कविताएँ ::
संजीव गुप्त
हाइपरलिंक
सबकुछ जुड़ा हुआ है सबसे
अज्ञान और ज्ञान के बीच भी एक हाइपरलिंक है
सच और झूठ भी जुड़े हुए हैं
धुंधले सच और उजले झूठ के साथ-साथ
एक हाइपरलिंक के ज़रिए
डेटा से सूचना के बीच की हारपरलिंक कहाँ है?
सूचना से ज्ञान के बीच?
और ज्ञान से विवेक के बीच
कोई हाइपरलिंक है क्या यहाँ?
उतनी ही दूर है सूचना
जितनी दूर माउस पर हाथ की हरकत
और तर्जनी से एंटर की एक हल्की-सी क्लिक
सूचना का लोकतंत्र है यह
अपनी बात कहने का फ़्री-स्पेस
बस चाहिए कोई एप्लीकेशन
सर्वर पर थोड़ा-सा स्पेस
एच.टी.एम.एल. का एक पन्ना
और उसको जोड़ता एक यू.आर.एल.
एक ब्लॉग
एक फ़ेसबुक पेज़
या फिर महज़ एक कॉमेंट-बॉक्स
और निकल पड़िए
अपनी यात्राओं पर
…लेकिन पहचानिए तो सही
अपनी इन यात्राओं को
क्या वह आपके विवेक तक जाती है?
कौन-सी हाइपरलिंक है यहाँ
विवेक तक?
सपने की गाँठ
जो स्वप्न देखता हूँ मैं
उसमें सपने जैसा कुछ नहीं
स्मृति जैसा भी कुछ नहीं
सिर्फ़ कुछ घटनाओं का अंतहीन सिलसिला
थरथराता हुआ, रेंगता हुआ
एक घटना से
दूसरी घटना के सिरे
खुलते चले जाते हैं
जिनके बारे में ख़ुद को भी पता नहीं चलता
कि अब आगे क्या दिखने वाला है
अचानक किसी घटना का सिरा
उछलकर नींद से बाहर आ जाता है
वह इस स्वप्न का टुकड़ा है
जो उखड़कर नींद से बाहर आ गया है
या कि ज़बरन घुस आई है
स्वप्नों की दुनिया में
बाहर की कोई घटना
उसके सिलसिले में अचानक गाँठ लगाकर
बाहर निकलकर खड़ी हो ठिठकी
ख़ुद को बदलकर
स्वप्न की गाँठ में
वही गाँठ रह जाती है
स्वप्न के और सारे सिलसिले
डूबते चले जाते हैं
विस्मृति की झील में
जैसे ही सोचना शुरू करता हूँ
उस स्वप्न के बारे में
याद करके
कैसे याद किया जा सकता है स्वप्न को
बची रह जाती है केवल
वही एक गाँठ
यही पोस्ट मिले मुझे अगर
कैसे करते थे लोग पढ़ाई
जब ज़ीराक्स मशीनें नहीं होती थीं,
कैसे करते थे लोग असाइन्मेंट
जब कैलक्युलेटर नहीं होते थे
सोचता था मैं
अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान
पूछ बैठती है मेरी बारह साल की भतीजी :
‘‘होमवर्क करने में तो बहुत परेशानी होती होगी
जब आप स्कूल में पढ़ते थे
तब तो इंटरनेट नहीं होता होगा’’
हो सकता है पूछ बैठे बड़ा होकर
मेरा पाँच साल का बेटा
कि कैसे कम्युनिकेट कर लेते थे आप लोग
मोबाइल के बिना
इस बात पर क्या सोचूँगा मैं
अगर पूछ बैठे वह यही बात
फ़ेसबुक पर पोस्ट करके
उसके स्कूल जाने के बाद
जब चेक करूँ अपना अकाउंट
यही पोस्ट मिले मुझे अगर!
वर्तमान है वह
एक
आगे आगे चलती है छवि
पीछे खिंचती जाती है परछाई
और इनके बीच कहीं मैं
अपने में छुपा हुआ
ओझल सबसे
दो
नए रास्तों पर चलता हूँ
कौतूहल होता है
पुराने रास्तों पर
मोह अतीत का
उनके इस बीहड़ में
आख़िर कहाँ होता है
रास्ता
रास्ते जैसा
तीन
आगे है जो कुछ भी
भविष्य है वह
पीछे है अतीत
और इनके बीच
एक क्षण
वर्तमान है
एक साँस जो मैं लेता हूँ
एक प्रेम जो मैं करता हूँ
वर्तमान है वह
सारे रंगों की तरह
रंग आविष्कृत नहीं हैं
लेकिन रचे गए हैं
उनके नाम
एक आदिम पुकार के साथ
जितने रंग हैं
उनसे ज़्यादा हैं उनके नाम
एक भाषा पूरी नहीं पड़ती
सारे रंगों के नामों के लिए
सारे रंगों के नामों के लिए
सारी भाषाओं की ज़रूरत है
प्रकृति के सारे रंगों के तरह
विचारधारा
विचारधारा
एक निर्देशिका है
यह विकल्प नहीं है विवेक का
औज़ार है यह
विवेक को प्रखर करने का
यह खूँटा नहीं है
जिसमें बाँध दिया जाए
अपने विवेक को
यह हथियार भी नहीं
ऐसे ही किसी दूसरे हथियार से लैस
लोगों पर
हमला बोलने के लिए
यह एक औज़ार है
और किसी एक तरह के औज़ार से
नहीं काटी जा सकती पूरी ज़िंदगी
यह बेड़ा है पार उतरने के लिए
सिर पर लादे रहने के लिए नहीं
नारा नहीं है यह
झंडा भी नहीं
और टैटू तो बिलकुल भी नहीं!
