कविताएँ ::
जावेद आलम ख़ान

जावेद आलम ख़ान

मैं

न तो रूप का लावण्य है
न देह का ताप
न मन का विस्तार है
न चेतना का बहाव
इन्हें तो काव्य-मर्यादा का दोष भी नहीं लगता
इच्छाएँ भरतमुनि की नटी ठहरीं
जिन्होंने भाषा के बर्ताव से मुक्त होकर
भंगिमाओं में व्यक्त होना चुना
और हर बार अपने ही हाथों छली गईं

पैर फैलाने की जुगत में नए आयाम ढूँढ़ती
त्रासदियाँ चाहती रहीं स्वप्नों के साथ
सतृष्ण-सलज्ज-सहज अभिसार
और स्वप्न फूलों की तलाश में भागते रहे

हर मसले में मसाला ढूँढ़ने की लोलुपता
संकुचन और प्रसार को जीवन का सार समझती रही
और जीवन आलते के पानी-सा बह गया

अपनी ही प्रेतछाया से शापित देह
किसी ठूँठ की तरह अपनी धुरी पर खड़ी है
अग्निधर्मा गंध की आस में
तुम्हारे हम के चक्कर में
मेरा मैं भी गया

प्रिय! क्या उपहार दूँ

तुम्हें देने के लिए कुछ नहीं मेरे पास
सिवाय पिघली हुई साँसों के
और शहद तले अल्फ़ाज़ों के

देने को दे सकता हूँ
तुम्हें अपनी आत्मा की स्याही
कि इससे विरह-गीत तो
लिखा ही जा सकता है
लेकिन जानता हूँ
शब्दों की फंदेबाजी से उबका जाती हो तुम

सोचता हूँ एक चुम्बन दे दूँ
चिबुक से थोड़ा ऊपर
जहाँ अधरों की सीमा शुरू होती है
पर प्यार करने का यह बासी तरीक़ा ठहरा

और कुछ नहीं तो बूँदाबाँदी के बीच
हाथ पकड़कर लॉन में टहलते हुए
उड़ते बादलों के बदलते हुए रंगों पर
बात की ही जानी चाहिए
लेकिन जब दुनिया में इतने रंग बिखरे हो
तो मौसमों की बदमिज़ाजी में
तुम्हारे लिए ज़ेरे-बहस कोई बात भी नहीं दिखती

प्रिय! क्या उपहार दूँ
इस पुरानी काया में
कुछ भी तो नया नहीं मेरे पास

अनसुनी आवाज़ें

अनसुनी कर दी गई आवाज़ें आख़िर कहाँ जाती हैं
क्या पराजित योद्धाओं की निराशा में छिपकर
महासागर की अनंत यात्रा पर निकल जाती हैं
या वर्षा की रात्रि में तम समाधि धारण कर लेती हैं
या मक़्तूल शहर की चीत्कार में गुम हो जाती हैं
या समा जाती है गिरजे के घंटे की गूँज में
या महाभिक्षु के पदचाप की सहायक बन
अहिंसा के उपदेशों में दौड़ लगाती हैं
या पीछा करती है अंतरिक्ष में भटक रही
अपनी सगोत्र ध्वनियों का

वे बन सकती थीं बालमन की मासूम शिकायतें
वे दिख सकती थीं मानिनी नायिका के उलाहने में
घाटियों से टकराकर लौट सकती थीं कंदुक की तरह
मंदिर की घंटियों के स्वर को राखी बाँध सकती थीं
संगतकार की सम पर
नर्तकी के घुँघरुओं में उतर सकती थीं
कास-कपास के कंपन में शामिल हो सकती थीं
हिमानी के आलिंगन में पिघल सकती थीं

पर क्या सुने जाने के लिए इतना काफ़ी था
नहीं यक़ीनन नहीं

इसीलिए बस इसीलिए
उन्हे पहन लेना चाहिए था
इंक़िलाब का ज़िरह-बक्तर
उन्हे बदल जाना चाहिए कानफोडू संगीत को
चीर देने वाली चीख़ में
उन्हे उठना चाहिए बीजों के प्रस्फुटन में
उन्हे पिसना चाहिए दो पर्वतों के घर्षण में
चंद्रमा के आकर्षण में
लहरों की बेचैनी अपने अंतस में धर लेनी थी
और कर लेनी थी
उठते ज्वार में क्रांति की उद्घोषणा

