कविताएँ ::
उल्लास पांडेय
एक
हम परास्त होने लगे हैं
भीतर ही भीतर
इसलिए चिल्लाने लगे हैं
बंद घरों के बंद कमरों में अकेले।
कितना आसान था ढूँढ़ लेना
उस अँधेरे में
अपने भार, वर्ण और आकार की
एक मृत्यु!
मैंने अगर पकड़ ली होती तुम्हारी हथेली
उस वक़्त जाते हुए
तब शायद रोशनी की एक शहतीर ढूँढ़ने
निकल आता आज
बंदूक़ के सामने फैले इस वनैले सन्नाटे में।
परित्यक्त प्रतीक्षा गवाह है
वे सारे प्रेमी जो भाग नहीं सके
घर छोड़कर स्टेशन तक
मँडराते हुए चील के डैनों के साये में
मिटा रहे हैं आज़ादी का नाम
अपनी वसीयत से।
हमें ढूँढ़नी होंगी इस दुनिया की
खोई हुईं वे सारी माँएँ
जिन्होंने नहीं बताए अपनी औलादों को
उनके बाप के नाम।
उनके ही आँगन में मिलेगी
विलुप्त होते लोकतंत्र की आख़िरी किताब
वहीं अरगनी पर
खुले आसमान के नीचे सूख रहा होगा
दुनिया का बचा हुआ पौरुष!
दो
मैं वह हूँ
जो टकराकर उसके श्रुतिमूल से
मूर्च्छित हो गिर पड़ता है
और उलझ उसके नूपुर की मणिकाओं से
रम जाता है एक आकस्मिक आंदोलन में।
मैं वही हूँ
उसके उरों की उपत्यका में भटकती हुई
व्यथा की तरह विक्षिप्त!
मैं विरुदावली हूँ
उसकी बहती हुई अबाध्य पीड़ा की
उसकी आह के चिह्नों की
उसकी अनश्वर रिक्तता की।
और इसी दर्प में मैं
जीता हूँ
कि मैं कितना निकट हूँ
जैसे मरणासन्न में छुपी हुई
जीने की कोई आख़िरी इच्छा
नज़दीक होती है
चिता-अग्नि से…
तीन
तुम्हारा चुप रहना वैसा ही है
जैसे कर्फ़्यू से घिरा एक शहर
जिसके बीचोंबीच रिसता है
कोई ज्वलनशील पदार्थ
और मेरा चैन-ओ-अमन किसी विस्फोट के
हाशिए पर खड़ा है।
तुम्हारा चुप रहना वैसा ही है
जैसे तोड़े गए मंदिरों की स्खलित शिलाएँ
या गिराए गए मस्जिद का टूटा हुआ वह गुम्बद…
लेकिन मैं लिख रहा हूँ एक-एक क्षण
जैसे कि भरती जा रही है इतिहास की मोटी किताब,
और यह धू-धू कर जलता मेरा मन
वैसा ही है
जैसे संविधान के बिना कोई देश।
मैं कब से खड़ा हूँ दरख़्तों की तरह सुतवाँ
तुम्हारी आवाज़ की एक गूँज के लिए
मैं कब से तलाश रहा हूँ एक लम्हा दीद का
जैसे अमन ढूँढ़ता है कोई
पथराव और पेलेट गन के बीच।
उल्लास पांडेय (जन्म : 1987) भारतीय प्रोद्यौगिकी संस्थान, हैदराबाद में शोधार्थी हैं। उनकी कविताएँ कहीं प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। उनसे pandeyullas@gmail.com पर बात की जा सकती है।