कविताएँ ::
विहाग वैभव
हलफ़नामा
प्रेम में हम उतना ख़ुश नहीं रहे
बिछोह में झेली जितनी पीड़ा
अब बीता हुआ प्रेम
पुश्तैनी क़र्ज़ का दुःख है
समय के साथ बढ़ता ही जाता
मूल से अधिक चुकाया है सूद।
प्रेम का अर्थशास्त्र
जितना हो तुम्हारे पास
उससे कम ही बताना सबसे
ख़र्च करते हुए हमेशा
थोड़ा-सा बचा लेना
माँ की गुप्त पूँजी की तरह
जब छाती पर समय का साँप लोटने लगेगा
हर साँस में चलने लगेगी जून की लू
और तुम्हें लगेगा कि
मन का आईना
रेगिस्तान की गर्म हवाओं से चिटक रहा है
तब कठिन वक़्तों में काम आएगा
वही थोड़ा-सा बचा हुआ प्रेम।
सपने की मुश्किल
मेरे सपने में एक नाव थी
जिस पर सवार होकर
मैं तुम्हें भगा ले जाता था
पर हर सपने की एक ही मुश्किल थी
किनारे लगने के पहले
नींद टूट जाती थी
नाव डूब जाती थी।
तुम स्मृति में आईं
नेह जगत का जादू जागा
तुम स्मृति में आईं
अपनी ही आँखों को देखा
ख़ुद को ही आवाज़ लगाई
अपने को ही छूकर जाना
तुम न बदलीं
वही प्रणय की कातर इच्छा
वही सुखों पर करुण हँसी
वही अनागत प्रलय की छाया
सारे तन पर रची-बसी
तब भी मुझको छेड़ रही थी
मेरी ही परछाई
नेह जगत का जादू जागा
तुम स्मृति में आईं।
कल्पवृक्ष
बचपन में माँ ने
एक पेड़ की कहानी सुनाई थी
कहती थी उसके नीचे खड़े होकर
जो भी माँगो
वह दे देता है
पानी और पहाड़ और उम्मीद पर चलकर
मैं उस तक पहुँचा
पूरी आस्था से पुकारता हूँ तुम्हारा नाम
एक पत्ता तक नहीं खटका
एक चिड़िया को अँगड़ाई तक नहीं आई
अब एक दुःख पर चढ़ता है
दूसरे दुःख का पानी
तुम गईं तो गईं
झूठ भी निकली माँ की कहानी।
मैं अपना प्रेम कहीं रखकर भूल गया हूँ
मैं अपना प्रेम कहीं रखकर भूल गया हूँ
उसे ढूँढ़ने में ज़रा मेरी मदद करो
नींद का बोझ लिए
धान के तीसरे पानी के लिए
खेत की तरफ़ जाती हुई
आँखों से पूछकर आओ
वहाँ, उस इंतज़ार के दिल में झाँको ज़रा
जिस पर नाउम्मीद मुस्कुराहटों की धूल जमी हुई है
समय की उस अलमारी के ऊपर देखो
जहाँ एक बच्चा
माँ की परेशानी से परेशान होकर
आत्महत्या के बेहतर विकल्पों की तलाश कर रहा है
बहुत चौड़ी नहीं है उम्र की नदी
उस पार देख आओ
जन्नत के दरोग़ा को
ललचाती हुई शाम की ओट में
वहीं छोड़ तो नहीं आया मैं अपना प्यार
स्मृतियों के तख़त से
वह चादर झाड़कर देखो
जिससे अब भी अंतिम प्रणय के
आँसुओं की गंध आ रही
कहीं कल शाम उसकी डाल पर
टाँग तो नहीं आया मैं
उस रुलाई के फूल के पेड़ पर देख आओ
जिसकी जड़ नींद तक जा पहुँची है
देखो माँ से न कह देना कि
मैं अपना प्रेम कहीं रखकर भूल गया हूँ
माँ मारेगी मुझे
बस उसे ढूँढ़ने में तुम मेरी मदद करो
दुःख का दरवाजा खोलो
करुणा के कमरे में देखो
हँसी हटाकर झाँको
सपनों की तलाशी लो
कहीं न मिले तो
आज ही थाने में जाकर
रपट लिखा दो कि
मैं अपना प्रेम कहीं रखकर भूल गया हूँ
और अब उसे पाने वाला
उसका ग़लत इस्तेमाल कर रहा है
साँस, अन्न, जल और नींद के बिना तो
फिर भी मुमकिन है कुछ जीवन
प्रेम के बग़ैर
भला कोई कैसे जी सकता है
एक भी क्षण?
तीसरा दुख
यह मन है
कि मोम की बनी हुई म्यान
दोधारी तलवार की
मैं किसी को नहीं समझा सकता कि
तुमसे अलग होना
और तुम्हारे साथ न रह पाना
दो अलग-अलग दुःख हैं।
तुम्हारी चाह की हूक
वह किसी मजूर घर के
सबसे कमाऊ व्यक्ति के
मौत की ख़बर से उठी
सामूहिक चीख़ की तरह
रह-रहकर मेरे सीने में उठती है
आत्मा की धरती पर
धम्म से बैठ जाती हैं साँसें
खड़ी फ़सल पर झटके से चढ़ी
बाढ़ की तरह आती है तुम्हारी याद
माँ का हाथ पकड़े हुए ट्रेन की चपेट में
आ गए एक बच्चे की देह की छटपटाहट से
आँखों में उभरता है तुम्हारा चेहरा
कोई पानी लगा पुश्तैनी पेड़
अरअरराकर टूटता है भीतर ही भीतर
जब भी आता है
किसी ज़ुबान पर तुम्हारा नाम
मजूर की मौत,
झटके से चढ़ी बाढ़
पुश्तैनी पेड़ या बच्चे का कटना
रेल की पटरी पर
तुम इन्हें कविता मत समझना
आए दिन
यह सब इसी देह में सच होते हैं
तुम थीं तो करुणा के कंधे भी थे
अब दुख ज़्यादा है, कम रोते हैं।
कितने फूल थे
कितने फूल थे
जो तुम्हारे जूड़े के लिए तरसते रहे
और दूर कहीं पहाड़ी जंगलों में
लावारिस मारे गए।
विहाग वैभव की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह चौथा अवसर है। इस अवसर में उनके क़दम उनकी अब तक की कविता-यात्रा में एक नई भूमि पर हैं। विहाग के पहले कविता-संग्रह की प्रतीक्षा हिंदी की फ़िलहाल सबसे प्रासंगिक प्रतीक्षा है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ-यहाँ देखिए : इतिहास हत्यारों के दलाल की तरह सच छुपाने का आदी है │ मनुष्य को उसकी प्राथमिकताओं से पहचानता हूँ │ मैं एक नहीं हुई कहानी का देश-काल हूँ
खड़ी फ़सल पर झटके से चढ़ी
बाढ़ की तरह आती है तुम्हारी याद
Wah
बहुत सुंदर लिखते हैं सर आप
बहुत खूब।
बहुत सुंदर कविताएं हैं। विहाग को शुभकामनाएं।