कविताएँ ::
सुमित त्रिपाठी
सभ्यताएँ
सभ्यताएँ
पानी में छलाँग मारने से डरती हैं
किनारे से सटीं
प्रेम के प्रवाह में पग धरते
उनकी मीनारें काँप जाती हैं
जल पर आसक्त
शुष्क सभ्यताएँ
गढ़ती हैं सुंदर मूर्तियाँ
जो मछलियों की लोच से रहित हैं
वे जल पर फेंकती हैं
अपने कुशल जाल
और पाती हैं
सिर्फ़ मछलियों की मृत देह
अनंत जल पी कर
उनसे फूटता है
केवल मूत्र
कई सौ बरस मैले
पत्थर-पाँव और कुहनियाँ
धोने को झुकती हैं सभ्यताएँ
फिसल कर बह जाती हैं
आख़िर तक
जल की थाह
वे नहीं पातीं
प्रार्थनाएँ
ईश्वर बूढ़ा होता है
भूलता है
कि उसने एक दुनिया बनाई
सुस्त मोची या दर्ज़ी की तरह
टाँके लगाना
उसे याद नहीं रहता
प्रार्थनाएँ
उसे घेरती हैं
वह सिर्फ़
एक उच्छ्वास भरता है
चिड़िया
मेरे माता-पिता के दाहिने कंधे
एक चिड़िया बैठी हो
यह मैं चाहता हूँ
माँ-बाप लड़ते हैं
बातें करते हैं
चिड़िया नहीं आती
अच्छा है वे नहीं जानते
व्यग्र हो कर नहीं देखते
मानो समय ही समय हो
चिड़िया को भी नहीं पता
उसे दाहिने कंधे बैठना है
समस्त आकाश को अपना जान
वह उड़ती है
मानो समय ही समय हो
मैं चिड़िया को बता देना चाहता हूँ
मेरे माता-पिता के दाहिने कंधे
उसके बैठने की जगह ख़ाली है
मै उन्हें भी कह देना चाहता हूँ
कि चिड़िया आए
तो उसे बैठने दें
मैं लिखता हूँ
मानो समय ही समय हो
हवा
जब वह ठहर जाती है
क्या तब तुमने हवा को देखा है
बिना अपने आसमानी वस्त्र के
तब वह चाहती है
तुम उसे छुओ
पेड़ों और चट्टानों से बच कर
वह उदास प्रेयसी
बैठ जाती है तुम्हारे पास
अपने शरीर पर
हवा का वह स्पर्श
क्या तुम पहचान सकते हो
बच्चा
वह उनमें
रंग ढूँढ़ता है
गंध सूँघता है
पर शब्द
मुर्दों की तरह
काग़ज़ पर अकड़ गए हैं
वह उनसे
कंचों की तरह
खेलना चाहता है
पर शब्द
मंद-बुद्धि भेड़ें हैं
जिन्हें व्याकरण का चरवाहा
हाँकता है
भात
हम भात पकाते हैं
सभी-सभी दिनों में
ख़ूबसूरत-ख़ूबसूरत दिन—
यह भी
मरने का दिन हो सकता है
भीना-भीना
मीठा भात
खा कर मरो
तो ही अच्छा
भिक्षुणी
एक लाल बत्ती पर
एक आत्मा
अनित्य हाथों को
अनंत फैलाए
अव्यक्त है
आत्मा अजर है
अमर है
वह ढीठ है
बेशरम है
तीन प्रेम
पहला प्रेम
प्रेम की कठिन परीक्षाओं के लिए
मैं ज़रा सुस्त और काहिल हूँ
प्रेम को चाहिए एक घोड़ा
या खेत जोतने वाला बैल
हर दम चाबुक लिए
वह सिर पर सवार है
मैं कोई घोड़ा नहीं
और अगर हूँ भी
तो प्रेम मेरी सवारी क्यों करे
दूसरा प्रेम
प्रेम के हाथ में
तलवार भी होती है
वह तुम पर
अपनी धार सही करेगा
चाहो न चाहो
वह तुम पर
कुछ उकेर देगा—
कोई फूल
कोई मंत्र
कोई शाप
तुम जैसे हो
वैसे ही निकल कर आओगे प्रेम में
अंतिम प्रेम
प्रेम की जगह
कुछ रख दो
ख़ाली पड़ी रही तो
चींटियाँ घर बना लेंगी
अपनी पुरानी क़मीज़ें
यहाँ तह कर दो
धूल के नीचे
वे सुरक्षित रहेंगी
अस्ल में धूल है प्रेम
जिसे तुम लापरवाही से झाड़ दोगे
सुमित त्रिपाठी की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। ‘सदानीरा’ को उन्होंने अपनी कविताएँ इन पंक्तियों के साथ भेजी हैं : ‘‘पढ़ने-लिखने में दिलचस्पी है। अपने बारे में कहने के लिए कुछ विशेष नहीं है। जो है, वो कविताएँ हैं।’’ उनसे timustripathi@gmail.com पर बात की जा सकती है।
bahut achchi kavitayen