कविताएँ ::
विहाग वैभव
शैली
मैं जीवन को
ऐसे जीना चाहता हूँ
जैसे मेरे कवि ने
जी है भाषा
कोई भी एक शब्द उठाकर
उससे बनाया सुंदर वाक्य
और ध्वनियों को बनाए रखा हमेशा—
अर्थवान, न्याय, समानता और प्रेम का पक्षधर।
और फिर एक दिन
क्या आपको वह कहानी याद है
जिसमें एक मज़दूर ने ख़्वाब में
राजा का मुकुट अपने सिर पर देखा था
वह भी सिर्फ़ इसलिए कि कभी उसने एक लड़की को
रानी बनाने का वादा दिया था
लेकिन जब वह नींद से जगा तब उसका कटा हुआ सिर
क़स्बे के बाज़ार में कौड़ियों के भाव बिकने के लिए रखा हुआ था?
मैं जानता हूँ—आपको नहीं याद है
क्योंकि ऐसी कोई कहानी कभी थी ही नहीं
पर यह सोचना एक साथ दिलचस्प और बेचैनी में डुबोकर मार देने वाला है
कि जो कहानियाँ कभी नहीं हुईं उनके पात्र आख़िर कहाँ गए
मसलन एक नहीं हुई कहानी का पात्र
जिसकी प्रेमिका को सभ्यता की बाज़ारू रस्मों से बाँधकर मार दिया गया
वह इन दिनों कैसा जीवन जी रहा होगा
या जीवन उसे कैसे जी रहा होगा
क्या उसके सारे संत्रास शब्दों तक पहुँच पा रहे होंगे?
क्या उसकी सारी रुलाइयाँ…
एक मल्लाह की वह नहीं हुई कहानी
जिसमें उसकी बेटी और पत्नी और भाई एक साथ नदी में डूब गए थे
और वह सिर्फ़ अपनी बेटी को बचा पाया था
एक को बचा लेने के संतोष को दो को न बचा पाने की पीड़ा ने चबा लिया
और फिर तीसरी लाश उस मल्लाह की उठी
मेरे पास ऐसी कई कहानियाँ हैं जो कभी हुई ही नहीं
मल्लाह और मज़दूर लाशें और कटा हुआ सिर
इन बातों का सिर्फ़ इतना ही मतलब है—
और फिर एक दिन नहीं हुई कहानियों के सभी पात्र
अपने ही जीवन में सच होने लगते हैं
रंध्र महसूस करने लगते हैं ग्रहों की हर चाल
सभी पीड़ाएँ और अकुलाहटें जमा होने लगती हैं—
अपनी ही देह में
हड्डियों में इंतज़ार की चींटियों की चाल
जीवन को हलाल करने में कोई कसर नहीं रखती
रुलाइयों का एक पूरा ख़ानदान होता है
एक दुःख के लिए रोना शुरू करिए तो
आइसक्रीम की ज़िद करते बच्चों की तरह और दुःख कहने लगते हैं—
मेरे लिए, मेरे लिए
मुझे माफ़ करें
मैंने अपना तआरुफ़ नहीं कराया—
मैं एक नहीं हुई कहानी का वातावरण हूँ
जिसमें नायिका की चुप चीख़ों का सन्नाटा गूँज रहा है
मैं एक नहीं हुई कहानी में अचानक से हुई बारिश से बुझ गई मशाल हूँ
जिसके न होने से क्रांतिकारियों का एक दल दस्युओं से घिर गया है
मैं एक नहीं हुई कहानी का देश-काल हूँ
जो अपने ही भूगोल में भटक गया है
दरअसल, यह उस नहीं हुई कहानी की बात है
जिसका मैं बस एक पात्र हूँ
जिसे कभी कोई लेखक नहीं मिल पाएगा
जिसे भाषा कभी नहीं कह पाएगी
जिसे आप कभी नहीं सुन पाएँगे।
सभ्यता-विश्वविद्यालय का वह अवांछित
वह सभ्यता के दक्खिन से आया था
उसकी देह में एक जेल थी
जिसमें उसने ख़ुद को क़ैद कर रखा था
पूछने पर कहता कि उसकी माँ उसे जन्मते ही मर गई थी
इस तरह वह जन्मजात क़ातिल है
और माँ के क़त्ल के जुर्म में आजीवन सज़ायाफ़्ता है
उसकी आँखें बंद जेल की सलाख़ें लगती थीं
जिसमें से रिहा होने की अनिच्छा झाँकती रहती थी—
बदस्तूर
वह सभ्यता के दक्खिन से आया था
और विश्वविद्यालय में साहित्य का शोध-छात्र था
