कविताएँ ::
ऋतेश कुमार

ऋतेश कुमार

उदास स्वरों की गलियाँ

आस्था

कमरे में
झाँक रहे थे देव-देवियाँ तस्वीरों से
झाँकते हैं जैसे
शहर के सब भद्र जनों के घरों में
वरदान देते
अभय दान देते

दस बाई दस का यह कमरा
गहरी लाल रोशनी से भरा
जहाँ सिर्फ़ मैं हूँ
और वह है
और हैं तमाम देव-देवियाँ अपलक और मूक

कमरे में
ख़ुद को खोलने को तैयार जैसी वह
खुली हुई स्त्री देह देखने की
हज़ार जन्मों की चाह जैसा मैं

यह मेरी देह की चाह है
जो उसकी देह तक मुझे ले आई है
फिर भी संकोच का कोई कुर्ता है
जो मेरी देह से चिपका है
जिसे पहले देखा नहीं
छुआ नहीं
उस देह को
कैसे करूँ प्यार

धुआँ कसैला घुसा नाक में
भक्क से बुझी साँझाबाती का
अपलक देव-देवियों को देखता मैंने पूछा—
‘तुम्हें ग़ुस्सा नहीं आता इन पर’

‘ग़ुस्सा!
इन पर क्यों ग़ुस्सा
देखो, आज अब तक
कोई न आया था
मन मेरा टूट रहा था
और तुम आ गए
इन्होंने ही तो भेजा’
उसने तस्वीरों की ओर देखा
मैंने उसे

मैंने जाना
देह की चाह
ईश्वर की चाह होती है

नैंसी

नैंसी का रंग दूधिया है
नैंसी की देह यक्षिणी-सी है
नैंसी के उभार खजुराहो की मूर्तियों से हैं
नैंसी की जाँघ मध्यकालीन काव्य के कदली स्तंभ से हैं
नैंसी का मुख रुमानी गीतों के चाँद-सा है
क्या नैंसी किसी किताब या मंदिर से उठकर आई है

नैंसी बीच-बीच में अँग्रेज़ी बोलती है
नैंसी बड़े सलीक़े से रहती है
नैंसी अपनी शर्तों पर काम करती है
नैंसी दलालों को ठेंगे पर रखती है
नैंसी यहाँ क्यों रहती है

नैंसी घंटे का पाँच हज़ार कमाती है
नैंसी फ़्लाइट से उड़ती है
नैंसी पिज़्ज़ा बर्गर खाती है
नैंसी कार्ल्सबर्ग गटकती है
नैंसी कहती है फ़िल्मों में करेगी काम
क्या नैंसी बन पाएगी
शगुफ़्ता रफ़ीक़ या सनी लिओनी

नैंसी बताती है
कि बुआ ने धकेला था कमरे में पहली बार
कि एक डॉक्टर ने उतारा था उसका नथ
कि खानदान में होता रहा ये बिजनेस
कि माँ-मौसी करती रही ये काम
करती रहीं माँ की माँ-मौसी भी
क्या नैंसी आख़िरी होगी घर की
इस काम में

नैंसी भाग रही है कमरे से
नैंसी के पीछे भाग रहा है डॉक्टर
नैंसी के पीछे भाग रहा है दलाल
नैंसी के पीछे भाग रहे हैं हम
नैंसी की नाक पर है घाव
नैंसी की छाती में धँसे हैं कई दाँत
नैंसी की जाँघ में गड़े हैं कई नाख़ून
नैंसी के जननांग से बह रहा ख़ून
क्या सब घाव
भर जाएँगे नैंसी के इस जीवन में

नैंसी सँभाल रही है जूते भूतनाथ में
नैंसी माँग रही है भीख श्यामबाज़ार में
नैंसी माँग रही है खाना मंदिर गली में
नैंसी सुन रही है महाल्या का चंडीपाठ
नैंसी बदल रही है दुर्गा में
नैंसी कर रही वध महिषासुर का
नैंसी देख रही है हम सबको
नैंसी के होंठों पर है मुस्कान
क्या हम जानते हैं नैंसी को
कौन है नैंसी?