हिसाब

सठियाने की सीमा तक नौकरी करूँगा
फिर रिटायर होकर लौट जाऊँगा अपने देस

मेरे जलालाबाद मुझे याद रखना
पुराना हिसाब है लौटूँगा ज़रूर
तुम्हारी मिट्टी तुम्हे सौंप देने के लिए
और तुम मुझे सौंप देना
मेरी काया भर ज़मीन

निर्वासन

गाँव और शहर की दरमियानी सड़क पर
हम जब भी मिलते
हमारे भीतर वसंत अँगड़ाइयाँ लेता था
रोम-रोम में खिलती थीं आम्र-मंजारियाँ
हम सरसों के खेत से लहलहाते थे

हमारे स्वप्न हिमालय के शिखर पर खड़े होकर
परिस्तान के दरवाज़े पर आवाज़ लगाते हुए
बदलती ऋतुओं और मौसमों के ज़ायक़े बताते थे

भीतर की आग से पिघल जाती थी साँसों की साँकल
शरीर पर फूटने लगती थी अमरूद की कलियाँ

और फिर हम बड़े हो गए
हमारे बीच एक मेड़ खिंच गई
सरसों पेर ली गई
आम्र-मंजारियाँ सूख गईं
स्वप्न बेदख़्ल हो गए नींद की दहलीज़ से
तब से वसंत निर्वासन की पीड़ा झेल रहा है

अनागरिकता

दुनिया के संविधान में अनागरिकों की
एक लिखित नियमावली होनी चाहिए
अनुपयोगिता की भी होनी चाहिए एक संहिता
फ़लसफ़ों से बाहर लिखी जानी चाहिए
बरहना जिस्म पर ताज-सी सजी
लामकाँ हो जाने की अनकही पीड़ा

तुम्हारा शग़ल है तो छीन लो हमारी नागरिकता
लेकिन तहजीब में रची-बसी
और हमारे रोम-रोम से फूटती भाषा से
कैसे छीनोगे उसका हिंदुस्तानी तार्रूफ़
कैसे छीनोगे हमारी नस्ल जो तुम्हारी भी नस्ल है
अगरचे हमारी पहचान को दफ़न करना तुम्हारी सनक है
तो आओ हमारी देह के साथ
अपनी सनक को भी दफ़न कर दो
लेकिन मिट्टी को मिट्टी से
अलग कैसे करोगे सरकार

बेइंतिहा चाबुक बरसाओ हमारे ईमान पर
और गर्व से फूल जाओ
लहूलुहान कर दो समूचे वजूद को
और अट्टहास करो
कुर्क कर दो हमारी संपत्तियाँ और जश्न मनाओ
हत्याओं की कारीगरी राष्ट्र-व्यवसाय घोषित करो
और गूँगे पुरोहितों से राजतिलक करवाओ
बलात्कारियों का स्तुति-गान करो
और राष्ट्रीय कवि कहलाओ
भरोसे को छलनी करो
और साम-दाम-दण्ड-भेद पर मुबाहिसे चलवाओ

चीख़ें कान पकड़ लें तो संगीत सुनो
पेट चीर कर निकाले गए मुर्दा चेहरे दिखाई दें
तो ऑपरेशन वाले डॉक्टर-सी फीलिंग लेते हुए
स्कॉच का घूँट भरो
दयालु दिखने के लिए
बग़ीचे में बैठकर मोर को दाना खिलाओ
ख़ूँरेजी से उकता जाओ तो
रेडियो पर प्यार भरे नग़में सुनो

लेकिन किसी धोखा खाई सर्द रात में
बड़े से घर में निचाट अकेले पड़े-पड़े
हज़ार काँटों की एक साथ चुभन से
कराह उठे बीमार आत्मा
और कुछ समझ न आए
आँखें बंद करने पर दिखाई दे
दंभ का बुलडोजर
तिनका-तिनका होकर उड़ता हुआ कोई घर

तब नींद के लिए कौन-सी दवा लीजिएगा सरकार?
तिनकों को चुभने से कैसे रोकिएगा सरकार?


