कविताएँ ::
हर्ष

हर्ष

कपास

मैं नहीं समेट सकता
अपनी अनुपस्थिति
मेरे हृदय में
कई ढेर कपास के फाहे हैं
सारी वेदना सोख लेने पर भी
ये भारी नहीं होते
तुम्हें दुखी देखने पर
छू लेने पर
मेरी सारी भाषा कपास की होती है

मुझमें कई ढेर पत्थर बाँध दो
मेरे जड़ होने पर
अपने घर के रास्ते रख देना

पिता

मुझे पगडंडी पे
उतान जम्हाता हुआ
एक फूल मिला है
फूल से सटी हुई घास के
भालेनुमा सिर पर मैंने हाथ फेरा
और ठहरा रहा
रिसती हुई बरसात से
सीला हुआ आसमान
पेट उघारे उतान होकर देह तोड़ रहा था

आज सब जीवित थे
बहुत अलसाए हुए से जीवित
ऐसे में ठेले पर गढ़ाती-सी अलसायी साँझ
सीझी-सीझी रात ओढ़े
बुलाती है

मैं दलान में बैठ
जोहूँगा पिता को
वे मुस्कुराएँगे तो लौट आएगा सब जीवन
सब जीवन लौट आने पर
मैं माँ के साथ
पुआ छानूँगा

हाथ

एक हाथ माँ के आँचल से छूट कर
बाज़ार में ही खो गया था
तब से खोजता हूँ
अज्ञात भाषाएँ
जिनमें बुलाने पर आसमान में
कपास के फाहे आ जाते हैं
छाती के थोड़ा नीचे
एक अज्ञात बदलाव की
गुदगुदी होती है

बचपन की सड़क महकने पर
पंक्चर दुकान तक जाता हूँ
वह माँ का आँचल पकड़े निकल जाता है
मैं फिर थोड़ा-सा छूट जाता हूँ
माँ बार-बार समय में पीछे जाकर
बुलाती हैं
मैं पूरा नहीं लौट पाता
मुझे लौटने की भाषा नहीं आई

सिलवट

रात की शक्ल पर
परछाइयाँ गिरती हैं
उनमें स्वप्न आ बैठते हैं
बिस्तर की सिलवटों से झाँकते
बेडौल चेहरे
मेरी देह पे रात ताक रहे हैं
देह पर भी सिलवटें हैं
हर बार के टूटे स्वप्न की

जैसे यह एक अज्ञात देह हो
कई बार बेडौल चेहरों ने प्रेम में आ
इसे छुपा लिया हों
अलविदा के पदचाप के भीतर
इतनी गहराई में
कि अलविदा
एक होंठ चूमने की प्रक्रिया भर हो
जो निरंतर
तह दर तह
रात की शक्ल पर
पसर जाए

प्रतिक्रिया

एक

फिर बरसात आई है
कलेजा गुदगुदाता है
किसी आगंतुक को जोहते
सारे रोयें उतान हैं

मैं देखता हूँ
पानी का परदा उघार के
ढेरों प्रतिक्रियाएँ
मेरे जीवन भर पे पसरी
मेरे जीवन की शक्ल की प्रतिक्रियाएँ
मुझे हटा रही हैं जीवन से

ऐसे में स्लेटी आसमान गिरता है
पत्ते पर
ओस के भीतर
किसी सुबह

बरसाती परदा
मत उघारना
बड़ी भयंकर परछाईं दिखती है

दो

मैं नहीं जान पाता लोगों को
बरसाती परदे में
चुप आँख वाले लोग
जब मुझे लेने आए
तब बहुत ख़ुश थे
बार-बार पेड़ों की ओट में
दफ़्न होते चेहरे
कुछ देर को सामने थे

घबराहट में मैं गिरा
धरती से
कुकुरमुत्ते से
बागान से
रेत से
नदी से
फिर उनकी पदचाप आई
उनमें से कोई नहीं आया
सिर्फ़ मुस्कुराहट भरे चहरे आए

