कविताएँ ::
मनोज कुमार झा
आदमी आदमी है
कंधे पे गमछा लटकाए, ईख का रस पीते
पत्नी से लड़ते और बच्ची को दुलराते
एक लगभग मँगता के बारे में इतना क्यों जानना चाहते हो!
उसे काग़ज़ों के घर में क्यों डालना चाहते हो
एक आदमी को किताब में बदलने का दुख समझना क्या इतना कठिन है?
यह इच्छा तुम्हें एक ऐसे आदमी में बदल देगी
जो जिस पंछी को स्पर्श करेगा
उसके सारे रोम झड़ जाएँगे।
प्यारा सुर्ख़ सूरज
सुबह उठा सोचते कि उगता सूरज देखूँगा
मगर दरवाज़े पर महाजन खड़ा था
पहले मन थोड़ा झुलसा
फिर सोचा हर किताब में वह जगह तो रहती ही है
जहाँ उसका दाम छपा होता है
और वह पृष्ठ सबसे ग़ौर से पढ़ा जाता है
किताब को घर ले आने से पहले
और दुखी हुआ कि प्यारा सुर्ख़ सूरज आसमान में ही रहा
आँखों तक नहीं आया।
असली बातों से दूरी
तुम क्या जान पाओगे इस देश को
तुम जानते ही नहीं कि कपड़े
पहले कहाँ फटते हैं
और तुमने जानने की कोशिश भी नहीं की
तुम कपड़े पहनते हो
और इन्हें फेंक देते हो
जिसे तुम कभी-कभी बाँटना भी कहते हो
तुम क्या जानोगे इस देश को!
पीछे छूट गए लोगों का साहस
नए कपड़ों को फाड़ने का साहस सरंगियों में देखा
सुस्वादु भोजन छोड़ कर भाग जाना मँगतों में
लँगड़ों में देखा दीवार में पीठ टिका कर बैठना निष्कंप भूकंप में
मृत्यु का सबसे कम डर वृद्धाओं में
भविष्य का कोई भय नहीं आवारा छोकरों में
मेरे स्वास्थ्य की चिंता वेश्याओं में रही सर्वाधिक
मैं जब भी घर से भागा एक घावज़दा कुत्ते की आवाज़ पर लौटा।
नवल-पुरातन
मैं तो बस ऐसा ही हूँ
आधा बदन मांस का, आधा काठ
जब कोई मित्र मिले तो मांस सम्मुख होता है
जब कोई शत्रु मिले तो काठ
एक डॉक्टर बता रहा था कि ये सिलकॉन में बदल रहा है
मगर इसमें वक़्त लगेगा
तब तक मैं मर जाऊँगा
जितना जंगल काठ में है, उतना ही मांस में
जितना जल मांस में है, उतना ही काठ में
अगर कोई पूछे कि मैं मांस हूँ या काठ तो क्या बताऊँ
मैं बस मनुष्य हूँ—
किंचित नवल, किंचित पुरातन।
ओ मेरे बच्चो
ओ मेरे घर आने वाले बच्चो,
तुम ईश्वर से भी परामर्श कर लेना
मैं तुम्हें खेला नहीं सकता
मैं खेत की तरफ़ जाता हूँ तो घर भूल जाता हूँ
घर की तरफ़ जाता तो खेत
कविताओं की पंक्तियाँ मेरे बच्चे हैं
उन्हें भी मैं ज़्यादा खेला नहीं पाता
धम्म से काग़ज़ पर रख देता हूँ
मेरे घर आना तो सोच कर आना
मैं तुम्हें खेला नहीं पाऊँगा
अपनी माँ से भी पूछ लेना
मेरे स्नेह को मेरे गुज़रे दिनों की दास्तान सोख चुकी हैं।
इस पुरातन राष्ट्र भारत में
हाँ, बैलगाड़ियाँ चल रही हैं
वहाँ भी जहाँ बैलों की घंटियाँ लोगों को अवसन्न करती हैं
ट्रेन में सँपेरे साँप दिखाते हैं
लोग डर जाते हैं, कुछ पैसे देते हैं
और दूसरी ट्रेन में जाने का आग्रह करते हैं
हाथी पर कुछ साधु आए हैं
मंत्र नहीं, चुटकुले सुना रहे हैं
सारे चुटकुले पुराने हैं
एक दुकान में बस कुछ बिस्कुट बचे हैं
और दुकानवाली बुढ़िया के सिर में दर्द है
सूरज बहुत धीरे-धीरे उग रहा है
फिर वह पहिया जो घूम रहा है तेज़ और तेज़—
इस पुरातन राष्ट्र भारत में —
वह कहाँ घूम रहा है!