वह इतना शांत था कि दीवाल पर चलती हुई छिपकलियों की चाल सुन सकता था और पाकड़ के पत्ते को गिरता देखकर गिनकर बता सकता था कि कितने लहर में पत्ता जमीन पर गिर पड़ा… जीवन का ताप इतना अधिक था कि चूल्हे पर चढ़े चावल की भाप को सूँघकर वह बता सकता था कि भात होने में अभी कितना समय और है।
उसके कमरे में बहुत सारी किताबें थीं
उनमें भी इतिहास की किताबें सबसे अधिक थीं
मैं जब भी उससे मिलने जाता
वह मुझे इतिहास पढ़ता मिलता
और अगर मैं पूछता कि क्या पढ़ रहे हो
तो कहता कि गणित लगा रहा हूँ
वह इस क़दर शांत था कि कोई नहीं कह सकता था—
उसे भी कोई चिंता सता सकती है
पर मेरे जानिब कभी-कभी ऐसा भी होता कि
वह एक विक्षिप्त बेचैनी से उठता और सेल्फ़ में रखी
इतिहास की किताबें उलटने-पलटने लगता
फिर एक व्याकुल बड़बड़ाहट से इतना सुनने में आता कि
इन किताबों के कुछ पन्ने किसी ने फाड़ लिए हैं
जबकि मैं जाँचने पर पाता कि किताबें बिल्कुल सही-सलामत होतीं
वह कला और समाज पर बात करते हुए गिओर्गी प्लेखानोव को नज़दीकी रिश्तेदार की तरह याद करता और रोमन जैकोब्स्न या विक्टर स्लोव्स्की का नाम सुनते ही चिढ़ जाता। अम्बेडकर और मार्क्स से रोमानी रिश्ता था उसका पर सवाल उनसे भी करता था। वह भाषा के गिरते स्तर पर चिंतित होता और ग़ालिब को याद करता।
आप भी सोच रहे होंगे कि मैं उसके बारे में इतना क्यूँ बोले जा रहा हूँ
दरअसल, यह कविता नहीं; समाजशास्त्र का एक जटिल प्रश्न है, जिसे मैं हल करना चाहता हूँ
अभी पिछले दिनों की बात है—
मुक्तिबोध पर लिखा उसका शोध-प्रबंध
गुणवत्ता का हवाला देकर ख़ारिज किया गया
मैं ढाढ़स बँधाने की नीयत से उसके पास गया
उसने कुछ इधर-उधर की बातें कीं
और यकायक चुप हो गया
कुछ देर चुप ही रहा
फिर अचानक उसका चेहरा कोयले की भट्टी की तरह तपने लगा
क्रोध और कातरता में डूबी निगाहों से वह मुझसे मुख़ातिब हुआ—
‘‘यह कैसे हो सकता है भला! क्या मुक्तिबोध की कविताओं से निकल भागने की सज़ा एक मेहतर को इस तरह से दी जाएगी?
विहाग, फूको मुझे माफ़ करें पर मैं अगला शोध ‘पॉवर एंड नॉलेज’ पर करूँगा और पूरे पाँच सौ पेज की थीसिस मोड़कर फलाने प्रोफ़ेसर की गाँड में डाल दूँगा।’’
ग़ुस्से में यह सब बोलते हुए रुँधे गले भी उसने कठोर बने रहने की कोशिश की
पर पहले सिसकियाँ थीं फिर रुलाई की स्पष्ट ध्वनियाँ आईं
मेरे गले लगाते ही वह कुएँ में गिर गए बच्चे की तरह रोने लगा
उसकी चीख़ें इतनी लंबी थीं कि एकबारगी मुझे भ्रम हुआ कि
ये इतिहास की किसी सुरंग से आ रही हैं
यह कहना मुश्किल है कि वह क्यों रोया पर इतना तय है कि
ख़ारिज हुआ शोध-प्रबंध उस रुलाई की वजह नहीं था
हमने वह दिन साथ में बिताया :
चाय पी और दिन गुज़रने का इंतज़ार किया
थका सूरज अपने घर लौटा और मैं अपने घर
भूख थी पर अनिच्छा ने मेरे हाथ-पाँव बाँधे
उस रात सपने में कई आदमक़द चाक़ू आपस में लड़ते रहे
दुश्मन मोर्टार के मुँह पर बँधा एक इंसान प्रेम और मुक्ति के गीत गाता रहा
और एक कालयात्री बच्चा पिछली किसी सदी की युद्धभूमि में बैठकर करता रहा—
मृतकों की शिनाख़्त।
मंदिर के बारे में
एक
इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में
भव्य ऐतिहासिक राम-मंदिर बना था।
मंदिर ऐतिहासिक इसलिए भी था
क्योंकि न्यायालय ने भक्त की भाषा में कहा था कि
मस्जिद का जो भूगोल ढहाया गया
इतिहास में वह जगह एक मंदिर की थी।
