गद्य ::
निशांत कौशिक

निशांत कौशिक

चाँद

वह वहाँ किसी दूर के रिश्तेदार की मौत पर गई थी। चिता के पास स्त्रियाँ नहीं जाती तो दूर से उसने घूम-घूम कर लहलहाते खेतों के फ़ोटो खींचे और शाम होते ही वीडियो कॉल से मसान पर चमकता चाँद दिखाया। कहा कि नए फ़ोन से और बेहतर दिखता चाँद, इस पर मेरा इसरार था कि अगली दफ़ा वह मसान से न दिखाए कोई चाँद, बल्कि बेहतर होगा कि किसी पार्क को जाए; लेकिन वह ज़िद पर टिकी रही। अंतिम क्रिया की देरी से कुछ बिसातें बिछ गई, वहाँ ताश की, उसने चोरी-छुपे बिसातियों के चुटकुले सुने और मुझसे ‘गाय रँभाने’ की हिंदी पूछी। लौटते हुए परिवार को नहीं सुनाए, उसने चुटकुले और इतना ही हिस्सा था—उसका उस रात माँ-बाप के दुखों में कि वह उन्हें हँसा नहीं रही थी, रहने देती थी दुखी कुछ और, कुछ और। दुःख छीनने का भी समय होता है, उसको पता है। उसको अभी-अभी मिल गया नया फ़ोन और कई पार्कों पर ठीक-ठाक चमकते चाँद। उस रात हमारे मसान से निकलते-निकलते चाँद मद्धिम हो गया था और भद्दा दिखने लगा था, उसने बताया बाद में पार्कों में घूमने का सही-सही सबब। चुटकुले हम दोनों को अब याद नहीं।

अनुवाद

हर मूल पाठ था दोपहर और अनुवाद होता रहा शाम। चटख धूप आख़िर अनुवाद के बाद अँधेरे में कैसे बदल सकती है। यह दोपहर लेखक की है और शाम मेरी? चम्मच हलवे का स्वाद बदल रही है? मेरी लोरियों और प्रेम गीतों में परदेसी भाषा के टुकड़े तैर रहे हैं, जैसे गांधी झील पर बोगनबेलिया के झरे हुए पत्ते (या फूल?)। मुझे तब्सिरात और इस्लाह पसंद नहीं, बावजूद यह तथ्य कि ठोक-पीटकर चीज़ें ज़्यादा बेहतर स्वरूप पा सकती है। एक तुर्की लेखक की तरह जो बीमार था और अच्छा होने से डरता था, क्योंकि ठीक होना उसकी अर्जित क़ाबिलियत छीन सकता है। उसकी बीमारी प्रेरणीय है, लेकिन क्या बीमारी चुनी जा सकती है या वह भी जन्मजात क़ाबिलियत है? ख़ैर! अनुवाद में लेन-देन इतना है कि मुझे अपने बचपन के लिए भी अपने कवि जैसा बचपन चाहिए था, उसकी पावरोटी के डब्बे, उसकी अंताल्या सिगरेटें, सुबह-सुबह बंदरगाह में किसी छूटते जहाज़ के भोंपू से फूटने वाली सुबह, टूटने वाली नींद। मैं यह भी चाहता था कि वह मरे मेरी तरह, यानी रहता अभी तक जीवित। मैं 1968 में लिखी किसी की कविता फिर लिखता हूँ, रजिस्टर में अनुवाद के लिए। कॉफ़ी नाम की यह कविता छोटी है। मेरे कप में भी आख़िरी ही घूँट है कॉफ़ी का।

वैतरणी

पूरे नब्बे में निपुरे सुजान कक्का। रात भर ऐसी सिगरेट चूसी कि डब्बे में तम्बाकू छोड़ो, निकोटिन की गंध तक न बची। तड़के में आँख भारी हुई। सुबह से फ़ोन खड़खड़ाने लगे, पड़ोसी ख़बर ले आए। सुजान कक्का मर गए।

