कविताएँ ::
प्रकृति करगेती

प्रकृति करगेती

माँ का एकांत

एक फिसलती-सी
आशा है ख़ुद से कि
मुझे माँ का
एकांत दे दो

वह एकांत
जो पथरी के दर्द में
चुपचाप कराहता था
वह जो पत्थरों को
योनि से बहाता था
पर सह जाता था

वह जिसने बहुत कुछ
खोने के बीच
बीजों से प्रेम किया
हमेशा हमें
यह समझाते हुए कि
बीज ही है
आशा भरा एकांत
जिन्हें फिसलने से बचाते हुए
हथेलियों पर
रोप देना है

होने के किनारे का अँधेरा

होने का एक किनारा होता है
उसे ‘होने देना’ कहते हैं
उसके अंधकार को
‘हो चुका’ कहते हैं

होने के किनारे का अँधेरा
चुपचाप रहता है
अपनी कुटिया में
जिसका कोई दरवाज़ा नहीं

होना और अंधकार
खुले रहना चाहते हैं
बस उनकी एक ही शर्त है
कि दोनों हमेशा
साथ में रहें
अकेले, नीरस, बोझिल नहीं
बल्कि
भ्रमित!
चकित!
और अज्ञात!

होने के किनारों का अँधेरा घना है

यह एक रात का साया है

यह एक रात का साया है
और भूख ने घेरा है

दूर वादियों से भेजे हैं
आवाज़ के नगीने
जो कानों के हवाले
यूँ होते हैं
कि जैसे राशन मिला हो उन्हें

बड़ी तन्हा-सी ख़ुराक है
जिसे बाँटने की ख़्वाइश में
कई-कई दफ़ा
तस्वीर बना यूँ छुपाया है
जैसे मिटाई हों
ताल से परछाइयाँ

यह एक रात का साया है
और सवालों ने घेरा है

एक खिड़की के बारे में सोचा है
एक दराज़ के बारे में भी
एक किताब ज़रूर रखी होगी वहाँ
शायद एक पन्ना भी मुड़ा हुआ हो
सोचती हूँ कि
उसके मुड़े हुए होने की उम्र क्या होगी?
कुछ जान लेने की उम्र क्या होगी?
क्या वो इलहाम अभी भी ज़िंदा होगा?
या उसी का सिरा पकड़
कोई नया पन्ना मोड़ा होगा?
और मुमकिन होने की छोटी-सी फ़ेहरिस्त में
वो खिड़की
वो दराज
वो पन्ना
वो क़िताब
कभी निकलेंगे क्या
सपनों से सिरहाने की ओर?

यह एक रात का साया है
और एक धुन ने घेरा है

मैंने सुना है कि
नींद में बुदबुदाओ तो
पहाड़ गूँजते हैं…
और कहते हैं कि
जंगलों की आग
सूखे पत्तों पर गिरी
जुनून की चिंगारियों से बुझती है
यह अफ़वाह भी है कि
चमोली का भूकंप असल में
एक शाइर का इज़हार था
जो अकेलेपन को प्यार मान बैठा
और धरती को अपनी जागीर मान
कपकोट की ज़मीन को
कर आया भू-स्खलन के हवाले

बहरहाल
अब यह एक रात का साया है
और धड़कन को भूल जाने की इच्छा का मारा है
साँस को आदतों में शुमार करने का
एक हिदायत भरा ख़त मिला है
और मुझसे कहा गया है कि
ख़त के जवाब में
मैं सच्चे मन से लिख भेजूँ कुछ ऐसी जवाबी चिठ्ठी :

ठीक है। आज ही समझदारी की दवा का
परचा बनवाकर आती हूँ। आप चिंता मत करना।
रात के साये का वक़्त होते ही एक खा लूँगी।

— आपकी प्यारी
अवचेतना

यह एक रात का साया है
और धुंधलके ने घेरा है

जुआ

ख़ुद को जला देने वाले
रोशनी के टुकड़े जब
ज़ेहन के कोनों से झाँकते थे
तब भाई
उन्हें बुझाने
मुझे बचाने आया था

समुद्र के किनारे
खड़े होकर
उसने क्या कहा था
मैं भूल गयी हूँ अब
पर अनंत का एहसास याद है

हम दोनों
बचपन से ही
हाथ थामे
दुनिया देखने निकले थे

समुद्र का वह किनारा
आख़िरी पड़ाव था
तबीयत भर देखा समुद्र को
एक सिरे से दूसरे सिरे तक
एक पल
पैनॉरेमिक दृश्य था
दूसरे पल
ब्रह्मांड
और तीसरे पल
कसीनो का रूलेट टेबल
तब मैंने जान लिया कि
हम दोनों जुआ हार चुके थे

यह दुःख कि

यह दुःख कि
कुछ दुनियाओं से आप
कभी नहीं जुड़ पाओगे
वह दुनिया जो
बुराँस के सुर्ख़ फूल-सी
मेरे दिल में दहकती है

यह दुःख कि
उस दुनिया को स्पर्श करने
मेरी उँगलियों के पोर
कभी कोई धुन नहीं बना पाएँगे

यह दुःख कि
मेरी हर जुनूनी जामुनी कल्पना
घूमती रहेगी आवारा
पूरे ब्रह्मांड में
यह खोजती हुई और पूछती हुई
कि क्या तुम्हारे पानी का रंग
मिलता है मेरे पानी से?
क्या तुम्हारे वहाँ भी
मुस्कुराते हैं लोग आँखों से?
क्या तुम्हारी दुनिया में भी
होता है दुःख
उम्र ढलने का?
क्या खो जाने कि भी
उम्र तय है?
क्या समय जैसी मिथ्या चीज़ तुमने भी गढ़ी है?
क्या तुम्हारी दुनिया भी बेनाम ग्रहों को
ढूँढ़ने निकलती है
पर निराश लौटती है हर बार?
और फिर
मेरी तरह ही
रास्ते में मिले एस्टेरॉयड को
अपना समझ
दे आती है उन्हें
बेतुके, पर उम्मीद भरे
‘एल.क्यू.ज़ेड.626’ जैसे कुछ नाम?

और हाँ,
अंत में, अनंत में
यह इलहाम
कि कोई भी रहता नहीं
इस जहान में
मर्ज़ी से अपनी


प्रकृति करगेती (जन्म : 1991) सुपरिचित लेखिका हैं। उनके दो कविता-संग्रह ‘शहर और शिकायतें’ (2017), ‘दो ध्रुवों के बीच’ (2023) और एक कहानी-संग्रह ‘ठहरे हुए से लोग’ (2022) प्रकाशित हो चुके हैं। यहाँ प्रस्तुत कविताएँ उनके दूसरे कविता-संग्रह से चुनी गई हैं। उनसे prakriti.kargeti7@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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