बहरहाल, मंदिर बना और इस अदा से बना कि
बहुसंख्यक की सरकार ने बहुसंख्यक वोटों को स्थायी करने के लिए
श्री राम को शुक्रिया कहा।
बात इक्कीसवीं सदी की होती तो
राम के भाई पर हिरण मारने का मुक़दमा हो गया होता
और श्रीलंका की सरकार
हनुमान को आतंकवादी घोषित कर चुकी होती।
किंतु यह प्राचीन काल की बात थी
और अब तो बहुसंख्यक की सरकार भी थी।
पर हत्या तो आख़िरश हत्या होती है
चाहे प्राचीन काल में हो
चाहे उन्नीस सौ बानवे में
चाहे इतिहास की हो
चाहे भूगोल की
चाहे इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में
सफ़ेद कबूतर क़त्ल कर डाले गए हों
मंदिर की नींव और विधर्मियों की लाशों पर बनाया गया हो—
भव्य ऐतिहासिक मंदिर।
काल के आर-पार
अतीत की जय में
वर्तमान की पराजय में
मक़तूल की शिनाख़्त के पहले
हत्या आख़िरश हत्या होती है
जिसकी नैतिक सज़ा सुनाते हुए
हत्यारों को धकेल दिया जाना चाहिए—
मनुष्य योनि से बाहर।
दो
‘राम-मंदिर कितने में बना होगा’
से शुरू हुए पराग पावन के वाक्य को
‘बहुत मँहगा पड़ा होगा’
से कुमुद ने ख़त्म किया
मैं चूल्हे पर चावल चढ़ाते हुए सोचता रहा कि
आख़िर राम-मंदिर के लिए
इस देश ने सचमुच क्या क़ीमत चुकाई होगी?
हिंदुस्तान का ईमान?
हिंदुस्तान का चरित्र?
नागरिकों को धार्मिक कार्यकर्ता में बदल देने वाली व्यवस्था?
और एक देश के दिल में
भविष्य में दूर तक गंधाती रहने वाली लाखों लाशें?
लगभग मलाला के लिए
एक दिन यूँ ही बैठे-बैठे मलाला मुझे अच्छी लगने लगी
वक़्त चार साँस भी न लिया होगा
कि मैं मलाला के लिए रोने लगा
मलाला को जब गोली लगी थी तब मैं मुस्कुराया था
वक़्त की आरर डाल पर चढ़कर ख़ुद को हिलाता हूँ
तो स्मृतियों का यह तिक्त फल झड़ता है :
मेरे इंग्लिश-अध्यापक ओ. पी. राय ने
मेरी कच्ची उम्र में मुझसे कहा था—
‘‘ज़रा-सी गोली छू जाने से इतनी लोकप्रियता मिले तो मैं भी खा लूँ…’’
और मैं मुस्कुराया था
मैं जानता हूँ आज सालों बाद
अचानक यह कैसे हुआ कि
मलाला के सिर में लगी गोली का दर्द
मेरे मष्तिष्क में उतर आया
एक दिन उन सभी योद्धाओं का ख़ून और पसीना
अपनी ही देह में सच होने लगता है
जो गुजरे वक़्तों में हक़, न्याय और प्यार
जैसी अच्छाइयों के लिए लड़ते-मरते रहे
वे घृणा और शोषण और अन्याय के असली दुश्मन थे
वे आर.एस.एस. और तालिबानियों की असली मुश्किल थे
हत्यारों ने पढ़ने जाती लड़कियों के सामने हस्तमैथुन किए
गोबर और कीचड़ उछाला उन पर बंदूकें चलाईं
(यह सिर्फ़ हत्या के अलग-अलग हथियारों के बारे में है)
कच्ची उम्रों के मन में रोप दी गईं सनातन घृणाएँ
एक दिन समझ की तेज़ धार से बह जाती हैं
फिर एक दिन यूँ ही बैठे-बैठे उनका चेहरा
आँखों के सामने इस तरह झूलने लगता है कि
हम उन्हें याद करते जाते हैं
उन्हें प्यार करते जाते हैं
उनकी तरह होते जाते हैं
उनके लिए रोते जाते हैं।
विहाग वैभव सुपरिचित कवि-लेखक हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : इतिहास हत्यारों के दलाल की तरह सच छुपाने का आदी है │ मनुष्य को उसकी प्राथमिकताओं से पहचानता हूँ
बहुत अच्छी कविताएँँ हैं।
विहाग बहुत अच्छे कवि है ,उनकी कविताओं की आग ह्रदय में गहरे तक झुलसाती है ।
लिखते रहो कवि ,शुभकामनाएं