कविताएँ ::
सोमेश शुक्ल
एक
जो हमसे जीने से रह जाता है,
ईश्वर वहीं है—
उसे जीता हुआ।
जो चेहरे हमसे देखने से रह गए,
वे सब ईश्वर की शक्लें हैं।
दो
किसी चीज़ को ख़त्म कर देने के बाद का संसार हो।
समय में न रहे। अनुभाव न रहे समय का।
चूक जाने पर मात्र चूक जाने वाला ही बचे।
शांति इतनी हो कि उससे शांत रहने वाला भी न हो।
मैंने ये चाहने के लिए नहीं चाहा,
पर इच्छा नहीं रही तो चीज़ें मुझसे गिरीं।
और सब गिरे के ऊपर गिरने की जगह भी गिरीं।
गिरने से बनी एक ख़ाली इमारत अकेली खड़ी रह गई।
तीन
मेरी आँख के काँच पर एक स्क्रैच था—
वह असल में आँख पर नहीं, हर कहीं था।
देखने पर
मैं आश्वस्त था
कि बिना बात के सोचा जाए और
हो सके तो कुछ न हो।
जबकि,
कुछ भी कम-से-कम अनंत हो सकता है।
एक, न गिनने पर असंख्य हो सकता है।
मैं देखते रहने का आदी हो चला था। एकटक
पलटकर उसी से उसी को देखता।
चार
खोई हुई वस्तु अपने साथ क्या ले जाती है—का अनुमान तक नहीं लगाया जा सकता, जबकि वह केवल
सब कुछ छोड़ जाती है।
एक सचेत मनुष्य वह नहीं जिसके पास उसका बचा हुआ सब कुछ है,
अपितु वह है जो अपनी किसी खोई हुई वस्तु के साथ है।
पाँच
हर चीज़ जाने के लिये पहले आती है, लेकिन दु:ख आने से पहले ही आ जाते हैं और चले जाने के बाद भी
रुके रह जाते हैं
छह
जो कुछ समझा—समझे हुए को समझाया भी
किंतु, बहुत कुछ ऐसा था जो कभी किसी की समझ नहीं आया।
‘‘एक आदमी के आगे खड़े होने के पीछे का एफ़र्ट जानते हो?’’
मैं जानता हूँ, पर ये कभी किसी को समझा नहीं पाया।
बहुत अधिक अँधेरे में और अधिक अँधेरा कर लेने वाला मैं
किसी को समझा नहीं पाया
कि अँधेरा काला ही हो यह आवश्यक नहीं!
मैं अपना अँधेरा कभी किसी को दिखा नहीं पाया।
सात
रास्ते में, एक रुपए के नीचे ज़मीन पड़ी थी।
आठ
वे जो देखते हैं मुझे, देखते हुए उन्हीं को
इससे भी बीच का कुछ नहीं बदलता।
‘‘जीने को जीवन जैसा कुछ होना चाहिए!’’
इस तर्क से कुछ नहीं पलता।
कहे गए शब्द जहाँ जहाँ पड़े हैं,
वहाँ फिर कुछ नहीं हिलता।
कुछ नहीं उगता।
जिस जितनी जगह में हो,
उस उतनी जगह में तुम्हें कभी कुछ नहीं मिलता।
‘‘मेरे दोस्त, मेरे हम दृश्य
‘दृष्टि’ कोई आने का रास्ता नहीं है!’’
नौ
मैंने हर चीज़ को उठाकर उससे दबे-छुपे उस जितने अर्थ को देखा
और पाया कि पाया कुछ नहीं जा सकता,
सिवाय उन उठाई हुई असंख्य निरर्थक वस्तुओं के—
जिनको रख देने की फिर कभी कोई जगह न मिली।
दस
देखने पर
दिखने की बारिश झरती है।
दूर-दूर तक मैं सोचता हूँ कि जो चीज़ें
भीगने से बच जाती हैं—
कैसे सूखती होंगी।
ग्यारह
इस समय
मैं जिससे बचता हूँ
बचकर उसी की ओर भागता हूँ।
जिन चीज़ों के लिए कहीं कोई जगह नहीं,
मेरे साथ-साथ रहती हैं।
सोमेश शुक्ल हिंदी कवि-कलाकार हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : थोड़े समय से बच गए अनंत समय में │ कुछ ऐसे रहस्य हैं, जिन पर कोई परदा नहीं │ फूल की स्मृति में फूल की गंध
बहुत अच्छी कविताएं