नसीर अहमद नासिर की नज़्में ::
उर्दू से लिप्यंतरण : मुमताज़ इक़बाल
नज़्म के लिए एक नज़्म
पूछती है
नज़्म क्या है?
नज़्म उसकी ख़ूबसूरत नाक है
तरबूज़ की क़ाशों-से दोनों होंट उसके नज़्म हैं
आँखों में फैला साफ़-सुथरा आसमाँ भी नज़्म है
गहरे स्लेटी बादलों जैसे घनेरे बाल उसके
और पेशानी उफ़क़-सी नज़्म है
नज़्म बच्चों की शरारत,
नज़्म बूढ़ी औरतों की गुफ़्तगू है
नज़्म अच्छे दोस्तों के साथ गुज़री शाम है
नज़्म वेटिंग लाउंज में बैठी
मुसाफ़िर लड़कियों के हाथ का सामान है
पार्कों में सैर करते, खेलते, पिकनिक मनाते
लोग सारे नज़्म के किरदार हैं
नज़्म सैनिटोरियम की सीढ़ियों पर ज़िंदगी की धूप है
नज़्म उर्यां पोस्टर है
नज़्म जिप्सी गर्ल है
नज़्म वंडरलैंड है
नज़्म नीली झील है
आबी परिंदे की चटानों से फिसलती चीख़ है
नज़्म वाटरफ़ॉल है
नज़्म चारों मौसमों की सिंफ़नी है
नज़्म उजली बारिशों का गीत है
नज़्म कुब्ड़ी रैंबो है
बोस्निया के सारे बच्चे नज़्म के अल्फ़ाज़ हैं
इज्तिमाई आबरूरेज़ी से पहले औरतें भी नज़्म की तमहीद थीं
अब मुकम्मल नज़्म हैं
टॉर्चर चैंबर मैं क़ैदी की घुटी-सी चीख़ भी तो नज़्म है
कश्मीर की बर्फ़ाब वादी में लहू की आग भी अब नज़्म बनती जा रही है
भूक से मरता हुआ सोमालिया भी नज़्म है
पीसकीपिंग सोल्जर की लाश का ताबूत ज़िंदा नज़्म है
पूछती है
नज़्म क्या है?
क्या बताऊँ मैं कि
उसकी नज़्म लिखती उँगलियाँ भी नज़्म हैं
नज़्म उसके हाथ की तहरीर है
नज़्म उसकी ख़ूबरू तस्वीर है
नज़्म उसके ब्राउन सैंडल
नज़्म उसके पाँव की तक़दीर है
जानती है!
कासनी कपड़ों में बिल्कुल नज़्म लगती है मुझे वो
फिर भी मुझसे पूछती है
नज़्म क्या है?
एक परिंदा नज़्म
परिंदे!
मिरे होंटों की शाख़ों पर
मिरे अल्फ़ाज़ पीले हो चुके हैं
आ, इन्हें शादाब होने की बशारत दे!!
परिंदे!
मिरी आँखों के पिंजरे में
मिरे सब ख़्वाब नीले हो चुके हैं
आ, इन्हें अब दफ़्न होने की इजाज़त दे!!
परिंदे!
मिरे आँगन के गमलों में
मुसलसल बारिशों से फूल गीले हो चुके हैं
आ, इन्हें अपने परों की नर्म नर्मीली तमाज़त दे!!
परिंदे!
मिरे बच्चों की बाँहों में
अधूरी ख़्वाहिशों के जाल में उलझे
ये नन्हे ज़ायक़े कड़वे कसैले हो चुके हैं
आ, इन्हें हैरत भरी मासूम-सी कोई शरारत दे!!
परिंदे!
मिरी नज़्मों के लफ़्ज़ों में
ये कच्चे फल रसीले हो चुके हैं
आ, इन्हें अब टूट गिरने की सआदत दे!!
