कविताएँ ::
सौरभ कुमार

सौरभ कुमार

मुआवज़ा

सरकारी दुर्घटना में
व्यक्ति की मौत पर
सरकार देती है मुआवज़ा!

मुआवज़े के लिए ज़रूरी है
सरकारी दुर्घटना में
व्यक्ति की मौत!

इस शातिर समय में
जब चीज़ें हो गई हैं नुकीली
सुरक्षा एक मसला है फूहड़-सा
अपराधी कर रहे हैं न्याय
और दैनिक दुर्घटना से बच पाना
हो गया है सबसे मुश्किल काम

तो मैं एक चालू-से लोकतंत्र में
लगातार ज़िंदा पाए जाने के लिए
मुआवज़े की माँग करता हूँ।

प्रदूषण की कमी से साफ़-साफ़ दिखाई देने वाली चीज़ों की अधूरी सूची

प्रार्थनाएँ
वे चुटकुले हैं
जिन्हें सुनाकर ईश्वर
नन्हे बच्चों को नींद में हँसाता है

हँसी
एक चेहरे का दूसरे चेहरे को भेजा गया निमंत्रण है
जैसे तितली एक फूल का दूसरे फूल को
जैसे लोरी निमंत्रण है नींद को

नींद सपनों के खेत हैं
बहुत से सपनों के पुरखे उम्र भर
पराए खेतों में बँधुआ मज़दूर रहे!

मज़दूर
मेरी भाषा का सबसे खुरदुरा शब्द है
पहली मई के झुटपुटे में वह
बज-बजाते नारों की झोपड़पट्टी से निकलता है और शाम होते-होते
किसी निर्माणाधीन इमारत या पुल के नीचे दबकर
मर जाता है

एक फ़रेबी कवि पुल को
‘बहुत दिनों तक साथ रहकर उकता गए दो छोरों के बीच का आख़िरी संबंध’
जैसा कुछ कहेगा
लेकिन असल में
दुनिया का हर एक पुल
असमय मर गए मज़दूरों का अघोषित स्मारक है

आप एक कवि को उसके लिखे से ज़्यादा
उसके द्वारा छोड़ दिए गए विषयों से पहचान सकते हैं।

तंत्र

अत्याचारी से ज़्यादा
उससे सतर्क रहो
जो तुम्हारी दुनिया में अत्याचारी की
पैरवी लेकर आता है

जो यक़ीन दिलाता है कि
कोई चारा नहीं है अत्याचारी के सिवा
वही हमारे लोकतांत्रिक श्रम की सबसे उचित उपलब्धि है!
नहीं है करोड़ों आदमियों में एक
कम मूर्ख
कम कुटिल
कम निष्ठुर
कम ख़ूँख़ार
कम अत्याचारी आदमी
कोई नहीं बचा है
जिसके पास हो कम चौड़ा सीना
पर ज़्यादा मुलायम दिल

वह जो
तुम्हारी सोच और भरोसे में
ज़्यादा अंदर तक धँसा है
उसे इस वक़्त
ग़ौर से देखो

देखो कि वह
क्या कर रहा है

तुम पाओगे
घने कुहरे की ओट लेकर
वह तुम्हारे भय और चीख़ की भाषा में धकेल रहा है—
अत्याचारी के पक्ष में बारीकी से गढ़ा
एक मीठा गीत

वह उतरा हुआ है गहरे
तुम्हारे इरादों के तल में
और उसे ला रहा है अत्याचारी के और ज़्यादा क़रीब

अत्याचारी से ज़्यादा सतर्क रहो उससे!

