कविताएँ ::
कंचन जायसवाल

कंचन जायसवाल

देह-राग

एक

दर्पण के सामने निर्वस्त्र बैठी है स्त्री—
अपने केश सहलाते हुए

वह अनोखे दर्प से ख़ुद को निहारती है—
दर्पण के सामने

आँख की भ्रू-रेख बहुत सुंदर है

यह जो वक्ष के ऊपर
ज़रा दाहिने
काला तिल है
यह मछली की आँख है

दर्पण को छूकर
वह अपनी देह का
आचमन करना चाहती है

पर यह क्या
छूते ही दर्पण पिघल जाता है

स्त्री मिट्टी की
उदास मूरत में
बदल जाती है।

दो

बीस साल पुराने इश्क़ की याद में
इक्कीसवीं सदी के चमचमाते फ़रेब के भीतर
औरत अपने प्रेमी के सामने
अपनी देह खोल रही है

प्रेमी अपनी हथेली से
दूसरी स्त्री की देह सहलाते हुए
ज़रा और ऊपर करो
ज़रा और सामने आओ—कहते हुए—
प्रेम का परदाफ़ाश करता है

औरत अपनी बोरियत के अंतर्वस्त्र
खींचकर उतार फेंकती है

वह जानती है—
उसकी देह का होना
प्रेम का होना नहीं है
और उसकी नाभि में जो कस्तूरी है
वह उसी से छली जा रही है।

तीन

वह बहुत आश्वस्त है
बहुत सुकून में भी
घर के भीतर का एकांत
उसकी देह में कुंडली मारे बैठा है
और वह अपना लैपटॉप खोले
पेट के बल लेटकर
आभासी प्रेमी से चुहल कर रही है
सारी तल्ख़ियाँ, उपेक्षाएँ और इंतिज़ार से उपजे विषाद को
आभासी प्रेमी अपनी आवाज़ से मिटा रहा है
उसकी आवाज़ सुगंध की भाँति
आत्मा के अदृश्य धरातल पर नृत्य कर रही है
एक आवाज़ के साये तले
औरत गुम हो रही है
कि तभी लैपटॉप की बैटरी लो हो जाती है
वह अपनी कामनाओं भरी देह समेट लेती है
आवाज की लय देर तक
उसकी देह में थिरकती है।

चार

यह आग है
जो लील रही है मुझे—
देह की आग

मैं जितनी बार
इसमें प्रवेश करती हूँ
यह दोगुनी होकर धधकती है

मैं अगर शिला में बदल जाती
तब भी कामना
मेरे भीतर जलती रहती

कामना का कोई पुरुष
पाँव के अँगूठे से छूकर
मेरी देह को जिला दे

मैं पाकर अँगूठे का स्पर्श मात्र
अपनी देहाग्नि में
समेट लेती समूचे ईश्वर को।

पाँच

प्राचीनतम है—स्त्री की देह
और उसके भीतर की अग्नि

जैसे पत्थर को पत्थर से रगड़ने पर
पैदा होती है अग्नि
अग्नि जो जीवन को गति देती है
वैसे ही स्त्री के भीतर की अग्नि
पुरुष को गति देती है

इस गति से
इच्छाओं की रोशनी का
संगीत बज उठता है।

छह

उसकी देह शीशे की तरह पिघलती है

परदे के उस तरफ़ बैठा पुरुष
उत्तेजना के ज्वार में चूमता है
उसकी देह

कई-कई बार
औरत करवट लेती है
और नींद में पानी के भीतर
छलाँग मार देती है
उसी समय पुरुष
सुदूर किसी समुद्री-यात्रा में है

यहाँ रात है
वहाँ दिन
यही उजाले-अँधेरे का खेल
बदस्तूर जारी है
देह के उजाले-अँधेरे की तरह
अपने हाथ से छूकर
जिस समय को फिसल जाने दिया तुमने
वही अँधेरा समय फन फैलाए
पूरे जीवन को लील लेता है।

सात

एक आहट-सी है

इस तरह तुम्हारा आना
कि सारे दरवाज़े खुले हैं
सारे रास्ते रोशन

देह मेरी कोयले-सी—
तुम्हारे स्पर्श के पानी से जाग उठी है

मैं चोर-मन के दरवाज़े पर
साँकल चढ़ाती हूँ
और धीरे-धीरे बज उठती है सरगम

मैं नीम अँधेरे में
अपने वस्त्र खोल रही हूँ
और तुम दूसरी दुनिया में अपनी गाँठे

देह सितार-सी झनझना उठी है
और सारे सुर बेसुरे-से

हम अलग-अलग—
दो समयों के दो क़ैदी।


कंचन जायसवाल की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। वह हिंदी की नई पीढ़ी की लेखिका हैं। उनकी कविताओं की एक किताब वर्ष 2022 में ‘स्त्रियाँ और सपने’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुकी है। वह अयोध्यावासी हैं और बेसिक शिक्षा विभाग में सहायक अध्यापक के रूप में कार्यरत हैं। उनसे kanchanlata.Jaiswal@gmail.com पर बात की जा सकती है।

1 Comments

  1. वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी अगस्त 6, 2024 at 2:44 अपराह्न

    बहुत ही संवेदनशील कविताएं हैं कंचन जायसवाल की।साधु।

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