दुखी लफ़्ज़ों की एक नज़्म
खुले दरीचों के पास बेलों पे शाम उतरी तो उसने सोचा :
कभी दिसंबर की धूप जैसा वो मेहरबाँ जो कहीं नहीं है
हवा के होंटों पे गीत लिखता तो बालकनी में फूल खिलते
जो लोग आँखों के ख़्वाब लेकर समुंदरों में उतर गए थे
वो जानते थे कि रेग-ए-साहिल मोहब्बतों की अमीं नहीं है
जो लोग रस्तों में फिर न मिलने का अहद करके बिछड़ गए थे
किसे ख़बर है कि वो हवाओं के गीत बन कर, थके परिंदों,
बिखरते पत्तों के मीत बनकर उदास राहों में गूँजते हैं!
इन्हीं ख़यालों में गुम वो कमरे से बाहर आई तो उसने देखा :
हवा के झोंके बरामदे में सुतून बनकर खड़े थे लेकिन
दुखों की बेला ने उनके ऊपर अजीब लफ़्ज़ों में लिख दिए थे
गई रुतों के सवालनामे जिन्हें वो पढ़कर बहुत ही रोई!
बिछड़े हुओं के लिए एक नज़्म
ख़्वाब समुंदर में खो जाते हैं
और आँखें सहराओं में
दूर सफ़र पर जाने वालों की यादें
दिल की अलमारी में रक्खी रह जाती हैं
जब तन्हाई आँखों में
और पत्ते सहनों में
आँखमिचौली खेलें तो
दुपहरें कितनी छोटी हो जाती हैं
बिछड़े हुओं से कौन कहे
सरमा की पहली बारिश में
रेस्त्राओं की रौनक़ बढ़ जाती है!
फैलते फ़ासलों की नज़्म
रास्ते मेरे तआक़ुब में हैं
और आँखें हमेशा की तरह
पीछे… बहुत ही पीछे
दरवाज़ों की दर्ज़ों से लगी हैं
माँ के चेहरे पर लकीरें ही लकीरें
और मैं बे-लफ़्ज़ नुक़्ते की तरह…
अपने ही मफ़हूम से ना-आशना
भूकी किताबों के शिकम में क़ैद हूँ
किस तरह सहरा समुंदर में बदलते हैं
बिछड़ते वक़्त अपनों की निगाहों में
अगर कोई ज़रा-सा
झाँक ले तो जान ले!
याद है!
जाते हुए तुमने कहा था
जब सफ़र का ख़्वाब
हाथों की लकीरों से निकलकर
पाँव की तक़दीर होगा
और दो आँखें हमेशा की तरह
पीछे… बहुत ही पीछे
दरवाज़ों के दर्ज़ों से लगी होंगी
वो लम्हा हमारे दरमियाँ
राबिते की आख़िरी ज़ंजीर होगा!!
दिसंबर की आख़िरी नज़्म
जब दिसंबर की हारी हुई
आख़िरी शाम की
ज़र्द ठिठुरी हुई सिसकियाँ
रात की बेकराँ, मुंजमिद गोद में
छुप के सो जाएँगे
नीलगूँ आसमाँ से
नई ख़्वाहिशों के सहीफ़े लिए
जनवरी की सहर
मुस्कुराती हुई आएगी
और माज़ी की दीमकज़दा लाश पर
बर्फ़ जम जाएगी
सोचता हूँ कभी ज़िंदगी
सालहा-साल की
गर्दिशों का सिला पाएगी…!
मंज़र-मंज़र मादूम होती नज़्म
यहाँ अब ख़्वाब ऐसे हैं
कि जैसे धूल में झुलसी हुई ख़ुश्बू
यहाँ अब फूल ऐसे हैं
कि जैसे घास पर टपके हुए आँसू
यहाँ अब ज़ख़्म ऐसे हैं
कि जैसे शाम के महके हुए जादू
यहाँ अब दीप ऐसे हैं
कि जैसे रात से बिछड़े हुए जुगनू
यहाँ अब लोग ऐसे हैं
कि जैसे तीर में अटके हुए आहू
यहाँ अब लफ़्ज़ ऐसे हैं
कि जैसे जिस्म से कटकर गिरे बाज़ू
जिन्हें हम दफ़्न करना भूल जाते हैं!