हम प्रतिरोध करते हैं
हम प्रतिरोध करते हैं
हममें प्रतिरोध करने की समझ है
हममें प्रतिरोध करने की क़ाबिलियत है
हमें प्रतिरोध करने की आज़ादी है
यह कारण नहीं है
प्रतिरोध करने का
यह प्रकृति है हमारी
जो अर्जित की है हमने
सहिष्णुता के समन्वय
और समावेशन से
अवधी है मातृभाषा मेरी
माँ नहीं बोल पातीं थीं ठीक-ठीक
दादी बोल लेती थीं
नानी तो यही भाषा बोलती थीं अक्सर
नानी के साथ
उनके गाँव से आई थी यह भाषा
करबिगवाँ था उनका गाँव
कानपुर के पास बसा हुआ
शहर की थीं दादी
ठेठ शहरी मोहल्ले नौघड़ा में पलीं-बढ़ीं
उनकी भाषा में जो अवधी थी
उसमें शहर की भाषा डोलती थी
थोड़ा-सा पुट उर्दू का भी था
पड़ोस में अवध है जो
थोड़ी ब्रजभाषा भी थी
घुल-मिल गई थी जो
ब्रज के मधुर भजनों के साथ-साथ
थोड़ी बुंदेलखंडी
दक्षिण के रास्ते से
थोड़ी भोजपुरी बनारस से आ गई थी
कई सारी तीर्थ-यात्राओं के बाद
विस्थापन कहें या पुनर्स्थापन
थोड़ी पंजाबी भी बस गई थी
लाहौर से आकर बसे
कुछ पंजाबी परिवारों के कारण
कुछ सिंधी परिवार भी थे उस मुहल्ले में
कुछ बंगाली परिवार भी
और उन सबकी भाषाएँ घुलती-मिलती जातीं
हर मंगलवार को होने वाले
कीर्तन के साथ-साथ
कितनी भाषाएँ थीं
जिनके जल में मैं
तैरता था
एक मीन की तरह
और फिर अचानक यह जाना बहुत बाद में
विदेश-प्रवास के लंबे दिनों में
जब घिरा हुआ था आस-पास
इंगलिश और स्पैनिश से
कि मेरी मातृभाषा तो अवधी है!
अवधी में बात करती थीं दादी
अवधी में बात करती थीं दादी
और गाती थीं भजन
ब्रजभाषा में
गूँजती रहती थी उनकी आवाज़
इन्हीं भाषाओं में
खड़ी बोली में
बोलती थीं तब
जब थोड़ा नाराज़ होतीं
या फिर औपचारिक
और बेहद ग़ुस्से में
इंगलिश के कुछ प्रचलित वाक्य
…शब्द, वाक्य, अर्थ,
और उनकी व्यंजनाएँ नहीं
व्यक्त कर लेती थीं वे ख़ुद को
केवल भाषा के चयन से ही!
पखड़िया तरे
बचपन में देखे एक गिरे पेड़ की स्मृतियाँ
कल रात तेज़ बारिश आँधी-तूफ़ान में
गिर गया पखड़िया तरे का पेड़
पेड़ था पाकड़ का उस जगह अकेला
बरसों-बरस की आत्मीयता में
नाम हुआ उसका पखड़िया
उसके नीचे का छोटा-सा मैदान
कहलाता था—
‘पखड़िया तरे’
मैदान के आस-पास बस्ती थी घनी
एक बड़ा मकान लोग कहते थे जिसे—
‘महलवा’
हमें नहीं मालूम था
अपने बचपन में कूदते-फाँदते
कि पखड़िया किसे कहते हैं
और हमारे संबोधन में आ गया
उसके लिए नाम—
पखड़िया तरे का पेड़
गिर गया है वही पेड़
कल रात की बारिश ने ढहा दिया है
देख रहा हूँ उसे सामने
अपनी दस बरस की उमर में मैं
लेटा पड़ा है पूरे मैदान में
पसरा पखड़िया तरे
जैसे सो गया हो गहरी नींद में
हिल नहीं रही हैं उसकी पत्तियाँ
झूम नहीं रही हैं उसकी डालें
गिरा पड़ा है मैदान में
उखड़ आई है साथ लगी मंदिर की दीवार
ऊपर आ गई हैं जड़ें
‘इत्ती बड़ी!’
