालाब में नहा रहे लोगों से पूछा कि क्या वे नंगे होकर नहा रहे हैं तो उनमें से एक ने जवाब दिया कि उन्होंने पूरे तालाब को पहन रखा है और उनके कपड़े भी उस आलीशान कार में हैं जो तालाब के किनारे खड़ी है। कार देख कर पुलिस ने उन लोगों से नमस्ते की और मेरे पास आ गए।

मैंने तुम्हारी यादों को पहन रखा था जो हवा के तारों से बुनी हुई थी। दोनों ही चीज़ें दिखाई नहीं पड़ रही थीं, इसलिए पुलिस मेरे पास आ गई। मैंने सोचा कि उन्हें प्यास लगी है शायद। इसलिए एक कटोरा पानी उनकी तरफ बढ़ा दिया। पुलिस वाले ने पानी गिरा दिया और कटोरा लेकर रख लिया।

मुझे लगा कि कटोरा गंदा होगा इसलिए मैंने अँजुरी में पानी भरा और पुलिस वाले को पिलाना चाहा। उसका चेहरा तुमसे मिल रहा था, पर जैसे ही उसने एक तीखी गाली बकी वैसे ही मैं समझ गया कि वह हमारी दुनिया से बाहर का व्यक्ति है। तब मैंने नहाना बंद कर कपड़े पहनने की इजाज़त माँगी। उसने बस तौलिया लपेटने की इजाज़त दी। तौलिया लपेटकर मैं जीप के पास पहुँचा तो एक दूसरे सिपाही ने मुझे डंडा मारा और तीसरे ने डंडे से कोंच कर तौलिया गिरा दिया।

फिर सबके सब एक साथ मुझसे बहुत सारे सवाल पूछने लगे। मैंने तुम्हारी याद की बात उसी तरह छुपा ली जिस तरह से तुम्हें कई सालों से छुपाए हुए हूँ। मैंने कहा कि अचानक मुझे बहुत तेज़ की गर्मी लगी। न नहाता तो मर जाता। मेरी ज़ुबान सूख गई थी। शरीर अकड़ रहा था और भीतर जैसे लू बह रही थी। मैंने यह भी कहा कि चाहें तो मेरे घर पर पता करवा सकते हैं कि यह समस्या मुझे बचपन से ही है।

जब मैं माँ के पेट में था तो माँ की सास यानी हमारी दादी ने उन्हें कई दिनों तक पानी नहीं पीने दिया इसलिए जब तब मेरा ये हाल हो जाता है। पहले पिताजी लेकर घूमे। बाद में मैं भटका। वैद-हकीम डाक्टर होम्योपैथ तंत्र मंत्र बाबा बाबी जादू टोना बंगाली बाबा लाल पीली नीली किताब सब आज़माया पर चैन न पाया। मैंने खटाक से होम्योपैथी के एक बड़े डॉक्टर और गंगा किनारे रहने वाले बाबा दोनों का नाम एक साथ लिया कि अभी भी मैं इनसे मिलने और अपनी तकलीफ़ के इलाज के लिए ही शहर में आया हूँ।

पुलिस वाले मुझे अजीब नज़रों से देख ही रहे थे कि तुम्हारी याद का एक झोंका-सा आया। मैं बाँस की कोठी की तरह दसों दिशाओं में काँप गया। एक पुलिसवाले ने इसे बीमारी का असर समझा दूसरे ने ओवर एक्टिंग और तीसरे ने नशे का असर। उसकी निगाह अब तक बोतल पर चली गई थी। उसने पूछा कि बोतल में क्या है। बोतल की बात अब तक मैं भूल गया था इसलिए यह सवाल मुझे अचानक हुआ लगा। मैं झूठ नहीं बोल पाया। मैंने कहा कि बोतल में मेरे आँसू भरे हैं।

मेरे यह कहने पर दरोग़ा ने मुझे पागल कहा। एक सिपाही मेरा मुँह सूँघने लगा। दूसरे ने बोतल झटक ली और ढक्कन खोलकर आँसू चखे। बोला सौ परसेंट टंच वोदका। दरोगा ने पुलिसवाले को घूरा। वह या तो मुझे पागल समझ रहा था या मेरी अनोखी बीमारी से प्रभावित हो गया था। मैंने सारी दयनीयता और परेशानियों को अपने चेहरे पर ओढ़ लिया। उसने मुझे इशारा किया कि कपड़े पहन लूँ और अपना बैग उठा कर निकल लूँ।