जावेद आलम ख़ान सुपरिचित हिंदी कवि हैं। ‘स्याह वक़्त की इबारतें’ शीर्षक से उनका एक कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुका है। उनसे javedalamkhan1980@gmail.com पर संवाद संभव है।

10 Comments

  1. Sohail Alam Khan नवम्बर 11, 2024 at 9:17 पूर्वाह्न

    बहुत सुन्दर कविताएं।।।
    बिल्कुल मंत्रमुग्ध करने वाली।।।
    मजा आ गया।।।

    Reply
  2. शिव कुशवाहा नवम्बर 11, 2024 at 9:39 पूर्वाह्न

    जावेद आलम खान की कविताएं अपनी प्रासंगिकता के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं साथ ही समय के खुरदरे अक्स को बखूबी उकेरती हैं। सत्ता और समाज के बीच बढ़ती दूरी और यथार्थ को रेखांकित करती कविताएं गंभीर प्रश्न उठाती हैं।
    शानदार कविताओं के लिए कवि को बधाई..

    Reply
    1. इन्द्र राठौर नवम्बर 12, 2024 at 2:07 पूर्वाह्न

      स्याह वक्त की इबारतें’

      जावेद आलम खान के पहले संग्रह पर

      मैंने काफी विस्तार से बात की थी ।

      तब जावेद में कविताएं ,
      उस तरह पगी नहीं थी

      जो आज मैं उन्हें ‘सदानीरा’ के इस अंक में देख पा रहा हूं ।

      दरअसल जावेद को मैं अभी एक लंबे अंतराल के बाद ही देखा

      बेहद ताज्जुब हो रहा है जिस कवि को उनके पहले संग्रह पर मैंने
      काफ़ी कुछ कहा

      वह इस तरह
      मेरे सामने प्रौढ़ हो ,
      खड़ा हो गया है ।

      जावेद को मैं लगातार इस बात की समझाइश देते रहा

      कि वे अपने
      अन्यमनस्कता से विरत हों ,
      साफ़ और मुखर हो , कहें

      मैं आश्चर्य से भर गया हूं
      कि जावेद मेरे कहने की गुंजाइश के लिए
      कोई स्पेस नहीं छोड़े हैं ।

      सदानीरा के इस अंक में प्रस्तुत कविताओं में ‘मैं’ को यदि भूल जाऊं तो जावेद आलम खान मुझे उसी तरह दिख रहे हैं जैसा कि मेरी आंखें समग्र वैचारिकी में देखने को अभ्यस्त है ।

      ‘प्रिया क्या उपहार दूं’ ‘अनसुनी आवाजें’ ‘हिसाब’ ‘निर्वासन’ ‘अनागरिकता’

      ये सब ऐसी कविताएं हैं जिनमें प्रौढ़ जीवनानुभूति है

      समय है
      संकट और दुर्धुर्ष संघर्ष हैं

      फासीवाद के बढ़ते प्रभावों की मुखालफ़त है

      भाषा और अपने मुहावरे तो खैर
      जावेद पहले ही हासिल कर चुके थे

      जिसे
      वे अधिक
      सुगठित कर लिए हैं

      प्रवाह पहले के मुकाबले न सिर्फ बढ़े ही
      शाइन कर गया है

      जरूरी शालीनता के साथ आक्रामक हो आया है

      खैर
      प्रिय कवि को मेरी अशेष शुभकामनाएं ।

      रेस बड़ी है
      दौड़ बदस्तूर जारी रहे ।

      Reply
  3. Shabbu khan नवम्बर 11, 2024 at 9:49 पूर्वाह्न

    कविताओ बेहतरीन संकलन कविता का हर शब्द सागर की गहराईयों मे जैसे गोता लगा कर निकाला गया हो पढकर बहुत अच्छा लगा