अनक्लेम्ड बॉडी

भटकता-भटकता चला आया हूँ आज फिर
बाबा भूतनाथ की गली
दिन की बेला है
मंदिर है ख़ाली-ख़ाली

सामने एक गँजेड़ी
डफ पर डूबकर गा रहा है
औघड़ दानी के भजन
बैठी हैं पास ही
जूते-चप्पल सँभालने वाली कुछ वृद्धाएँ
रोज़ की तरह

इन थकी स्त्रियों को जब भी देखता हूँ
भूतनाथ के मुरझाए अकवन के फूल दिखते हैं
बेल के पत्ते, धतूरा और भाँग भी

कहते हैं
ये सोनागाछी की औरतें हैं
जो बाज़ार से बाहर कर दी गई हैं
इनकी देह अब
नहीं उठा सकती
किसी कामातुर देह का भार
खो चुकी हैं ये ग्राहक को
पास बुलाने का लावण्य

कमाने की उम्र निकल जाने के बाद
बाज़ार धकेल देता है बाहर
ऐसे ही सबको
बाज़ार फ़र्क़ नहीं करता
आदमी और औरत में
ग़रीब-अमीर में भी

कभी-कभी जी करता है इनसे पूछूँ
क्या कभी किसी जूते में इन्हें दिखा है
कोई पुराना मेहमान
या वह आदमी जिससे हो गया हो
जुड़ाव-सा कुछ
कभी दिखा है अपना कोई परिजन
क्या सोचती हैं तब

‘अमर प्रेम’ की पुष्पा को
उसका पति मिल गया था
मेस में आख़िरी घड़ी गिनता
वहीं आ गए थे आनंद बाबू नंदू को लेकर
वही नंदू
जिसके लिए पुष्पा गाती थी
बड़ा नटखट है रे कृष्ण-कन्हैया
डॉक्टर की फ़ीस देकर बचाई थी जिसकी जान
नंदू वहाँ से लेकर चला गया था
पुष्पा माँ को अपने घर
क्या इन्हें आते हैं ऐसे फ़िल्मी सपने कभी
कैसे होते हैं इनके सपने
जीवन के इस पड़ाव पर

ये जो
सँभालती हैं जूते-चप्पल
माँगती हैं कुछ भीख कहीं
माँजती हैं बर्तन कोई
हो जाएँगी लाइफ़ से भी रिटायर एक दिन
जला दी जाएँगी यहीं
म्यूनिसपालिटी द्वारा
अनक्लेम्ड बॉडी कहकर

बॉडी ही रहीं सारी उम्र
अनक्लेम्ड
अवेलवल फ़ॉर आल

संभव है
मरने के बाद
पहुँचा दी जाएँ
किसी मेडिकल कॉलेज
होगी चीर-फाड़
बच्चे सीखेंगे चिकित्सा करना इनकी देह पर
संभव है
मरने के बाद भी
अपनी ज़रूरतें पूरी करे समाज
इनकी मादा देह से


ऋतेश कुमार हिंदी के सुपरिचित कवि-कलाकार हैं। ‘सदानीरा’ पर उनकी कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। उनसे riteshpandey.rp@gmail.com पर बात की जा सकती है।

3 Comments

  1. Kanchan Singh Chouhan मार्च 1, 2023 at 9:36 पूर्वाह्न

    इन कविताओं को सुंदर कहना इन कविताओं का अपमान होगा।

    सच्चाइयाँ कब सुंदर हुई हैं और इन कविताओं के सत्य तो बहुतेरी सच्चाइयों से ज़्यादा भोथरे और बदसूरत है।

    ये कविताएं ले जाती हैं हमें पोस्टमार्टम हाउस के उस दरवाज़े पर जिस पर हम जाना नहीं चाहते क्योंकि यहीं तो है मनुष्य के आवरण के भीतर की तमाम गंदगियों भीषण रूप, सच्चा रूप

    Reply
  2. शैलेंद्र शांत मार्च 3, 2023 at 9:56 पूर्वाह्न

    मार्मिक कविताएं!
    अपने समाज के कारुणिक तस्वीर को सामने रखती।
    कवि को शुभकामना!

    Reply
    1. डॉ सत्य प्रकाश तिवारी मार्च 4, 2023 at 3:59 पूर्वाह्न

      समाज की हकीकत को रेखांकित करती कविताएं । नैंसी और अनक्लेम्ड बॉडी जैसी कविताएं समाज के उस यथार्थ को रेखांकित करती हैं जिस पर अक्सर चर्चाएं होती ही नहीं हैं ।

      Reply

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