कविताएँ ::
मनोज कुमार झा

मनोज कुमार झा

नए सपनों में

तुम सपने में आना
घर में बहुत शोर है

सपने भी पुराने होकर
आवाज़ बहुत करते हैं
बहुत जगह घेर रखी है इन्होंने
और मुझे भी इनसे हो गया है बहुत मोह
ज्यों डाल चिपकाए रहती है सूखी छाल

सूखी छाल छोड़ दे अपनी ज़िद
मुझसे भी छूट जाए मोह
और कोई नया सपना बने तो आना

सपना है कि सपने नए हों
और उनमें ख़ूब जगह हो।

पितृ-ऋण

पिता को मुखाग्नि देने झुका तो लगा
रीढ़ बहुत झुक गई है

वह रीढ़ को सीधा रखने को
बार-बार कहते थे
और बार-बार झुकाते थे रीढ़
कि अन्न पहुँचे हमारे मुँह तक

अनेक तहों वाला है पिता का ऋण
जिससे मुक्त होने के लिए
काश रख पाता सीधी अपनी रीढ़!

कामनाएँ

एक आँगन हो
थके हुए बटोही आएँ
बैठें पीढ़ा पर
कुर्सी पर

कुआँ हो
या नलकूप या
सरकारी नल ही
प्यासों को जल मिले

घर में अन्न हो
घर की ज़रूरत से
दो मुट्ठी ज़्यादा

जीवन हो
कबूतर की पाँख-सा
हवा में उड़ता
इससे किसी को भय न लगे

मृत्यु हो
निर्गंध कपूर-सी

कामना है कि
कामनाएँ
धीरे-धीरे
सीढ़ी से उतर जाएँ।

अपने में छुपना

वह चाय पीने आता था
और बहुत देर बैठता था
पुराने स्मार्ट-फ़ोन में पुराने गीत सुनते हुए
किसी अज्ञात को ढूँढ़ते कभी सिर हिलाते
कभी पैर
आस-पास की हवाओं को तरंगित करते

भीड़ बढ़ जाती तो वह किनारे चला जाता
एक कोने की तलाश करते
जहाँ लोग धीमे बोलते हों
लेकिन किससे कहता धीमे बोलने को
ज़ोर की आवाज़ उठती चाय माँगने की
वह किनारे खिसक जाता

वह और भी किनारे जाना चाहता
शोर से दूर
भीतर की लय में होने को लय

चाय की दुकान छोटी थी
उसकी कामनाएँ भी छोटी

वह कामनाओं को अँजुरी में भर लेता
और शोर के तट पर खड़ा
अँजुरी ख़ाली करता जाता
बड़बड़ाता भरे होने से कठिन है
ख़ाली होना

फिर चुपचाप ग़ायब हो जाता
जैसे वह कहीं था ही नहीं
अभी तक जो दिख रहा था
वह उसके अपने में अपने को
छुपा लेने का प्रयास
था
मात्र

द्वंद्व

किसी का प्रेम नहीं तुम्हारे लिए
सोचकर खिलता है हृदय में
काला गुलाब
इस आधी रात में
यक़ीन दिलाता कि
तुम दुनिया से आसानी से निकल जाओगे
बिना किसी को आँसुओं में डुबोए

कि तभी कूकती है कोयल
और तपने लगती है देह
आह! किसी को होता प्रेम
तो हृदय में उठती इस टीस की
अलग होती बनक।

हर मौसम ज़िंदा रहने का मौसम है

ज़ेहन में ख़ुदकुशी का ख़याल आए तो
इसे मुल्तवी करो

उसे माँ तक नहीं पहुँचने दो
मत पहुँचने दो पिता तक
दोस्तों तक

यह ख़ुदकुशी का मौसम नहीं
अभी विदर्भ में किसान मर रहे
और ग़ज़ा में बच्चे

यह फूल को फूल कहने का वक़्त है
और ज़हर को ज़हर कहने का
और आततायी को आततायी कहने का

ख़ुदकुशी से जन्नत नहीं मिलती
और जन्नत में नहीं होते
ग़ालिब के अश’आर
लता के गाने
और अपने गाँव की धूल

अभी यहीं रुको
और उन चिड़ियों को देखो
जो घोंसले में लौट रही हैं
और उन बच्चों को
जो जा रहे माँ की गोद में

यह पृथ्वी बेवजह घूमने वाला
मिट्टी का टुकड़ा नहीं है
यहाँ ‘नेमते ज़ीस्त’ की बारिश है
और इंसानियत का एक लंबा सफ़र
जारी है यहाँ…


मनोज कुमार झा के परिचय और इस प्रस्तुति से पूर्व ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखिए : एक स्त्री कितनी प्रेम-कविताओं का भार सह सकती है | किंचित नवल, किंचित पुरातन

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