एक बे-इरादा नज़्म
रेल की सीटी
हवा के पेट में
सूराख़ करती जा रही है
अलविदाई हाथ,
लहराते हुए रूमाल,
वादे,
लौट आने की दुआएँ
और लबों पर
मुंजमिद होते हुए
बे-इरादा
पानियों से
आँख भरती जा रही है
रेल की सीटी
हवा के पेट में
सूराख़ करती जा रही है!
एक नीम-मुर्दा नज़्म
मुद्दतें हो गईं
दुख के हैंगर पे लटकी हुई
बे-बदन रूह
तजसीम की मुंतज़िर
सुख के रौशन आसासों की
तक़सीम की मुंतज़िर
ज़िंदगी के सियह अहदनामे में
तरमीम की मुंतज़िर
मौत कब आएगी?
मौत कब आएगी?
इन सवालों में खोई हुई
‘जीम’ की मुंतज़िर!
सोचता हूँ इक नज़्म लिखूँ
सोचता हूँ इक नज़्म लिखूँ
उनकी ख़ातिर
जो बोलते रहने की ख़्वाहिश में ख़ामोश हुए थे
और ताज़ीम करूँ उन लफ़्ज़ों की
जो बिन लिखे और पढ़े मातूब हुए थे,
मसलूब हुए थे
और तरमीम करूँ
उन रिश्तों में
जिनका नाता ख़्वाबों और गुलाबों से था
हर्फों और किताबों से था!
सोचता हूँ इक नज़्म लिखूँ
उनकी ख़ातिर
जो कच्ची उम्रों में
हिजरत पर मजबूर हुए थे
सब जिहतों की जानिब
कोई मुक़द्दस आयत पढ़कर फूँकूँ
और तकरीम करूँ उन रस्तों की
जो बे-सम्ती की दलदल पर ख़त्म हुए थे!
सोचता हूँ इक नज़्म लिखूँ
उनकी ख़ातिर
जो अपनी आँखें ताक़ों में रखकर भूल गए थे
और तजसीम करूँ ख़्वाबों की
जो हमसे पहले जाने वाले
पानी और हवा को सौंप गए थे!
सोचता हूँ इक नज़्म लिखूँ
और…
अनीक़ा के लिए एक नज़्म
तुम्हें विरासत में क्या मिलेगा
मिरी अनीक़ा!
ये चंद नज़्में,
ये चंद ग़ज़लें
तुम्हारे अब्बू के पास टूटे हुए
दिलों की अमानतें हैं
जो तुमसे पहले गुज़र चुके हैं
ये उन दिनों की इनायतें हैं
अजब दुखों की हिकायतें हैं
लहू से लिक्खी इबारतें हैं
नई रुतों की बशारतें हैं
कभी जो तुम पर
उदास लम्हों का जब्र उतरे
तो तुम ये नज़्में ज़रूर पढ़ना
मुझे यक़ीं है
कि तुम पे दुख और सुख का हर फ़लसफ़ा खुलेगा
बस एक लम्हा…
तुम्हारी आँखों में आँसुओं के गुलाब होंगे
तुम्हारे होंटों पे
मुस्कुराहट के ख़्वाब होंगे!
