कविताएँ ::
हर्ष
जो नहीं है
जैसे पलाश से प्रेम झर गया हो
कोयल की आकुलता अकेली विचरती हो
रात ऐसी लिपटी हो
जैसे विरह में दिया लिपटता है—
शोकाकुल मन से
भोर बयार आई हो
पर छू न पाई हो
किसी हृदय का शून्य-सरोवर
वह ऐसे गया
जैसे स्वप्न जाता है
एक कोरा भाष्य छोड़
कहानी का पूरा सार लिए
समय के वृत्तांत में खोया—
कथासार
बिना प्रेम के विरह-सा
अधूरा रह जाता है अंततः
आईने में
आईने के भीतर की तुम
को
मैं नहीं पहचान पाया हूँ
पहचानी हैं बहुत सी स्त्रियाँ
जिनके माथे का केंद्र
दो कालों की धुरी है
उसी से टूटता पसीना
और गिट्टियों से उठती लाल-लाल धूप
विज्ञापन-सी चिपकी है
कारख़ानों की दीवार पर
दीवार के पीछे की तुम
को
मैंने बाज़ार में
उजाड़ ख़ाली दुकान से
एक बच्चे को बाज़ू से लटकाए
ले जाते
रोज़ देखा है
मैं तुम्हारे भीतर की तुम
को
नहीं पहचान पाया हूँ
पहचाना कि तुमने गुलाब नहीं उगाए
लड़कों में आईने उगाए हैं
आईने के भीतर की तुम
को
शुक्रिया।
दिल्ली
मैं बिखरा पड़ा था
जैसे सुदूर एक अलिखित छज्जे से
कबूतर के अवशेष
शहर को पुरातन किए देते हों
इसी पुरातन में
उजाड़ दरवाज़ेनुमा मेरा होना है
दरवाज़े की पीठ—मेरा प्रेम
दरवाज़े में छज्जे-सी विस्तृत मेरी देह
और उसकी आवाज़ भर मेरे अंग
इस भादो से झरते
संभावित सबमें
मैं बिखरा था
भंगिमा
वह बीते हुए एकाकीपन का दर्शन मात्र थी
उसका होना अलाव में आग से बची
लकड़ी का होना था
मैं उसको सुर की गरिमा मानूँ
या गायक का निरीह भाव
मैं अगर उसे समूचा संगीत भी मान लूँ
तब भी गायक की भवों भर मेरी चेतना होगी
मैं आनंद तो लूँगा
कोई मुझे प्रेम में बाँध पढ़ेगा
तो कोई इशारों में
मगर मैं अन्यत्र ही
किसी संकुचित कल्पना का भी पात्र न होने के
शून्य क्षेत्र में उसकी क्रीड़ा को आँकता
बीत जाऊँगा
वह संगीत हो जाएगी
मैं राग बीतने के बाद की
बची हुई भंगिमा।
युद्ध
चलते-फिरते वृत्तांत का चलता-फिरता सत्य था कि घरों मे तब्दील हो चुके झील और जंगलों-सा युद्ध अब आँगन में चौराहे पर कचौरियों और जलेबियों के बीच इतिहास पर पुरानी इमारतों में नई इमारतों के पुरातन सत्य पर प्रेम का प्रेमियों पर आलिंगन पर स्नेह पर था।
युद्ध अब ज़रूरत थी युद्ध की क्षरित होती शक्ति की।
नगरों में नए-नए प्रकार के शिक्षितों के रोज़गार की।
युद्ध अब सामाजिक उपभोग की न्यूनतम स्तर पर परिभाषित एक कड़ी थी और सब इससे ही जुड़े थे।
‘जुड़े होना’ निर्माणाधीन है एक माँ से पुत्र के जुड़े होने की तरह और समाज से कुंठा की तरह और इतिहास से प्रेम की तरह या धर्म से विस्थापित इंसान के संवैधानिक अधिकारों की तरह।
ठीक उसी तरह जिस तरह यख़नी बनाए इंतिज़ार करती स्त्री को स्पष्ट नहीं होता कि एक बागान का माली आतंकवादी कब हुआ या ग्रंथालय में नेरूदा को पढ़ते छात्र को मारने वाला सैन्यबल प्रेम से किसे रोक रहा था।
युद्ध के होने में प्रेम-पकवान-विचार-संदर्भ-परिचय-लगाव… स्पष्ट नहीं होते।
इनका स्पष्ट न होना ही युद्ध है।
फूल
बिना आग के पिघलना
तुम मेरे हृदय के पास
पागल एक फूल रख देना
फूल ऐसा हो
जैसे एकदम भरी हुई सड़क
या किसी पुराने बंगले-सी
मरी हुई
चुप्…
फूल ऐसा हो
जैसे कोई पुरानी चिट्ठी-सा
सालों बाद मिला हो