इस पर मैं भी बरसाती परदे की ओर भागा

परछाईं

ज़मीन पर मेरी परछाईं के दो सिरे हैं
एक पर चींटियाँ लगी हैं
ज्यों पिता ने अपनी चाहतों का घड़ा
ढुलका दिया हो
दूसरी ओर
उन्हीं से सीझा मेरा चेहरा
जो उस तरल स्वप्न से
बार-बार उठकर अपने को खोजता है
चींटियाँ इस ऊहापोह में
शीरे का बहाव खोज रही हैं

इतने में मांस का ढेर-सा टुकड़ा
परछाईं को सजीव कर बैठता है
ये टुकड़े विरोध में गिरे हैं
इनके गिरते ही
एक इंसान जन्मा
इस इंसान की एड़ियाँ भी न सीझेंगी
इसका चेहरा अपना चेहरा होगा
इसके लोथड़े
परछाईं से उलट गिरेंगे

शहरी रेहड़ी

नहीं लौटते लोग
शहरी जंगल में
इनमें घर नहीं होते
उनकी परिकल्पना होती है

तुम्हारे जाने की जगह से
शहर धीरे-धीरे
शून्य का छाता लगा
भागता है
बस-स्टैंड की तरफ़
एक तीखी पदचाप की ओट में

तुम्हारे सब ओर से आते
जंगल-पर्वत-नदी-नाले
बस के रास्ते पर
तानते हैं एक बसेरा
यहाँ शहरी रेहड़ी
नहीं लगेगी

मेरे हिस्से का शहर

जब से दिल्ली आया हूँ
मेरे हिस्से में रात नहीं रुकती
यहाँ बहुत सारी देह-हीन रौशनियाँ हैं
जैसे धरती अपने आँचल के
सारे उल्कापिंड बहा दे रही हो

इसी बीच मैं दौड़ता हूँ
रेत पे
रौशनी पे
शाम के अलसाए दुपट्टे पे
मैं दौड़ता हूँ कि मेरी परछाईं रात पर गिरे
तुमने जहाँ रोके हुए हैं सारे पक्षी
सारा प्यार

मेरे हिस्से की रात में
मेरा बचपन
अकेले देखता है चाँद

तुम जब रात से निकलकर बाहर आओगी
मेरी आँखों को ढाँपना अपने हाथों से
केवल मैं गिरूँगा
मेरी देह नहीं
आवाज़ नहीं
केवल मैं
तुम्हारे पास
सभी पक्षियों के बीच और हर सुबह से बाहर

थाम लोगी अगर
तो यह महानगर चुप हो जाएगा
सुन पाऊँगा मैं
अपने तुम्हारे होने को
लौट आएगा सब अनुराग
एक बचपन खिलखिलाएगा चारों ओर
उन्मुक्त


हर्ष की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह दूसरा अवसर है। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व-प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखिए : फूल ऐसा हो कि मैं तोड़ूँ तो वह निहारने लगे मेरी आत्मा

1 Comments

  1. Akshay Sachdeva फ़रवरी 7, 2025 at 5:27 पूर्वाह्न

    Absolutely loved Harsh’s Poems! Of the few I read and understood, here’s my review:

    I felt Kapas is a deeply emotional poem about pain, empathy. The poet’s heart, like cotton, absorbs sorrow without feeling heavy, symbolizing quiet resilience. Their words soften in the face of a loved one’s grief, showing the limits of language in deep emotion. Absolutely beautiful analogy! The final image of stones suggests a longing to remain close to a loved one, even in stillness. Very very deep, reflective and evocative!

    The poem on “Pita” or “Father” is also a deeply touching one and I feel it expresses the poets longing for his father’s presence. The last line is especially beautiful I feel as it talks about how his father’s smile will restore life to his surroundings, which shows how much his father’s smile means to him!

    Next, the poem on “Hath” or “Hand” is also beautifully expressed. It captures moments of the poets childhood and expresses his desire to reclaim his past, and even shows his difficulty to live in the present moment, as he remains nostalgic about his childhood memories.

    Will find the time to read the rest soon! Keep up the amazing poetry Harsh!

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