सुजान कक्का ने खँडहरों में दीये जलाए और फिर उन पर मालिकी के बोर्ड टाँग दिए। नातियों के चमनप्राश रात में उठकर खाते थे और मुहल्ले के नल के नीचे मुँह अँधेरे डालडा के डब्बे रखकर फीते से बाँध देते थे। कक्का एक ही अगरबत्ती जलाते थे, सुबह भोलेनाथ को। चाय हो या मदिरा, पीने से पहले दो छींटे भगवान को घूम-घूमकर अर्पित कर देते थे। कक्का के दाँत नब्बे से भी पुराने थे, लेकिन टोस चाय में घोलकर खाते थे। बुढ़ौती में कक्का के पास हर दिन नल का झगड़ा और पोस्ट ऑफ़िस में पेंशन की लाइन में बैठकर 4,500 के ऑर्डर पर साइन करने जैसा मनोरंजन था। बहू, ससुर के इधर-उधर बैठ कर पेशाब करने की आदत से परेशान थी और बेटे ने नौकरी को घरेलू दुनिया से बचने का संसार बना लिया। नाती-नतिनियाँ कक्का को सुरती मल कर देते थे और नहाते समय पीठ पर मिट्टी घिसने के भी काम आ जाते थे।

जब सुबह उठाए गए तो घूमते कमरे को आँखों में ठहरने में समय लगा। कक्का से जीवन भर मुहल्ले भर की बिसात रही, बच्चों की कट्टी और परिवार की खीझ। दुनिया में दुनिया के नाते सही लगते। अम्मा ज़ोर देकर बोली, ‘‘कुछ नहीं तो घाट चले जाओ, मरे आदमी से का बैर। रात में भी आए थे कक्का के घरवाले कि घर पर थोड़ा गंगाजल है तो छिड़क दो मुँह पर, वैतरणी पार हो जाएगी, गंगाजल तो था नहीं अपने घर पर फिर का करते, वापिस भेज दिया।’’

नींद और थकान में दाँत घिसे, चप्पल पटकी और स्कूटी में सवार होकर चल दिए, दसेक बजने लगा होगा। दीवान को फोन किया कि आ जाओ, नर्मदा पास कहीं बैठकर थोड़ी दारू हो जाएगी, लौटने लायक़ थकान इकट्ठी कर लें कि भभका लिया मुँह तकिये पर धरें और नींद लग जाए, नहीं तो मसान से लौटकर क्या ही जी लगेगा कहीं।

दीवान ने उँगलियाँ चिटकाईं, पैजामे में पैर डाला और खटाक से हाज़िर हो गया अहाते के सामने।

चिता जलने में अभी समय होगा, इतना स्व-आश्वासन काफ़ी है तीन पेग गटकाने के लिए। फटाफट खीरा ठूँसे, तीन पेग मारे, बड़ी गोल्ड निपटाई, दो जेब में धरी और पहुँच गए घाट।

घाट पर मुर्दा ख़ामोशी। मुर्दाघाट पर ऐसी ख़ामोशी वाजिब भी है। मुझे खीरे की डकार आई। दीवार पर गीता लिखी थी, ‘‘क्या लाए थे क्या ले जाओगे…।’’ आदिम ग्लानि हुई कि यहाँ नशे में खड़ा हूँ। दीवान ने गुटखा चबाना शुरू कर दिया, उसकी शक्ल सरकारी क्लर्क-सी थी जो इंस्पेक्शन करने आया है। मेरे अंदर स्वद्वेष पनप रहा था। रहा नहीं गया तो मैं ज़रा किनारे खिसक कर सिगरेट फूँकने लगा, अब की सिगरेट ने दिमाग़ झन्ना दिया, कक्का की चिता एक नज़र देखी और रुलाई छूटने लगी। इसी बीच दौड़ते-झगड़ते दो सूअर आए और तैयार चिता के लकड़े लेकर गिर गए। डोम अपने मंतर के साथ जाकर थोड़ा दूर खिसक गया, गाय ने कक्का की छाती पर रखे फूल खाने शुरू कर दिए। दबी हुई हँसी का माहौल था। मैं नशे और निकोटिन की गिरफ़्त में सही-सही स्थिति ढूँढ़ रहा था कि सही-सही हँसूँ या सही-सही दुखी हो जाऊँ। इस तनाव की नाटकीयता मुझे नशे में अच्छी लगी। लौटते-लौटते ठीक हो जाऊँगा, क्या लेकर आया था, क्या ही लेकर जाऊँगा।