सतर्क रहो उससे
कि वह तुम्हारी रोटियों पर छाप देना चाहता है
अत्याचारी का चेहरा
तुम्हारे ख़ून से निकाल कर लोहा
मिला देना चाहता है दुनिया की सबसे ऊँची मूर्ति के घुटनों में
और मामूली नाख़ूनों को राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल बनाकर
इस्तेमाल कर सकता है तुम्हारी हीं कराहों के ख़िलाफ़

मस्तिष्क के जंगल में
घूमते उस बहेलिए पर
तुम करते चले आए हो आँख मूँदकर भरोसा

सतर्क रहो उससे
बेहद सतर्क
कि नज़दीक भविष्य के झुरमुट में छुपी
तुम्हारी असंदिग्ध हत्या पर
वह लगा चुका है सट्टा।

सिटकॉम देखते हुए

यह जानते हुए कि
इन दिनों
हँस सिर्फ़ वही रहे हैं
जिनके हाथों में है ख़ंजर
जो अभी-अभी आए हैं कुछ तोड़कर
जिनकी आस्तीन में लगे हैं ताज़े ख़ून के दाग़!

एक कँपकपी दौड़ जाती है मेरी रीढ़ में
जब अचानक नेपथ्य से आती है
एक साथ बहुत से लोगों के हँसने की आवाज़।

भैंसें

उन्हें इस बार
काले और भूरे के
परे देखा जाए

किसी दुपहर पाया जाए
पानी के बाहर
और चौंका न जाए

ज़रूरी नहीं
खुरदरी पीठ पर चढ़ा
एक दुबला बच्चा
हाँक रहा हो उन्हें—
गाँव-डगर वन-प्रांत
चौर-पथार धूल-रेती

वे चली आ रही हैं दूर
बहुत दूर उस छोर से जहाँ शुरू होते हैं दिन
जहाँ शुरू हुई होगी दुनिया एक दिन
उनके खुर के निशान को बनाया जाए लीक
उनके साथ चला जाए
उनके साथ चला जाए वहाँ तक जहाँ से
फिर शुरू की जा सकेगी दुनिया एक दिन

दुधारू होना न बने अधीनता का कारण
घंटियाँ तब भी बाँधी जाएँ जब थन न हों भारी
संगीत विद्यमान रहे
वाद्य-यंत्रों और गीले गलों में
बीन बंद
सपेरों की झोलियों में

मुहावरों पर आँख मूँदकर
भरोसा करते जाना
ग़लत साबित हो चुका है
इसलिए मैं चाहता हूँ
दुनिया कोशिश करे उन्हें पाने की
बिना लाठी के अबकी बार।

छाते की दुकान

छाते की दुकान पर
पहुँचा आदमी
मौसम का हरकारा है
कशमकश भीड़ के बीच भी यहाँ
एक और छाते के खुलने लायक़ जगह
हमेशा बची रहती है
जैसे डाकख़ानों में बची रहती है
एक और चिट्ठी की गुंजाइश
दिन के किसी भी पहर

छाता खोलता आदमी
संभावना खोलता आदमी हो सकता है
मरम्मत के लिए रखे एक पुराने छाते की पीठ पर
पढ़ा जा सकता है
पिछले मौसमों का निचोड़

एक आसमानी छाता
लोहे की कमाची पर अटका आसमान का टुकड़ा
बारिश में चलते काले छाते
बादलों के असंख्य पोरों से रिसती नदी पर तैरती काली नावें
स्कूली बच्चों की
सतरंगी छतरियाँ
इंद्रधनुष हो जाने का चंचल आग्रह

जेठ-भादों की विदाई पर
बाज़ार के कोने में खिसक जाने वाली छाते की दुकानें
मौसमों की भाषा में
प्रतीक्षा का अनुवाद हैं

और वक़्त-बेवक़्त आदमी को
धूप और बारिश में पनाह देता छाता
पेड़ हो जाने की कामना
छाते की दुकान—
एक नहीं रोपा गया जंगल।

सुरक्षा

वह हमेशा से ही
इस शहर की दीवार पर टँगी
जगह-जगह से उधड़ी
एक इश्तिहार थी
फड़फड़ाती हुई

मगर
अभी-अभी
इधर से गुज़रे एक शोहदे का
सरेआम
उसके बीचों-बीच थूक कर
यूँ बेसाख्ता आगे बढ़ जाना,
उसे और फूहड़ बना गया।

