कविताएँ ::
पूजा जिनागल

पूजा जिनागल

मेमने की गंध

कितनी आत्मीय होती है मेमने की गंध
जब भी उसे बाँहों में उठाती हूँ
जेठ की लू में थपेड़े खाती
मेरी आत्मा को
बारिश की फुहार-सी लगती है उसकी गंध
उसके कोमल रोयों की अनंतता में से होते हुए
समा जाती है नाक के नथुनों में
और धीरे-धीरे उतर जाती है रक्त-शिराओं में
जो मनुष्य के रक्त की गंध में शामिल होकर
मिटा देती है अपनी भिन्नता

मैं सोचती हूँ
कहाँ से आती है यह गंध
जिसकी मौजूदगी से ही पैदा हुआ होगा
पहली बार दुलार मनुष्य के हृदय में

एक दिन मेरे पूर्वजों के
मौन संवाद ने मुझे बताया
यह गंध उन सभ्यताओं से आती है
जब मनुष्य ने भाषा नहीं सीखी थी
और नहीं सीखा था अलगाना
मनुष्य को मनुष्य से

जो लोग एक दिन चले गए

जो लोग एक दिन चले गये
भूख की आग के वश होकर
कमाने के लिए
असम या कलकत्ता
नहीं आए लौटकर उनमें से कई लोग
जिनको कलकत्ता और असम की स्त्रियों ने
बना लिया था भेड़
और गले में डालकर साँकल
बाँधे रखती थीं अपने पीढ़ा के पाये से
उनकी पत्नियाँ करती रहतीं उनकी प्रतीक्षा
वर्षों तक
और छत की मुँडेर से काले कौवे को उड़ाती रहतीं
जो उनके प्रिय के आने का शुभ संकेत होते थे
पर एक भेड़ बना व्यक्ति कैसे लौट सकता था
अपने देस
माँएँ अपने बच्चों को कहानी बतातीं
भेड़ बना लिए गए व्यक्तियों की
और हम बच्चे सचमुच डर जाते
कलकत्ता और असम की स्त्रियों से
जो हमें भी बहुत आसानी से बना सकती थीं भेड़
एक समय के बाद हम जान पाए
कमाने गए उन पुरुषों के बारे में
जो मुग्ध हो जाते थे
कलकत्ता और असम की
आधुनिक स्त्रियों की सुंदरता पर
और बसा लेते थे उनके साथ
अपनी नई दुनिया
बिना उस दुनिया की परवाह किए
जिसे वे काली कोसाँ छोड़ आए थे
उन पुरुषों ने छल किया
दो-दो स्त्रियों से
और कठघरे में खड़ा किया उन स्त्रियों को
जो उनकी सहचरी बनीं
और उनको जादूगरनी क़रार दिया

पगडंडियाँ

उन पतली पगडंडियों पर
हमारे साथ के पद-चिह्न
आज भी मौजूद हैं

एक ही छाते में
आधा-आधा भीगने का
पूरा सुख जीवंत है

तुम जानते हो
सभ्यताओं की शुरुआत से
कई पद-चिह्न
साथ-साथ चलते हुए आए

तुम जानते हो
आने वाली सभ्यताओं के पद-चिह्न
साथ-साथ चलते हुए आएँगे

जिन्हें कहीं पहुँचना नहीं है
उन्हें बस साथ-साथ चलना है

ये पगडंडियाँ
साथ चलने की साथी हैं

अकेलेपन में ये जंगल की पगडंडियाँ
तुम्हारे साथी को
तुमसे ज़्यादा करुणा के साथ पुकारती हैं
क्योंकि इन पगडंडियों का अकेलापन
सभ्यताओं का अकेलापन है

माघ की एक रात

माघ की उस ठिठुरती रात में
अगर तुम नहीं आए होते
वह लड़की कब की चली गई होती
ब्याह के कुएँ में
किसी पौरुषेय अहंकार के बग़ल में
तिर रही होती उसकी लाश

पर तुम आए
हमारे साथ की ख़ातिर
जबकि तुम जानते थे
अगर पकड़े जाते
मारा जाता एक और लव-जिहादी
फिर भी तुम आए

कुहरे से भरी रात में
कैसा तो वह घनीभूत आलिंगन था
जिसे महसूस करने में
काँपा था हममें
एक सुखद स्पर्श

जैसे भीषण गर्मी से तपती धरती को
शीतल जल मिला हो
जैसे एक लड़की के दहकते वर्तमान को
अनंत संभावनाओं भरा कल मिला हो

तुम्हारा स्पर्श

तुम्हारे स्पर्श की बौछारें
मेरे अंदर की घास को
ओस की तरह भिगाती हैं
और सिहरती हुई उतर जाती हैं
सीने के आर-पार
मैं पकड़ना चाहती हूँ उस सिहरन को
जो रेत की तरह मेरे हाथ से फिसलकर
तुम्हारी मुस्कुराहट में खो जाती है
जो दिखाई देती है
अगले ही क्षण तुम्हारी आँखों में
जिसे तुम स्वीकार करने से बचते हो

पिता

भरी दुपहरी में जब वह काम से लौटते हैं
उनके कपड़ों से पसीना पानी बनकर निचुड़ता है
हम दुपहर की नींद सो रहे होते हैं
और वह लौट जाते हैं काम पर वापिस
रोज़ की तरह
और यह वह सदियों से किए जा रहे हैं

सर्दियों में सीमेंट ने कर दिए हैं
उनके हाथों में छाले
जिनसे रिसते लहू में बह जाती हैं
न जाने कितनी ही वास्तु-कलाएँ

वह लोगों के लिए घर बनाते हैं
अपना घर बचाने के लिए
और इस तरह पिता…


पूजा जिनागल की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य की शोधार्थी हैं। उनसे jinagalpooja31@gmail.com पर संवाद संभव है।

1 Comments

  1. पंकज प्रखर अप्रैल 12, 2025 at 9:56 पूर्वाह्न

    यह काव्याभास से संक्रमित समय है। नीरस और बेहद उबाऊं, चलताऊँ पंक्तियों के लंबे शब्द समुच्चय के बाद कहीं-कहीं ढूँढने पर ब-मुश्किल एक पंक्ति काव्य सा!
    कवि इस काव्याभास के ‘स्वर्ण-छत्र-छाया’ में काव्य रचने का अभिनय करते हुए आधुनिक रहस्य जैसा, कभी समकालीन होने के जबरजस्ती स्वांग जैसा―कुछ करते हुए प्रतीत हो रही।

    हालाँकि कवि की कविताओं का यह प्राथमिक अवसर है तो पूजा जिनागल को शुभकामनाएं! वे अगली बार कवितातर हो कर लौटें।

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