कहाँ रुकूँ
मेरे जीवन में बेटियाँ नहीं आईं
वेश्याएँ आईं
बेटियों के योग्य मैं बन ही नहीं पाया
जिन फूलों की रोशनी से बेटियों की आत्मा बनती हैं
उन फूलों तक मैं पहुँच ही नहीं पाया
नीम-रोशन फूलों के हार ले वेश्यालय पहुँचा किया
हालाँकि नेकदिल जूली ने कहा कई बार कि
तुम्हारी आत्मा थक रही है
अब थोड़ा रुको और बेटियों की तलाश करो
भले पत्नी की तलाश कठिन लगती हो
मगर मेरे घर की खिड़की से रोशनी नहीं आती
और कभी सूखा तो कभी बाढ़
मन के जल की कीमिया बिगाड़ डालते हैं।
स्वरों को यात्राएँ करने के लिए हवाओं की ज़रूरत होती है। इस तरह ही कुछ ऐसे काव्य-स्वर भी होते हैं जिन्हें समझने के लिए भारमुक्त होने की ज़रूरत होती है। इस यात्रा में अगर ऐसा न किया जाए, तब यात्रा का मूल प्रभाव खो जाता है। मनोज कुमार झा की कविताएँ आस्वाद के इसी धरातल की कविताएँ हैं। ये सामान्य में अलग से सामान्य हैं और असाधारण में अलग से असाधारण। इस तरह ये हर कविता की तरह और हर कविता से अलग हैं। इनमें गहरी दृष्टि और जीवनानुभव का प्रकटीकरण है। इनमें कुछ इस प्रकार की उदात्तता है कि वह कविता में रहने के लिए ज़्यादा, उस पर कुछ कहने के लिए कम बाध्य करती है। ये मूल्यवान हैं, क्योंकि ये उन मूल उद्गमों से आई हैं; जहाँ सारी स्थानीयताएँ एक सार्वभौमिकता में स्वयं को व्यक्त करती हैं। ये आदर्श भी हो सकती हैं और जीवन भी। ये अपने पाठक के तलवों से झुरझुरी के रूप में उठती हैं और उसकी बेचैन आत्मा का एक अंश उसकी आँखों की कोरों से बह उठता है। कविता के अंतिम अक्षर से गुज़र चुकने के बाद पाठक इधर-उधर देखता है और कुछ क्षण ठहर कर पुन: कविता पर वापस लौट आता है। वह ऐसी ही कविताएँ कब से खोज रहा था, लेकिन उनकी दुर्लभता बढ़ती ही जा रही थी। निकृष्ट कविताएँ जहाँ ख़त्म होती हैं, वहीं छूट जाती हैं, वे अपने पाठक के अंतर में प्रवेश नहीं करतीं, वे उसके साथ बाहर नहीं आतीं। ‘तथापि जीवन’ (2012) के बाद मनोज कुमार झा की कविताओं की दूसरी किताब ‘कदाचित अपूर्ण’ शीर्षक से इन दिनों दृश्य में है। वह दरभंगा में रहते हैं। उनसे jhamanoj100@gmail.com पर बात की जा सकती है।
श्री मनोज कुमार झा ने कविता में ढाल दिया हैं जीवन को, उस जीवन को जिसे सबने देखा नहीं और जिन्होंने देखा उनमे उसे सबने जाना नहीं, उड़ती हुई धूल, मिटते हुए लोग और उदास शहर उभर आते हैं कविता में, हर कहन संजीदा, हर शब्द में असर,
नवसंग्रह हेतु शुभकामना कवि
bahut badhiya
but badhiya