कविताएँ ::
पूर्वांशी
आवरण
इस चमड़ी के आवरण के भीतर
न जाने कितने गाँव बसे हैं
और न जाने कितनी बेनाम
गलियाँ अपना नाम तलाश रही हैं।
मैंने तो पूरा गाँव तुम्हारे नाम कर दिया है
अब तुम उन गलियों को भी नाम दे दो
जो तुम्हारे लिए प्यासी हैं।
सारी गलियों को
अलग-अलग भाषा में पहचान दो
कि अगर कोई दूसरे गाँव का आए
तो न जान पाए हमारी पहचान।
न जाने कितने धान के खेतों को
सींचा है मेरे ख़ून ने
अब क्या उस भात का मोल है कोई
जिसे परोस देती हूँ मैं तुम्हें
पर तुम्हें भूख नहीं लगी कभी?
तुम्हारी महक गुलाब से मिलती है
पर तुम कभी बग़ीचे में नहीं मिलते
कब तक खोजूँ तुम्हें उन गलियों में
निकल आओ उस गाँव से बाहर
चीर के इस आवरण को
बन जाओ मेरे शब्द।
सूखे पत्ते
इस अँधेरे आसमान में
सबसे उदास सितारे की धुरी पर
वे सारे पत्ते जड़ दूँ
जिनमें तुम्हारा नाम लिखते ही
उनमें भर जाता था उड़ान का स्वप्न
हवा के साथ बहने के बाद
मेरी गोद में आ गिरते हैं आज
और कुछ नहीं मेरे पास उनके लिए
बस यही सूखी प्रतीक्षारत काया
आत्मा निकल चुकी
उस सड़क पर बरसों पहले
जैसे निकलकर गए थे तुम
इन गिरते हुए पत्तों को अनदेखा कर
अब उस सितारे को अनदेखा मत करना
अपना नाम पहचान
मेरा नाम लिख देना वहीं
बग़ल में
कि उस टूटते तारे के प्रकाश में
जड़ दूँ आकाश को इन सूखे पत्तों से।
दरवाज़ा
यह दरवाज़ा इंतिज़ार करता है
तुम्हारे चेहरे का
तुम्हारे धक्के का।
बंद पड़ा है कबसे
अब हवा को भी रोक नहीं पाता ज़्यादा
ढूँढ़ लेती है वह भी अंदर आने की जगह।
पिता की पुरानी कमीज़-सा
घिस गया है किनारों से
रंग भी न रह गए अब।
जैसे माँ की आँख में बचे आँसू
पिता का अनकहा इंतिज़ार
प्रतीक्षा तुम्हारे आने की।
यह प्रतीक्षा का रहस्य
उस प्रेमिका के लिए
जिसे आने का वादा करके गए थे।
भटके हुए रास्ते के बीच
याद करो इस दरवाज़े को
जिसे भूल गए थे यह बताना
कि न आ पाओगे कभी वापस।
तुम्हारी बात
थकान में ली गई
कुछ मिनटों की वह नींद हो तुम
जो न चाहते हुए भी
मूँद देती हैं आँख।
बुरे सपने के बाद
एक कारणहीन, अनायास मुस्कान
बादलों में बनते
सारे चित्रों का आशय
लंबे दिन के आख़िर में ली हुई
एक लंबी साँस।
याद
गहरी चुप्पी में बसी
गूँज-सी हैं तुम्हारी यादें
जो तुम्हें भी याद नहीं अब
पर मैंने लिख रखा है
जिन्हें अपने अस्तित्व पर
सिलवटों के बीच
गहरी नींद के पहले
एक आख़िरी बार ली लंबी साँस की तरह
ध्यान में आती है तुम्हारी आकृति
जो फिर वापस स्वप्नों में लौटकर
एक पल भी अकेला नहीं छोड़ती मुझे।
क्या तुम्हें अपने घर का रास्ता भी याद नहीं?
या अपना नाम
या अपना लिखा सब कुछ
जिसमें शब्दों की तरह रहती थी मैं
पर मुझे सब कुछ याद है
मुझे तुम्हारा भूलना याद है।
लिफ़ाफ़ा
एक काग़ज़ के टुकड़े में
नींद लिख दो
उन रहस्यों की स्याही से
जिनसे बनता है इन रातों का अँधेरा
और फिर लपेट कर उसे
तेज धड़कनों के लिफाफे में,
जैसे कोई छूटती साँस
मेरा वह नाम लिख देना
जिसे सिर्फ तुम जानते हो
जिसकी शुरुआत ही तुम हो
और घनी अंधेरी रात में
जुगनू की तरह चमकते उस लिफाफे को
रख देना मेरे पास
घर में रोशनी होने से पहले
कि उस कागज़ के टुकड़े को रख कर अपने पास
पढ़ सकूँ उसे पूरी रात।
बंद दरवाज़ा
इन चार दीवारों के बीच
एक तेज़ आवाज़ गूँजती है
सुबह शाम दरवाजा पीटती है
तड़पती है बाहर आने को
पर बाहर हमेशा शांति ही आती है
फिसल के उन अँधेरे बादलों से
किसी कोने से जिसे शायद देखना भी मुश्किल है
जैसे नहीं देखा जा पाता शांति को कभी।
वह दरवाजे पीटने की आवाज़
क्या तुम्हारी धड़कनें नहीं बढ़ाती
क्या आँखें बंद हो जाती है तुम्हारी
इस शांति में जिसके पीछे बिखरी हैं
न जाने कितनी आवाज़ें।
आँखें खोल रोशनी नहीं देख पाते
इस शांति की गोद में धर लेते हो अपना सिर
नहीं खोल पाते दरवाज़ा।
पूर्वांशी की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह उन्नीस वर्ष की हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातक कर रही हैं। अम्बिकापुर (छत्तीसगढ़) से हैं। उनसे purwanshi2005@gmail.com पर बात की जा सकती है।
अति सुन्दर प्रतिलिपियां। ऐसे ही आगे बढ़ते रहो।
आपका कार्य अति सराहनीय है । भारत के विभिन्न राज्यों में हम अपनी काव्य गोष्ठी आयोजित करवाते हैं किंतु मंचीय कविता और आत्मीय कविता में अक्सर बहुत अंतर जान पड़ता है । और ये अंतर ’सदनीरा’ में साफ दिखाई पड़ता है । मेरी शुभकामनाएं टीम को ।
सुंदर कविताएँ! बधाई