कविताएँ ::
सुशीलनाथ कुमार

सुशीलनाथ कुमार

रोज़ाना

मैं रास्ता भूल गया हूँ
बरसों पहले घर से निकला था
मवेशियों को साथ लेकर
सालों से एक झोंपड़ी में रहता हूँ
आस-पास गाँव बस गया है
पास ही एक नदी बहती है
जंगल से निकलती हुई
जिधर सूरज डूबता है
मेरा कुत्ता रात गए उधर मुँह करके रोता है

मैं नित नए जतन करता हूँ
हर बार असफल होता हूँ
और चारपाई पर लेटे-लेटे
तारामंडल में कहीं गुम हो जाता हूँ

वापसी की कोशिश में
भूलने की प्रवृत्ति बढ़ रही है
मैं रोज़ाना उगते-ढलते सूरज को देखता हूँ
तारों की गति को निहारता हूँ
सब नियमित कारोबार की तरह
रोज़ाना वापस घर पहुँच जाते हैं
घास चरकर शाम में खूँटे पर वापस लौटे
मवेशियों की तरह

मुझे पता है
ध्रुव तारा उत्तर दिशा में निकलता है
भटके हुए को रास्ता दिखाता प्रकाशस्तंभ
पर मुझे स्थिरता में यकीन नहीं
और गतिशीलता हर बार मुझे भटका देती है!

वे और तुम

वे तुम्हें जीत के लिए उकसाएँगे
तुम्हारी सारी उपलब्धियों को दरकिनार कर देंगे

तुम हार जाओगे अपनी ही नज़रों में

वे कहेंगे परिस्थितियों के अनुसार निर्णय करने से
तुम कायर बन जाओगे

तुम जलती हुई आग में कूद जाओगे
अमर होने के लिए

वे राख बन चुके अस्तित्व की निरर्थकता पर हँसेंगे।

मैं सोचता हूँ

मैं पढ़ लेना चाहता हूँ
दुनिया की सारी किताबें, पत्रिकाएँ और अख़बार

किताबें मुझे ध्यान में लीन बुद्ध की याद दिलाती हैं
जिनका अनुसरण करने पर
मिलता है मध्यम मार्ग

अख़बार मुझे शहरी जीवन की तरह लगते हैं
अतिशय दौड़-भाग, थकान और नीरस व्यस्तता से भरे
उनका होना तभी तक है
जब तक उठ सकते हैं
हताशा और थकान से सने पैर

मैं सोचता हूँ कि कैसा होगा
अगर किसी दिन अख़बार थककर रुक जाएँ
और घुस जाएँ सदियों पुरानी किताबों की दुनिया में
क्या होगा
जब बुद्ध पुनः मिलेंगे
अपने पुराने पेशे में लौट चुके अंगुलिमाल से।

रचना

चाय की केतली के चारों तरफ़ बने पीले घेरे को बना रहने दो
चिपचिपाहट में चिपके होते हैं अंतर्मन के भाव

आषाढ़ की पहली बारिश में माटी की सौंधी ख़ुशबू
जब खोलती है दिमाग़ के पट
मानस के अंतस्तल में बैठा कोई वर्षों पुराना भाव
शब्दों को पहनकर बाहर आता है

बारिश में घर की कच्ची दीवार पर
पानी के साथ बहते हैं बिंब

दीवार पर जमी काई में उगती है कविता।

रास्ता

इंसान को दौड़कर नहीं पहुँचना चाहिए
किसी गंतव्य पर
सधे हुए क़दमों की गति तारतम्य देती है

रास्ते के पास होती है घास और असंख्य कंकड़-पत्थर
जिनकी पंचायत से चलता है रास्ता
हमें किसी की पंचायत में बाधा नहीं बनना चाहिए

रास्ते के साथ चलते हैं खेत, पोखर, जंगल और मैदान
मैदान में सिर्फ़ घास नहीं होती
वहाँ होते हैं कुछ खुरों के निशान और चहबच्चे

रास्ते के साथ-साथ चलते हैं गाँव, शहर और नदियाँ
नदियाँ जो देती हैं शहरों को जन्म
शहर जो देते हैं नदियों को मृत्यु
नदी और शहर की लड़ाई में
किसी रास्ते की पंचायत
एक नया रास्ता खोजती है
फिर बढ़ जाता है रास्ता
किसी नई सभ्यता की तलाश में।


सुशीलनाथ कुमार (जन्म : 1985) की कविताओं के प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। वह इन दिनों रचने के लिए रचने की प्रक्रिया पाने के दुर्निवार अभ्यास में हैं। वह संस्कृति, करेंट अफेयर्स टुडे पत्रिका के संपादक हैं। उनसे sushilnathkumar@gmail.com पर बात की जा सकती है। 

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