रात एक जगह है

रात!
रात उठ रही है
दूर-दूर तक फैली
सदियों पुरानी रात!
रात के भीतर नया-नया मैं
कितना अधिक नया
इस आदिम रात के भीतर

रात के भीतर
रेलगाड़ियाँ निकल रही हैं—
कहीं से कहीं के लिए
कुछ देर बाद गुम हो जाती रोशनियों-आवाज़ों के साथ

रात उठ रही है
कुएँ में आवाज़ की तरह
फूस के छप्पर की तरह दुनिया की नींद में
बिस्तर के सिरहाने रखे पानी के बर्तन में
धान के गंध की तरह
उठ रही है रात

मछलियों की दुनिया में रात एक पक्षी है
मेमनों की स्मृतियों में ओस भीगी टोकरी
चापाकल के ऊपर अमरूद का अँधेरा
माल-जाल सुस्ताते
चभलाते लुच-पुच समय की डार
रात के भीतर सब कुछ इतना थिर
इतना थिर
इतना
कि हिल रही है सिर्फ़
सिर्फ़ सघन रात!

रात के बाहर
बस पेड़ की जड़ें हैं—
उतरती गहरे ज़मीन के अंदर
अँधेरे में बढ़तीं, ढूँढ़तीं पानी
अँधेरे में बढ़ते हुए बढ़ती है रात
वह हमारा यक़ीन है
पुरखों की धरोहर
रात एक जगह है—
नक़्शों के बाहर

फूस के छप्पर पर
कद्दू की लतर से लगकर
चमकता है नए-नए सितुए-सा चाँद
रात के अंदर
ख़बरें छपती हैं
ख़बरों के अंदर लगती है सेंध
पर इनसे दूर बाँस के जंगल में नए बिरवे-सी कोमल
उठ रही है आदिम
आदिम रात।

रात एक दुनिया है—
दुनिया के भीतर।

काँख

काँख मेरे शरीर में अँधेरे की मुख़बिर है, गीला अँधेरा
कुएँ से झाँकता है

कुएँ में झाँकना धरती की काँख में झाँकना है
आईने में काँख देख रहा आदमी,
आईने में काँख देख रहे आदमी का चित्र देखता है

मेरी काँख देखने की स्मृतियाँ, काँख छूने की
स्मृतियों से लदी हुई हैं
छूना अँधेरे के व्याकरण में देखने का पर्याय है

मैं एक बार काँख के बारे में सोचते हुए सो गया
मेरे सपने तितलियों की जगह वैसाखियों से भर गए

मैं एक बार तितलियों के बारे में सोचते हुए सोया
वे मेरे सपनों में डेओड्रेंट्स छिड़कते पाए गए

मैं एक बार डेओड्रेंट्स के बारे में सोचते हुए सो गया
वे मेरे सपनों में चमकीली लड़कियाँ धकेलते पाए गए

मुझे एक बार साबुन, तेल, सीमेंट, अंडरवियर और प्लाईवुड के बारे में सोचते हुए नींद आई
वे तब भी मेरे सपनों में चमकीली लड़कियाँ धकेल रहे थे

मैं कभी वैसाखियों के बारे में सोचते हुए नहीं सोया
वैसाखियों के बारे में सोचने वालों को नींद नहीं आती

प्यास के बारे में जीभ से ज़्यादा काँख के बयान पर भरोसा कीजिए
वहाँ पानी अभी भी ब-मुश्किल पहुँचता है

और हाथ और हृदय के बीच
इस काली गहरी अँधेरी जगह की अहमियत कवियों से नहीं
बल्कि उन निहत्थे लोगों से पूछिए
जो सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी
तनी हुई रायफ़लों के आगे दोनों हाथ हवा में उठाए खड़े हैं!