और ठहर गया हो
निहारता तुम्हें
अनंत तक
तुम्हारे स्वप्न से आया कोई परिचित
फूल ऐसा हो
कि मैं तोड़ूँ
तो वह निहारने लगे
मेरी आत्मा
और पसर जाए सड़क भर
ताज़ी बरसात और छज्जों की किलकारियों-सा
तुम मेरे हृदय के पास जब फूल रखना
तब सारा स्नेह उसकी जड़ों में भरना
मैं
पागल
फूल
ही
स्वीकारूँगा।
सफ़ेद कुक्कुट
बारिश में भीगती है दुविधा की साँकल
साँकल में डूबता है सारा अनिश्चित
दीर्घ में बैठे हुए
स्लेटों के पट्टे पर डोलता है
सफ़ेद-सा कुक्कुट
सफ़ेद-सा मांस का टुकड़ा
सफ़ेद-सी दिखती हैं सारी लकीरें
सफ़ेद-सा होता है आँखों का काजल
सफ़ेद-से स्वप्न में
दौड़ता है जूता
पैंट की मोहरी
बेल्ट का पट्टा
पसीने से भीगा धुँधला-सा चश्मा
दहेज का कूलर
और लाखों के देवता
दौड़ता मैं जाता हूँ
गोहरी की अंगीठी से
काला-सा टुकड़ा ले
सफ़ेद को
देव को
कूलर को
लाल-लाल होंठों से
धोने-डुबोने
कि मरे ये दूर तक
चॉक का सफ़ेद।
गिरगिट
मैं जीवित हूँ
किसी होड़ में
भीड़ में
मैं प्रेमी हूँ
अपराधी हूँ
कि भागता हूँ
रेलिंग पर नंगे पाँव
दौड़ाता है गिरगिट
मुझे
बहुत दूर
कि ये छत है
छत से नीचे की इमारत नहीं है
ठेले हैं
मेरे हाथ-पैर बँधे हैं
मैं तरकारी ख़रीद रहा हूँ
मुझे बोध है
मैं नंगा हूँ
जीवित हूँ
ये घर है
शहर
एक
रात देह पर
रिसती हैं नदियाँ
छाती पर बालों का एक समूह उतान हो
करवटें लेता है
और घास हो जाता है
इनमें टिटिहरी नहीं आएगी
मैं गाँव नहीं हो पाऊँगा
देह की नदियों से पूछूँ
तो वे कई छुअन पहचानेंगी
मैं अपनी देह में रिक्त हूँ
शहर,
आओ शहर
आओ
दो
एक निवाला रखा है
भात और नून का
चाटो इसे
यही पुरातन घाव है
जो तुम्हें शहर किए देता है
अभाव में
तुम्हारे पास
कृत्रिम झील है
मेरी देह के पोर
यहाँ नहीं भीगेंगे
तुम भात नहीं जानते
शहर,
जाओ शहर
कुकुरमुत्ता खाओ
वह लग्ज़री है
तीन
मैं घर नहीं जानता
रुकने की कई जगहें जानता हूँ
कीचड़ में डूबा पैर
और किसी शहरी गाय का गोबर
चमड़े के कुछ भाग में
रिसते हैं
मैं घिनाता हूँ
घिन नहीं जानता
मैं अबोध हो
कपड़े पहन
ख़ुद को नंगा नहीं जानता
मैं क़बीलों का नहीं हूँ
नाच नहीं जानता
जंगल नहीं जानता
कोई,
मुझमें हृदय रखो
चार
बहुत दूर
सड़क से
सुनहली-सी धूप,
मेरी देह जलाने आई है
मैं नाभि से नीचे
अपने पोरों से रिसते नमक से नहाए
दौड़ गया
मैं वयस्क हूँ
कई गड्डमड्ड पड़ी जाँघों के बीच
होंठों के बीच
ढेर सारी जीभ के लोथड़े
मेरे हैं
मैं दैत्य हूँ
यहीं
शहर में
रहूँगा
जिजीविषा
बहुत से दरवाज़े खुले थे
उसकी देह में बहुत छोटी सीढ़ियाँ उतरती थीं
सीढ़ियों से उसके पसीने की गर्माहट तक
ऊँघने की एक दीवार है
जैसे रात और किवाड़ के बीच
शाम
घुस आती है कमरे के भीतर
मैं उसकी जिजीविषा चाटता हूँ
हर्ष (जन्म : 2002) की कविताओं के विधिवत प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र में स्नातक हैं। फ़िलहाल अम्बिकापुर (छत्तीसगढ़) में रहते हैं। इस वक़्त हिंदी में इस सदी में जन्म लेने वाले तीन प्रकार नए कवि सक्रिय हैं। एक जिन्हें संभावनाशील कहने का चलन है, दूसरे जिन्हें शुभकामनाएँ देने का और तीसरे जिनसे ईर्ष्या हो सकती है। इस क्रम में हर्ष तीसरे हैं। उनसे hatiwari11@gmail.com पर बात की जा सकती है।