गद्य कविताएँ ::
किंशुक गुप्ता

किंशुक गुप्ता

प्यारे बच्चे, अपने माँ-बाप की तरह समझदार मत बनना

मूर्ख होना ताकि दुनिया तुम्हें बेचारा समझे और बख़्श दे। अदहन में खदकता हुआ संगीत सुनना। संतरे के उस छिलके को बचाने का असाधारण प्रयास करना, जिस पर बिल्ली मरने से पहले पंजे के निशान छोड़ जाए। देखना कैसे हँसता हुआ आदमी गुड़हल के फूल की तरह अपना शरीर दुनिया की तरफ़ खोलता है। अपनी हथेली पर बर्फ़ के टुकड़े का आकार खोता देखकर माफ़ी माँगना। आम के पत्ते पर रोशनी का घोंसला देखना। थकान से शरीर टूटने पर नींबू का छिलका सूँघना। गारंटी, प्लानिंग, स्टेबिलिटी… जैसे शब्दों की लुगदी घोल कर पी जाना। ऊब या उदासी होने पर साँस रोककर देखना। इंसान को साबुत हाथ-पैर से ज़्यादा समझना। अपने कुत्ते के पीछे-पीछे चलना। देखना कैसे पराग कुमुदनी की पत्तियों को रँगता है और पितृसत्ता के बारे में सोचना। सोचना भूख जब टख़नों तक डूबी औरत को धान रोपते देखो। अधूरे चुम्बन के बारे में सोचना जब विधवा के चेहरे पर पसीने की लकीर को होंठों तक आने से पहले पुँछता देखो। जानना चुम्बन चौथी मूलभूत आवश्यकता है। उस चुम्बन को ऐसे खोजना जैसे रोशनी को हिरण। उसकी चमकती आँखें, कुलाँचे भरता शरीर, पैरों की कुलबुलाहट देखना। क्या फ़र्क़ पड़ता है अगर तभी गोली चली और उसका शरीर खून का पीपा बन गया। तुम उसकी आँखें देखना : कैसे विस्मय मौत की कालिख पर भारी पड़ता है। देखना, ध्यान से देखना, घूरकर देखना, इस तरह देखना कि तुम्हारे देखने से धरती बदल रही है। जब तुम्हें यह पर्याप्त न लगे और तुम समझदार बनने की कोशिश करो तो समझ लेना यह पूँजीवाद है। तब तुम तुरंत अपने अंदर पनाह लेना। तुम्हारे जीवन का एकमात्र मक़सद है—केवल एक संभावना बनना।

युद्ध की सालगिरह

हवा पॉपलर के तनों को काट रही है। बिजली औरत के शरीर से रिसती ख़ून की लकीर है। बादलों के काले थक्के फ़ाशीवाद की तरह फैल रहे हैं। मैं उस खिड़की के सिरहाने खड़ा हूँ, जिससे हम दुनिया ताका करते थे। अब जहाँ से अँधेरा घुसपैठ कर रहा है। अँधेरा संसार की जिल्द बन गया है। वह गरज रहा है। उसने ईश्वर की प्रतिमा को खंडित कर दिया है। वह मेरे शरीर पर रेंग कर ऊपर चढ़ रहा है। प्रेम की हर स्मृति में अपना दाँत गड़ा रहा है। मेरी त्वचा फूल रही है। धमनियों का मकड़जाल टूट रहा है। कोशिकाएँ इस तरह दम तोड़ रही हैं, जैसे युद्ध में बच्चे।

वह अँधेरा मेरे मुँह में है। उसका स्वाद कसैला है। गंध जलते हुए बालों-सी है। वह गले में चिकने पत्थर की तरह फिसलता जा रहा है। उसकी सेना ने मेरे ख़ून के साथ संधि कर ली है। वे अवैध हथियारों से लैस हैं। बंदूक़ें तन चुकी हैं। मेरे अंगों पर। गौरी लंकेश की आँख पर। सफ़दर हाशमी की ज़ुबान पर। लोर्का के लिंग पर। सब देख रहे हैं। उन्होंने अँधेरे को पुचकार कर उसके दुशाले बना लिए हैं। बंदूक़ें चलने लगती हैं। ठाँए-ठाँए ठाँ-ठाँ-ठाँ। लोग बोरियों की तरह ढह रहे हैं। सब लोग हँस रहे हैं। मेरे माँ-बाप तालियाँ बजा रहे हैं। सब उँगलियों की हड्डियों के पॉपकॉर्न का इंतिज़ार कर रहे हैं।

प्रेम की शक्ल

तुम अक्सर पूछते हो : क्यों-किसलिए-कब तक, रोशनी को तलाशता मेरा शरीर झुलस जाएगा। तुम भी मुझे वैसा प्रेम करना चाहते हो। कोशिश करते हो। बार-बार। हर बार हार जाते हो। तुम्हारा प्रेम नियमों की झक सफ़ेद, कलफ़दार कमीज़ पहने पहरेदार है। उस दिन रसोई में खड़े तुम अचानक कहने लगे थे कि तुम्हारे प्रेम की शक्ल कॉफ़ी बीन की होगी, जिसकी गंध हर महक को काट देती है। तुम हँसे, हँसते-हँसते रोने लगे। यही तुम्हारी हक़ीक़त है। तुम इसे झुठला नहीं सकते। तुम्हें इसे जीना होगा।

मुझे अपने पहले प्रेमी की बात याद आती है : प्रेम कभी बराबर नहीं होता। एक पाता है, दूसरा देता है। गिवर एंड टेकर। तुमसे पहले मेरे सभी प्रेमी देना जानते थे। तब मैं नहीं जानता था कि देना उतना कठिन नहीं है, जितना यह जानना कि तुम्हारे प्रेमी का आयतन उसे ग्रहण करने के लिए उपयुक्त नहीं। यह बिल्कुल वैसा एहसास है, जैसे नमक डालने पर केंचुए का तड़पना। धीरे-धीरे उसके शरीर का सिकुड़ना। सिरके में डली मिर्चों का रंग छोड़ना। जानता हूँ, जानता हूँ तुम यही कहोगे कि प्रेम में ख़त्म होने के बिंबों से तुम्हें कोफ़्त होती है कि यह बताता है मेरे शरीर में कितना डर है। तुमसे प्रेम करते-करते यह डर जुड़कर गुच्छा बन गया है। नाभि के पास। बेज़ोअर। तुम्हारे जाने के बाद यह बचेगा। पेट में मरोड़ पैदा करेगा। यह मुझे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि लगती है। जो रिहा करता है, उस प्रेम की शक़्ल कैसी होती है?


किंशुक गुप्ता नई पीढ़ी के कवि-लेखक-स्तंभकार-संपादक-अनुवादक हैं। उनका एक कहानी-संग्रह ‘ये दिल है कि चोर दरवाज़ा’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है। उनसे kinshuksameer@gmail.com पर संवाद संभव है। उनके अनुवाद में ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित लुइज़ ग्लुक की कविताएँ यहाँ पढ़ सकते हैं : परछाइयाँ अपनी मालिक ख़ुद होती हैं और रात में कहीं भी जा सकती हैं

1 Comments

  1. Eisha Jain नवम्बर 22, 2024 at 1:22 अपराह्न

    … पहली ही गद्य कविता को पढ़कर मै एक हफ्ता ठहर कर सोच सकती हूं, एक एक पंक्ति को जीवन में उतारने भी लगूं, तो भी नहीं हो पाएगा….इंसान होना सरल है, इंसानियत को ढोना कठिन

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