इस वक़्त दुनिया को रुक जाना चाहिए

एक औरत का भयाक्रांत चेहरा
समूची धरती का कटा-फटा पिलपिला मानचित्र है
ऐसे वक़्त में दुनिया को रुक जाना चाहिए

बेबस बिलखते बाप को देखते मासूम बच्चों की आँखों में
अंधा होकर डूब सकता है चमचमाती सभ्यताओं का अश्लील सूरज
ऐसे वक़्त में दुनिया को रुक जाना चाहिए

धरती पर गिरी आँसू की बूँदें
धरती पर बहती नदियों को कर देती हैं खारा

धरती पर गिरा गोली का छर्रा
लौटता है दाँतों के बीच अन्न के कौर के साथ

धरती पर टपकी ख़ून की बूँदें
मदहोश तटस्थताओं की नींद में
घुसती हैं बनकर गाढ़ा लावा

ऐसे वक़्त में दुनिया को रुक जाना चाहिए!

रुक जाना चाहिए
रोटियों और इमारतों की तामीर में हलकान हुए खुरदुरे हाथों को
सरहदों की पहरेदारी में तैनात पाँवों को
बाज़ारों में शोर
कारख़ानों में धुआँ
मुँह की तरफ़ बढ़ा हुआ निवाला हवा में!
रुक जाना चाहिए
गुलाब की लाली
माथे का पसीना
धूप की सोहबत में पकते फलों को

वैश्विक शांति के जाली उपक्रमों
और चमचमाती रोशनी में बजबजाती बहसों को रुक जाना चाहिए!

दरअसल,
धरती को अपनी धुरी पर
और सच्चे आदमियों की धमनियों में
रुक जाना चाहिए रक्त
इस वक़्त!!

महामानव होने की तमाम परिभाषाओं में लालायित अपना उल्लेख ढूँढ़ते राष्ट्रध्यक्षों को
खोल देने चाहिए दरवाज़े और सरहदें—
ज़िंदा रहने की जद्दोजहद में मर रहे लोगों के लिए
सभ्यतागत विकास की तमाम उपलब्धियों के बाद भी
तलवे भर सुरक्षित ज़मीन के लिए
दौड़ते हवाई जहाज़ों से लटके मनुष्यों के दौर में—
कैसे सो पाएगी दुनिया दोनों ध्रुवों के बीच?
कैसे देख पाऊँगा मैं अपने बच्चों की आँखों में?
कैसे छू पाउँगा माँ की बूढ़ी हथेली—
पानी का एक गिलास
गेंदें के पीले फूल
कैसे रोक पाऊँगा ख़ुद को फूट-फूटकर रोने से?
कैसे लिख पाएँगे कवि प्रेम में पगी कविताएँ?

रात भर गली में गूँजती है काबुलीवाले की आवाज़!

करुणा की लहूलुहान पीठ पर मरहम लगाना ही इस वक़्त एकमात्र धर्म बचा है
ईश्वर कहीं बचा है तो
दया और मदद की गुहार लगाते गलों में है

ऐसे वक़्त में दुनिया को रुक जाना चाहिए
निकलना चाहिए मनुष्यों को अपने-अपने पूजाघरों से
और बचा लेना चाहिए असहाय ईश्वरों को
तपते रेगिस्तान में
नुकीले काँटों के बीच।

विलाप-1/मई

व्यवस्था संक्रमित है
और संक्रमण नई व्यवस्था!

लोग हरियाली की तरह घटते जा रहे हैं
और श्मशान निगल रहे हैं दीमकों से ज़्यादा लकड़ियाँ!

नदी के सीने पर मछलियों की जगह लाशें हैं
और देश के डोम व्यस्त हैं देश के प्रधानमंत्री से ज़्यादा!

आँकड़ें अग़वा कर लिए गए हैं और यह ख़बर
पढ़ी जा सकती है पेशाबघरों की दीवारों पर
जहाँ स्वास्थ्य मंत्री मूत के छींटों से
बचा रहे हैं अपनी चप्पलें!

हत्याएँ आपदाओं के वस्त्र पहनकर लेट गई हैं
और हत्यारे सिखा रहे हैं अवसर की उपयोगिता!

नींद खिड़की से कूदकर ख़ुदकुशी कर चुकी है
अब रात भर भिनभिनाती हैं चिंताओं की मक्खियाँ!