हवा मौत से मावरा है
अपने क़ातिल के लिए एक नज़्म
अगर मेरे सीने में ख़ंजर उतारो
तो ये सोच लेना
हवा का कोई जिस्म होता नहीं…
हवा तो रवानी है
उम्रों के कुहना समुंदर की
लंबी कहानी है
आग़ाज़ जिसका न अंजाम जिसका
अगर मेरे सीने में ख़ंजर उतारो
हवा मौत से मावरा है
हवा माँ के हाथों की थपकी
हवा लोरियों की सदा
हवा नन्हें बच्चों के होंटों से निकली दुआ है
अगर मेरे सीने में ख़ंजर उतारो
तो ये सोच लेना
हवा का कोई जिस्म होता नहीं…
नॉस्टेल्जिया
सफ़र के ख़्वाब में
आँखें कहीं पीछे ही रह जाती हैं
चेहरे साथ चलते हैं
बरसों बाद एक मुलाक़ात
सच कहती हो!
तब मेरी आँखों में
ख़्वाबों की हरियाली थी
अब सहराओं की रेत…!
निशान-ए-एज़ाज़
उम्रों के ख़ालीपन में
ढलती धूप के आँगन में
तमग़े और शिकस्तें लेकर
जंग में मरने वालों की
माँएँ ज़िंदा रहती हैं!
ख़्वाब और नींद के दरमियान सदा-ए-मर्ग
सियह रात चौंकी
अँधेरे की चादर फटी
चाँद निकला
हवा सरसराई
कहीं दूर…
बारूद फटने की आवाज़ आई!
ग्लास हाउस
यहाँ रात आती है लेकिन
कोई ख़्वाब लाती नहीं है
यहाँ धूप चढ़ती है लेकिन
किसी को जगाती नहीं है
यहाँ फूल खिलते हैं लेकिन
हवा गीत गाती नहीं है!
पतझड़ में यादों का सावन
बाहर… पीली सर्द हवा,
गिरते पत्तों का शोर…
अंदर… सुर्ख़ उन्नाबी बेल,
ख़ामोशी का ज़ोर…
सब्ज़ दिनों की यादों से
ऐ दिल! सावन-सावन खेल!!
नींद साहिल पर जागती समुंदर औरतें
उसकी आँखें
आँखों से भी गहरी हैं
उसकी नींदें
नींदों से भी गहरी हैं
उसकी सोचें
सोचों से भी गहरी हैं
उसकी बातें
बातों से भी गहरी हैं
उसकी यादें
यादों से भी गहरी हैं!
इन्हिमाक-ए-जादू
हवाएँ रक़्स करती हैं रवानी से
सियह बादल उमंडते हैं
उफ़क़ की नीलगूँ मादूम होती बे-करानी से
सुनहरी धूप की तख़्ती पे नीली बारिशों के गीत लिखते हैं
परिंदे याद रखते हैं ज़मीनों को निशानी से
समुंदर साहिलों पर ख़त्म होते हैं
जज़ीरे डूब जाते हैं कहीं आँखों के पानी से
सुनो बच्चो!
कहानी टूट जाती है ज़रा-सी बे-ध्यानी से!!
नसीर अहमद नासिर (जन्म :1954) सुपरिचित पाकिस्तानी कवि हैं। वह जदीद उर्दू अदब में नज़्म की शाइरी के हवाले से इंतिहाई मोतबर, साहिब-ए-उस्लूब, रुजहानसाज़ और मुमताज़ शाइर हैं। कम-ओ-बेश चार दहाइयों पर फैली उनकी अदबी ज़िंदगी किसी भी क़िस्म की मनफ़ी अदबी समाजियात, सताइशी तक़रीबों से बेनियाज़ हक़ीक़ी मानों में तख़लीक़ी सचाई की आईनादार है। उनकी यहाँ प्रस्तुत नज़्में उर्दू से हिंदी में लिप्यंतरित करने के लिए उनकी नज़्मों की किताब ‘पानी में गुम ख़्वाब’ से चुनी गई हैं। मुमताज़ इक़बाल से परिचय के लिए यहाँ देखिए : मैं शाइर था लेकिन कहानी सुनाने का फ़न जानता था
प्रस्तुत नज़्में पढ़ते हुए मुश्किल लग रहे शब्दों के अर्थ जानने के लिए यहाँ देखें : शब्दकोश