कविताएँ ::
सुमेर
भ्रष्ट होती दृष्टियों के नाम
खिड़की के पुराने पड़ चुके काँच से वह ख़ुद को देख रहा है
उसे दिखता है एक विद्रूप, दाग़दार, कटा-फटा चेहरा
वह सिहर उठता है
ये उसी का चेहरा है या कि काँच के मैलेपन के कारण दिखाई दे रहा है ऐसा।
वह डरकर काँच को किनारे सरका देता है
खिड़की से बाहर एक अलग दुनिया है
एक साथ विद्रूप और सारंग दिखाई देती दुनिया
एक साथ कोई विद्रूप और सारंग कैसे हो सकता है?
शायद समझ की उम्र के इस तीसरे पड़ाव में घुसते हुए दुनिया ऐसी ही दिखाई देती है।
दुनिया को सहज दृष्टि से देखना ज्यों छूटता जाता है दृष्टि उतनी ही भ्रष्ट होती जाती है
दूर एक पेड़ के नीचे बिल्ली बैठी है
हवा से ज्यों-ज्यों पेड़ की डालें हिलती हैं बिल्ली पर पड़ती धूप और छाँव बदलती रहती है
अचानक हवा रुक जाती है और बिल्ली धूप से निकलकर छाँव की तलाश में कहीं ग़ायब हो जाती है।
जाती हुई बिल्ली को देख लगता है जैसे जीवन की धूप से डरी हुई सहजता निकलकर कहीं ग़ायब हो रही है।
उम्मीद के भरोसे
समंदर किनारे की टिमटिमाती रोशनियाँ देखते हुए एकबारगी लगता है कि यह शहर कोई उम्मीद है
इसी उम्मीद के भरोसे मैं रोज़ाना दरकिनार करता हूँ इस शहर की सारी विद्रूपताओं को।
किसी दुपहर शाम के इंतज़ार में टेबल पर कोहनियाँ टिकाए देखता रहता हूँ लोगों को
सोचता हूँ कि ये लोग सच में कोई लोग ही हैं क्या?
क्या मैं जाकर इनमें से किसी से पूछ सकता हूँ कि तुम्हारे पास माचिस है क्या?
पर इन लोगों के कपड़े इतने साफ़-सुथरे और बिना सलवटों के हैं कि डर लगता है
मेरे पूछने भर से कहीं इनके कपड़ों में हल्की-सी भी क्रीच न पड़ जाए।
शाम को जब दिन लौट रहा होता है तो मन करता है अपने पाँवों को भिगा लूँ
पर पानी का रंग देखकर मैं दस क़दम पीछे आकर खड़ा हो जाता हूँ
किनारे तक पहुँचते पानी को देखकर लगता है कि
इस समंदर का यह किनारा भी इस देश के लोगों के दिल की तरह ही हो चुका है!
नाउम्मीद होकर जब मैं क़दम पीछे भरने लगता हूँ
मुझे फिर से टिमटिमाती रोशनियाँ दिखने लगती हैं।
स्थगित हो चुके दिन
कैसा होता होगा स्थगित हो जाना?
ठहर गए हैं दिन जो चल रहे थे
ठहर गए हैं मौसम जो हुआ करते थे
ठहर गए हैं रास्ते जो कहीं जाते थे।
कैसा होता होगा जीवन का रंगहीन होना?
खो चुके हैं रंग आसमान के
खो चुका है हरापन पेड़ों का
खो चुकी है रोशनी दीवारों पर से।
कैसा होता होगा मुड़कर देखना?
छूट चुके हैं लोग जो साथ थे
छूट चुकी हैं विचारधाराएँ जो ओढ़ी थीं
छूट चुका है प्रेम जो चाबी था
छूट चुका है घर जिससे जीवन था।
स्थगित हो चुके इन दिनों में
मिलने वाले अजनबी पूछते हैं एक ही सवाल
कि तुम्हारा चेहरा देखकर लगता है
ग़ायब हो चुके हैं रंग चेहरे के सारे।
सुमेर हिंदी कवि-लेखक और कलाकार हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व प्रकाशित उनकी रचनाओं के लिए यहाँ देखें : सबसे ज्यादा प्रेम उसने रास्तों से किया │ मैं मुझे ही देख रहा हूँ │ उदासियों से भर गए हैं बारिशों में धुले हुए दिन