ईश्वर कुछ देर पहले केले के छिलके पर फिसलकर गिर गया है
और लहूलुहान अपना चेहरा लिए
भाग रहा है साँस-साँस
एम्बुलेंस के पीछे
और मैं अपनी सूजी आँखें लिए
ढूँढ़ रहा हूँ एक कोना
कि रोने की जगहें कम पड़ रही हैं
और रोने की वजहें ज़्यादा!

विलाप-2/जून

उपलब्धि की तरह आती है
एक-एक साँस
कविताएँ विलाप की तरह!

मन की भीत पर छिपकलियों की तरह रेंगती हैं दुश्चिंताएँ
गर्म और उदासीन रेल के पहियों-सा
धड़धड़ाता निकल जाता है सूरज!

दुःख धीरे-धीरे सरसराता है
सफ़ेद झाग छोड़ता
पागुर करता है डर!

साइकिल के चक्कों में हवा भरते-भरते
फफक-फफककर रोने लगता है एक बच्चा
एक स्त्री रिक्शे में मृत बेटे का शरीर लिए
लगाती है किसी को फ़ोन
कविता दर्ज नहीं कर सकती
उसकी आगे की बातचीत!

जिस नदी के कछार में बीते बरस
तरबूज़ और परवल उगते थे
इस बार पहली बारिश के बाद
वहाँ उभर आई हैं लाशें!

इन दिनों
मौत मेरी बस्ती में
फीके अड़हुल का गाछ है बारामासा
हर सुबह खिला मिलता है—
अपनी क्रूरता में आदिम!


यहाँ प्रस्तुत कविताएँ ‘सदानीरा’ को इस कवि-पत्र के साथ प्राप्त हुई हैं :

मेरा नाम सौरभ कुमार है। मैं बेगूसराय (बिहार) का निवासी हूँ। उम्र 28 वर्ष है, पिछले कुछ वर्षों से बैंगलोर की एक Edu-tech कंपनी में प्रोडक्शन मैनेजर का काम करता हूँ।

मेरी रुचि साहित्य, थिएटर और फ़िल्म-निर्माण में है। हिंदी भाषा और कविता के प्रेम में हूँ। मेरी साहित्यिक समझ सीमित और नई है। गंभीर साहित्य से अभी भी अवगत होने की प्रक्रिया में ही हूँ। पिछले कुछ ही सालों से कविताएँ लिख रहा हूँ। कम कविताएँ ही हुई हैं और कविता लिखना एक बेहद निजी और पीड़ादायक काम लगता है। जो भी कुछ कविताएँ संभव हुई हैं, वे मेरी राजनीतिक चेतना (जो रोज़ विकसित हो रही है) की उपज हैं। वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक परिवेश और पॉवर डायनामिक्स में जो मैं कहना चाहता हूँ, वह कविताओं के ज़रिए ही संभव है; इसलिए कविता लिखता हूँ।

एक-आध छोटे-मोटे आयोजनों और दोस्तों के आलावा किसी पत्र-पत्रिका में मेरी कविताएँ नहीं छपी हैं और थोड़े डर और झिझक के कारण मैंने अभी तक कविताएँ कहीं भेजी भी नहीं हैं। सोशल मीडिया कविताओं का प्रोडक्शन-हाउस हो चला है और प्लास्टिक कविताओं की भरमार के बीच अपनी रचना साझा करने से पहले संदेह से घिर जाता हूँ।

अतः थोड़े संकोच और बहुत हिम्मत के साथ ‘सदानीरा’ के लिए कुछ रचनाएँ संलग्न कर रहा हूँ। अगर यह कुछ कह पाती हैं तो ठीक नहीं तो ऊपर लिखा परिचय बस यूँ ही होगा।

सौरभ कुमार से saurabh.jnvs@gmail.com पर बात की जा सकती है।

1 Comment

  1. Sumit Tripathi अक्टूबर 1, 2021 at 5:08 अपराह्न

    कविताएँ युवा हैं, उनमें दृष्टि है और वे संभावनाओं से लबरेज़ हैं। कवि और सदानीरा दोनो साधुवाद के पात्र हैं।

    Reply

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