    Reply
  4. ऋतु डिमरी नौटियाल नवम्बर 11, 2024 at 2:45 अपराह्न

    जावेद जी की हर कविता अंतस में रुक रही है। पहली कविता में मसाले के मसले में, मैं, मैं भी ना रहा, कैसे व्यवहारिकता हमपे हावी हो जाती है और हम भाव से दूर होते चले जाते हैं। दूसरी कविता में कवि अपनी प्रिया को क्या उपहार दे, वो तो कवि है, कुछ भी कहेगा तो शब्द भी कवित्व‌ जादू लगेंगे।
    वो क्या ऐसा कहे उपहार के रूप में कि उसका कवि होना कहीं ना दिखाई दे, बड़ी विडम्बना से भरी स्थिति है। तीसरी कविता हर कविता अंतस में रुक रही है। पहली कविता में मसाले के मसले में, मैं, मैं भी ना रहा, कैसे व्यवहारिकता हमपे हावी हो जाती है और हम भाव से दूर होते चले जाते हैं। दूसरी कविता में कवि अपनी प्रिया को क्या उपहार दे, वो तो कवि है, कुछ भी कहेगा तो शब्द भी कवित्व‌ जादू लगेंगे।
    वो क्या ऐसा कहे उपहार के रूप में कि उसका कवि होना कहीं ना दिखाई दे, बड़ी विडम्बना से भरी स्थिति है । तीसरी कविता में अनसुनी आवाजों का आंदोलन में बदल जाने का सुंदर आह्वान है। चौथी कविता में जिस मिट्टी में उगे उस मिट्टी में वापिस लौट जाने के अंत की ख्वाहिश है। पांचवी कविता में चयनित निर्वासन की पीड़ा का बेहद संवेदित करता चित्रण है।
    छठवीं कविता मेरी सबसे पसंदीदा कविता है‌ जिसमें एक नागरिक को उसके धर्म या जाति या किसी और आधार पे भेदभाव, दुराव झेलते हुए खुद के अनागरिक होने के आभास से गुजरना पड़ता है पर फिर उसे अपने नागरिक के रूप में किये गये योगदान और अपनेपन से रचीबसी इस मिट्टी की अपनी नागरिकता से इस मिट्टी की पहचान का अहसास लौट आता है, इस अहसास को सलाम।

    Reply
  5. श्रीलाल जे एच आलोरिया नवम्बर 11, 2024 at 3:41 अपराह्न

    जावेद आलम खान उम्दा कवियों की जमात में एक नायाब हीरे समान हैं। शब्द रचना की अनूठी कला में अनन्य भाव और देश प्रेम की वकालत करती उनकी रचनाएं नया आयाम छूती प्रतीत होती हैं।
    आज के बदलते दौर में पनपती नई खामियों और समस्याओं को सहजता से उकेरती उनकी रचनाएं अंतर्मन के भाव जगा जाती हैं।

    Reply
  6. ASHOK KUMAR SHARMA नवम्बर 12, 2024 at 2:55 पूर्वाह्न

    जावेद की कविताओं का नियमित पाठक रहा हूं। प्रेम और प्रतिरोध के सुरों में रची बसी जावेद की कविताएं सामाजिक ताने-बाने को समझती हुई बेहतरीन कविताएं होती हैं। किंतु इस बार जावेद ने बेहतरीन भाषा और गजब के शिल्प के साथ बिल्कुल नवीनतम बिंबो से युक्त कमाल की कविताएं लिखी हैं। शुक्रिया सदानीरा बेहतरीन कविताओं के लिए।

    Reply
  7. कुमार अरुण नवम्बर 12, 2024 at 5:42 पूर्वाह्न

    अनागरिकता – खूब ! खूब !

    Reply
  8. ,mohd azam khan नवम्बर 13, 2024 at 4:49 अपराह्न

    कविताओं का पिटारा
    मै , क्या उपहार दू , जैसी कविताओं ने मन को मंत्र मुद्द कर दिया

    Reply
  9. आलोक कुमार मिश्रा नवम्बर 14, 2024 at 3:57 अपराह्न

    बेहद सधे हुए शिल्प और भाषा में लिखी गई करुणा की लिपि में ये कविताएं हमारे समय का दस्तावेज़ भी हैं। जावेद की एक कवि के रूप में जर्नी क्या ख़ूब और लाज़वाब रही है। बेहद उम्दा रचनाएं। बधाई उन्हें।

    Reply

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