बकलम ख़ुद

फिर एक उम्र आई जब नींद मेरे लिए एक सुरंग जैसी हो गई। वह सब कुछ जो मेरे लिए असहनीय था, असहज करता था; नींद के मुहाने से मैं सुरंग में डालता रहा। धीरे-धीरे सुरंग भरती गई और उसमें भरे-ठूँसे सामान का सिरा मुहाने से बाहर झाँकने लगा था। उसकी सड़न अब रिसकर सपनों में गिरने लगी थी, धीरे-धीरे वह मेरी सुबहों और दुपहरों तक पहुँचने लगी। दिन में मेरा रक्षक कोई नहीं था, नींद और रात का दामन हाथ से निकल चुका था। उस सुरंग में मेरे सारे उजाले, सारे आदर्श और पावित्र्य एक-एक कर गिर रहे थे।

अपनी जवानी में, मेरे पास ‘जीने’ और ‘कैसे जीना चाहिए’ जैसे सवालों के बहुरंगी उत्तर थे। मेरी कॉलर ऊँची थी और गले में बलग़म नहीं था। उलजलूलियत को नगीना की तरह पहनने का वक़्त जवानी है, जब आप विचारों और शब्दों से ऐसे खिलवाड़ कर सकते हैं जैसे कोई गेंदों को घुमाकर खेल खेलता हो। शब्द क़र्ज़ की तरह मुझपर चढ़े थे और जीवन उनके अनुकूल नहीं चला। गुलज़ार ने कहा था कि एक दिन उसने टैगोर की ‘द गार्डनर’ पढ़ी और उसका जीवन बदल गया, ओरहन पामुक ने कहा कि एक दिन उसने फ़ॉकनर का एक नॉवेल पढ़ा और उसका जीवन बदल गया। मैंने ये दोनों किताबें पढ़ीं, मुझमें, मेरे जीवन में कुछ नहीं बदला। मेरी कॉलर नीचे आ गई, छाती में एक ख़राश महसूस हुई। कुछ साल उन विचारों से मुक्ति पाने में गुज़रे जिसे छत पर कबूतरों की तरह पाल लिया था।

कविता पढ़ते-पढ़ते ज़ेहन में कविता का शिल्प पैदा हो गया था। मैंने कभी छंद और बहर नहीं समझी, और ठीक-ठाक आलोचकों से भी सामना नहीं किया। शायद कविता के परे कुछ था जो मुझे आकर्षित करता था, कुछ वह जिसके पंखों की गति कभी-कभी कविता पकड़ लेती थी। मैंने छुपकर और अकेले लिखा, पढ़ा भी हिचककर। मैं कविता के पास ऐसे आया जैसे छुपकर कोई ताबीज़ लेने आता है। वैसे मुझे कायर और डरपोक होने से डर नहीं लगता था, कायर और डरपोक महसूस होने और कहलाए जाने से डर लगता था। मानव जब किसी वस्तु या जगह को जीतता है तो उस पर अपने निशान लगा लेता है या उसके एक हिस्से को अपने घर में सजाकर रख लेता है। मैंने लिखा कि मुक्त हो सकूँ। मेरी डायरी उन प्रेतों का अजायबघर है, जिन पर मैंने क़लम के टोटके चलाए। डायरी में मैंने अपने कई हिस्सों को शव की तरह जला दिया, कुछ को साँस फूँक कर ज़िंदा किया और कुछ को नाव पर बैठा कर विस्मृति के द्वीप विदा कर दिया।


निशांत कौशिक का नाम ‘सदानीरा’ पर अब तक उनके अनुवाद-कर्म के सिलसिले में ही शाया होता रहा है। इस बीच उनके संकोच और व्यस्तता की वजह से उनका गद्य और उनकी कविताएँ ‘सदानीरा’ पर अप्रकाशित रही आई हैं। इस स्थिति में उनके गद्य को यहाँ प्रकाशित करते हुए हमें प्रसन्नता है और साथ ही उनकी कविताओं की प्रतीक्षा है। निशांत कौशिक से kaushiknishant2@gmail.com पर बात की जा सकती है।

2 Comments

  1. Anshul मार्च 11, 2023 at 4:06 अपराह्न

    Beautiful..

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  2. J मार्च 12, 2023 at 6:39 पूर्वाह्न

    सुबह के ग्यारह बजे रहे है। 6 बजे से नींद तो जागा हुआ हूँ पर आंख बंद कर बिस्तर में ही करवटो का बदलाव, ये सोचकर कि संडे है। और सच कहूँ तो सुबह बिस्तर से निकलने के की यही जद्दोजहद आजकल आम हो गयी है। और गिर बिस्तर में सड़ते हुए फ़ोन चलाना।

    नींद का सुरंग हो जाना। 🙌🙌🙌

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