शंख घोष की कविताएँ ::
बांग्ला से अनुवाद : बेबी शॉ

कवि के साथ अनुवादक

चुप रहो, अवाक् रहो

इतनी बातें क्यों करते हो?
चुप रहो
शब्दहीन हो जाओ
हरी घास की नरमाहट से भर लो
आदर का संपूर्ण मर्म

लिखो आयु, लिखो आयु

गिर पड़ता है झाऊ पेड़
रेतों की उठान
उड़ता हुआ तूफ़ान
तुम्हारी आँखों के नीचे
मेरी आँखों का चराचर
जाग उठता है

स्रोत के भीतर भँवर
भँवर के भीतर स्तब्ध आयु

लिखो आयु, लिखो आयु
चुप रहो,
शब्दहीन हो जाओ…

महानीम

ईशान और नैऋत्य में
दोनों हाथ फैलाकर
मिट्टी के ऊपर मुँह रखकर
अभी वह सो रहा है
शेष-रात्रि के खुले प्रांतर में

और कोई नहीं है
सिर्फ़ उसकी पीठ की तरफ़ देख रहे हैं
लाखों-लाख सितारे

हाथों के पंखों में लगा हुआ है
घास का हरा रंग
सीने पर गीली मिट्टी
यह है छतरी
जैसे कहीं कोमलता नहीं थी
कभी भी
कोई भी

तभी
आकाश और पृथ्वी का ढक्कन खोलकर
निकलती हुई सुबह
आकर देखती है :
जहाँ उसने दो पैर रखे हैं
वहीं
कल दुपहर के आख़िरी तूफ़ानों में
गिरा हुआ है ख़ूँख़ार सनातन महानीम का पेड़।

सविनय निवेदन

मैंने अपनी शपथ पूरी की है
अक्षरों से अक्षर तक…
विरोध करने वालों का जीवन
बना दिया मैंने जैसे नरक।
दबाकर चलेगा मेरा दल
और कोई नहीं बोलेगा कुछ
वज्र कठिन एक साम्राज्य में
यही है स्वाभाविकता।
गोली चलाने के लिए
पूरा दिन पूरी रात है उदार
इस वज्र कठोर राज्य में
यही है शांति-शृंखला-व्यवस्था।
जिनको मरना है मरो और
बिताओ जीवन को शोक में…
मेरी तो आज जीत हुई—
सबका जीवन डालकर नरक में…

होना

होगा तो होगा
नहीं तो नहीं।

ऐसे ही

जीवन को रखो

और कुछ सीखो

सड़क पर बैठी हुई
उस उघारी भिक्षुणी की
दो आँखें स्थिर हैं
किसी भी विरोध के सामने

हाँ है,
यह भी है।

छुट्टी

हो सकता है कि आया हो वो,
लेकिन मैंने नहीं देखा हो।
क्या अभी वो बहुत दूर चला गया?
जाऊँगा। जाऊँगा। जाऊँगा।

सारा कुछ तैयार है।
अभी सिर्फ़ विदा लेना
सब पर आँख है
जाने के समय प्रणाम!
प्रणाम!

नाम क्या?
मेरा कोई नाम नहीं है तो
बँधी हुई नाव है दो
बहुत दूर सब तरफ़ फ़ैला है जाल
समुद्र में।

देश हमारा आज भी कोई…

जंगल के कटे हुए हाथ कराह उठे
गारो पहाड़ के पैरों में कटे हुए हाथ कराह उठे
सिंधु के स्रोत की तरफ़ कटे हुए हाथ कराह उठे
कौन किसे समझाएगा कुछ और

समुद्र में गए थे जब
लहरों के सिरों में हज़ारों-हज़ार टूटी हुई हड्डियाँ
रौशनी के अंतर से हज़ारों-हज़ार टूटी हुई हड्डियाँ
शिखर-गुंबदों से हज़ारों-हज़ार टूटी हड्डियाँ
तुम्हारी आँखों के सामने कूदती चिल्लाती रहती हैं
सामूहिक स्वरों से सारी ध्वनियाँ मिल जाती हैं
बेछोर कंठहीन सामूहिक स्वर
देह ढूँढ़ती हुई चिल्ला रही है
शून्य में पंजा मारकर वे उखाड़ लेना चाहते हैं दिल
जैसे ही वे विनाश के नृत्य में उँगलियों के पास पहुँचे
उँगलियाँ चिल्लाने लगीं
पानी के अंदर या ग्लेशियर के ऊपर
कौन किसको समझाएगा कुछ और!
निरर्थक शब्द सब हाहाकार करते हैं
और तुम स्तब्ध होकर सुन रहे हो
देश हमारा आज भी कोई
देश हमारा आज भी कोई
देश ने हमें कोई मातृभाषा नहीं दी अभी तक!


शंख घोष [1932–2021] समादृत बांग्ला कवि-आलोचक हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व-प्रकाशित उनकी कविताओं और गद्य के लिए यहाँ देखिए  : पानी के भीतर कितने मुक्तिपथ हैं | निभृत प्राणों के देवता

बेबी शॉ नई पीढ़ी की सुपरिचित-सम्मानित कवि-कथाकार-अनुवादक हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व-प्रकाशित उनकी कविताओं और अनुवाद-कार्य के लिए यहाँ देखिए : क्या अब भी पाठ-योग्य नहीं हुआ समय! | तुम्हें दुखी करना मेरे जीवन का तरीक़ा नहीं है | अंतिम पृष्ठ पर कविता की तरह | मैं लिखूँगा | द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने के बाद | केवल देवी बनकर जीवित रहना संभव नहीं इस संसार में | हमारा मर्म हमारे जीवन का शिल्प है

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