बच्चे आश्चर्य से मुँह बा देते हैं
‘इत्ती बड़ी जड़ें!’
‘और क्या!’
एक बच्चा कहता है—
‘कितना बड़ा था यह!
जित्ता बड़ा पेड़
उत्ती बड़ी जड़ें!’
मई-जून की पूरी दुपहरें
वहीं बीतती खेलते पखड़िया तरे
और लोगों की नज़रें बचाकर
चढ़ते-उतरते
लुकते-छिपते
उसी पेड़ की डालों पर
कितनी दुपहरें
कितनी शामें
महलवा के लोग सोते
गर्मियों की रातों में पखड़िया तरे
खटिया डाले
एक दिन अपने बचपने में
पूछ बैठा मैं उनसे अचानक—
‘घुटन नहीं महसूस होती रात में?
छोड़ते हैं पेड़ कार्बन-डाई-ऑक्साइड रात भर’
‘क्या?
क्या है यह!’
मेरे ‘ज़हरीली हवा’ कहने पर
हँसने लगते पखड़िया तरे लेटे सुस्ताते लोग
‘पेड़ और ज़हरीली हवा?
अरे पखड़िया तो बिल्कुल नहीं
अपनी ठंडी हवा से झुलाता रहता है रात भर
तुम भी बच्चा बाबू!
क्या-क्या पढ़ते रहते हो किताबों में’
ऊँघते लोग पखड़िया तरे
और सोचता मैं
कहीं सीधे आसमान में तो नहीं
छोड़ देता कार्बन-डाई-ऑक्साइड
यह पखड़िया तरे का पेड़
और झुलाता रहता है पंखा
रात भर अपनी डालियों का
एक हूक-सी उठती है
अब नहीं चढ़ पाऊँगा इस पेड़ पर
अब नहीं हिला पाऊँगा उसकी डालें लंगड़ डाल
अब नहीं छुपा पाएगा यह
अपने आँचल में स्कूल से आने के बाद
आँखें भर आती हैं
ठेकेदार हिसाब लगा रहा है
आने वाली हैं आरियाँ
लोग खड़े हैं घेरा बाँधे
बकरियाँ पालने वाले नोच रहे हैं पत्तियाँ
डंडियाँ तोड़ रहे हैं बच्चे
चढ़ उतर रहे हैं उस पेड़ के मोटे तने पर
कुछ झूल रहे हैं झूला उसकी शाखों पर
बच्चों के लिए नया खेल
अभी आ जाएँगी आरियाँ
काटेंगें आरा मशीन के मज़दूर
दोनों तरफ़ से पकड़कर आरियाँ
लोग घेरा बाँध देखेंगे
कहेंगे महलवा के लोग—
‘गर्मियों में हो जाएगी दिक़्क़त
क्या बताएँ?’
बच्चे देखेंगे आरियाँ चलना
उनके लिए फिर होगा एक नया खेल
कल वे कोई दूसरा खेल खेलेंगे
पखड़िया तरे के अदृश्य सन्नाटे में
सजीव है जो
चलूँगा
तो पहुँच ही जाऊँगा
कहीं न कहीं
चलता रहूँगा
तो पहुँचता रहूँगा
कहीं न कहीं
पता नहीं गंतव्य का
वह तो है कल्पना में
…लेकिन
कितना अद्भुत है यह रास्ता
सजीव है जो
बिल्कुल सामने अभी!
संजीव गुप्त तीन दशक से कविताएँ लिख रहे हैं। इस काल और अवधि के दरमियान हिंदी के लगभग सभी प्रतिष्ठित प्रकाशन-स्थलों पर उनकी कविताएँ प्रमुखता से प्रकाशित हुई हैं। वर्ष 1995 में ‘वागर्थ’ में प्रकाशित शृंखला ‘आज के कवि’ के वह पहले कवि रहे और 2001 में ‘कथादेश’ नवलेखन अंक में भी शामिल रहे। उस और इस समयावधि के बीच के ठहराव और अभिरुचियों-यात्राओं-आजीविकाओं के दबाव के बाद, संजीव इधर फिर से कविता-प्रकाशन की दिशा में सक्रिय हुए हैं। ‘समावर्तन’ (मई-2022) में उनकी कविताएँ एक उल्लेखनीय संपादकीय टिप्पणी के साथ रेखांकित हुई हैं। उनसे sanjivgupt@gmail.com पर बात की जा सकती है।