तब मेरा ध्यान इस पर गया कि मैं नंगा था इतनी देर से। मैं जल्दी-जल्दी कपड़े पहनने लगा। मैं बैग और बोतल लेकर चलने ही वाला था कि वह पुलिस वाला जिसने मेरे बोतल में भरे आँसू सूँघे थे, मेरा हाथ पकड़ लिया और दरोग़ा की तरफ़ देखकर घिघियाने लगा। बोला इतनी अच्छी वोदका कहाँ मिलेगी शहर में। बस दो पैग तो दिलवा दीजिए। दरोग़ा ने मेरी तरफ़ देखा और इशारा किया कि बोतल में से थोड़े-से आँसू उसे दे दूँ।

सिपाही ने एक बोतल निकाली जो पानी से आधी भरी हुई थी। उसने कहा कि यह बोतल भर दो। जब मैं सिपाही की बोतल भर रहा था तो उस भिखारी ने भी अपना कटोरा मेरे सामने पसार दिया जिसका कटोरा माँगकर मैं नहा रहा था। यह बिल्कुल वैसा ही कटोरा था जैसा मुझसे छीनकर एक पुलिसवाले ने जीप में डाल दिया था। जब मैं उस कटोरे में अपने आँसू उड़ेल रहा था तभी और कई गिलास और कटोरे प्रकट हो गए। अब वह दरोग़ा मुस्करा रहा था। उसने ड्राइवर को जीप स्टार्ट करने का आदेश दिया और जीप में बैठ गया।

मैं सब तरफ़ लोगों से घिरा हुआ था। मेरी बोतल से आख़िरी बूँद आँसू तक झपटा जा चुका था। मैंने एक भिखारी से माचिस माँगी और तीली जलाकर बोतल में डाल दी। बोतल के भीतर एक नीली सी लपट बनी जो पल भर में ग़ायब हो गई। और तब बोतल से वह ख़ुशबू बाहर निकली जिसका मैं दीवाना हूँ। तुम्हारी ख़ुशबू। कुछ कुछ पुरइन के फूलों के नज़दीक वाली।

मैंने बोतल वहीं छोड़ दी और अपना बैग उठाकर तुम्हारी ख़ुशबू में प्रवेश कर गया।

मनोज कुमार पांडेय हिंदी के सुपरिचित कथाकार हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व प्रकाशित उनकी रचना के लिए यहाँ देखें : रुलाई

2 Comments

  1. Akhilesh singh अप्रैल 15, 2020 at 3:58 पूर्वाह्न

    अद्भुत शिल्प। कहानी किस तरह रूपकों का तमाम परिदृश्य बुनते हुए समकालीन दशा पर टिप्पणी कर सकती है, यह उसकी बानगी है। मनोज पांडेय अपने पहलो पहल संग्रह में लंबी कहानियाँ लेकर आते हैं। यह सघन छोटी और सरस कहानी, कविताओं की मेटाफ़र योजना को धारण किये हुए, आज के सबसे बड़े संकट “स्मृति के संकट” को बखूबी दर्ज कर रही है। स्मृतियों पर संकट भी, खालिस नहीं है, उसके साथ पूरा तन्त्र-जाल, पूरी सभ्यता रचावट खड़ी है। क्या रोने की भी मोहलत है? क्या यादों को महफ़ूज रखने की सहूलियत है? नंगेपन की प्रत्यंचा ने जो साहित्यिक तीर मारा है, उसे अपने कमरों से लेकर बार की टेबलों तक भटक रहे, व एंटीक घोषणा के शीर्षकों के साथ कहानी में दाखिल हो रहे निपट समकालीन कथाकारों की “फ्लैट मध्यम वर्गीय चेतना” को उससे सीख लेनी चाहिए।

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    1. Rakesh Salgotra अप्रैल 15, 2020 at 11:49 पूर्वाह्न

      Kya kahu… sir lajwaab…👌🏻👌🏻🙏🙏yaad aur yatharth…purin ki khushboo ka halka sa zhonka mujhe shoo gya..aap ki kahani hamesha meri soch ke chhote se khajane ko bda kar deti hai…😊

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