कविताएँ ::
नताशा

नताशा

वेटिंग रूम में विक्षिप्त

यातना की रस्सी से बाँधी अपनी भूख
थाली की देह खरोंची
और ठीक किया देश का नक़्शा
इस ठौर के पूर्व
उसने आँखों से विदा किए अनगिनत स्वप्न
और स्मृति में उन्हें दफ़्न किया

अब बारिश उसे जलाती है

धूप में टटाती हड्डियों पर नाख़ून गड़ाता
पिछली बारिश में
उसका प्रेम भी लौट गया ख़ाली हाथ

वह झुंड से भटके यात्री की पीठ था
या दंगे-बलवे से बच गया कोई शिकार
घर के बीचोबीच खिंची दीवार की नालायक संतति
या छिटकी हुई ईंट ढह रहे खंडहर का

मैं पूछना चाहती थी
कि तुम्हारी हँसी का लापता स्रोत कहाँ है
वह राज़ किस ताले में बंद है
जिसे केशों से नोच तुम
नाख़ूनों पर मसल रहे हो
मैं पूछती कि इससे पहले
ट्रेन की सूचना ने मुझे रोक दिया।

‘द वेस्टलैंड’ पढ़ने के बाद

सुबह बंद किवाड़ पर
नष्ट हो रही थीं किरणें
इरादतन तय था
निर्बाध नींद के प्रेम से
दिन की शुरुआत हो

पिछली रात और
उसके पूर्व की दो और रातें
वेस्टलैंड की रेत से दबकर मर गईं
इस ख़बर से बेख़बर
न जाने सभ्यता
किस भ्रम की सुश्रुषा में व्यस्त है

एक ऐसी उथल-पुथल से भरी सुबह
कि बेडरूम से रसोई तक
तूफ़ानी रात का महागीत चलता रहा

ख़ुद को बचाए रखने की ज़द में यह दिन
दूसरी बीमारियों का इलाज करता रहा
और तीसरी बीमारी से मर गया

बौखलाई दुपहर में अधमरी इच्छाएँ
और अर्धरात्रि के शीघ्रपतन की खीझ से ऊब
पीटता रहा पड़ोसी घर की स्त्री को

इस अनमनी सुबह ही आई मनहूस ख़बर
कि न्यूज़ एंकर की चीख़ सुन
लौट गए प्रवासी पक्षी समय के पूर्व
लौट गए गुलाबी पैरों वाले हंस
हरे गहरे रंग की आँखों वाले जंको पक्षी
लौट गई है यूरोपियन चितकबरी फ़्लाई कैचर

मैं भी लौट गई अपनी मरुभूमि में
चैत का एक बंजर दिन यूँ ही गुजर गया।

बहुत बहुत है इन दिनों

बहुत हैं कविताएँ
जो बहा दी गईं
द्वेष पीड़ित आलोचना के जल में
जबकि सब परेशान थे
बहुत रचे जाने को लेकर
कुछ जगहें जो रिक्त बच गई थीं
भर दी गईं—
गालियों, बद्दुआओं, अपशब्दों से

बहुत सारी बहसें
जो टीआरपी के बोझ से दब
छिटक आईं डाइनिंग टेबल पर
ऑफ़िस की मेज़ पर
पान की दुकानों और नुक्कड़ों पर

इस तरह बहुत सारे मुद्दों का
भटकना तय था

बहुत कम ज़रूरतों के लिए
खड़ी की गई बहुत सारी दुकानों ने
सौदा किया सपनों का
जो अब नींद में नहीं
खुली आँखों की पुतलियों में ज़ब्त था

बहुत सारे ख़रीदे गए कपड़ों के
दुःख का अंत कर दिया
बहुत बड़ी मशीन ने
बहुत सारे बासी व्यंजनों के कचरे में
बहुत सारी भूख मिटा रही थी
अपना अस्तित्व

बहुत सारी जल रही झोपड़ियों में
मुआवज़े पहले पहुँचे दमकल बाद में
इस बहुत बड़ी भलमनसाहत-सी ख़बर के लिए
बहुत बड़ा अख़बार शुक्रिया अदा करता है

बहुत सारे किसानों की आत्महत्याएँ
बहुत सारे बच्चों की मौत
बहुत सारी स्त्रियों के बलात्कार की
बहुत सारी घटनाएँ
कुछ भी नहीं…
इस बहुत बड़े देश में!

भरोसे से बाहर

उनकी कृपा से बचना
जो आवश्यकतानुसार
बटखरे का वज़न बदले
तराज़ू की क्षमता परखे बिना

उस क्रोध के नमक को
अपने धैर्य का जल मत देना
जो अपने खारेपन से विषाक्त कर दे
तुम्हारा स्वाद

उस आलोचना पर कुंठित होने के बजाय
सहला देना आलोचक की पीठ
जो द्वेषपीड़ित भावना से हो अवगुंठित

उस प्रशंसा को चने की झाड़ समझ झटक देना
जिसकी जिह्वा लिप्सा के द्रव से गीली हो
संभव है : यह सब घटित हो रहा हो
तुम्हारे आस-पास
पर यह असंभव नहीं
तुम बन सकते अपवाद।

पानी के स्पर्श के लिए त्वचा उतारती हूँ

तुम्हारे स्पर्श और
मेरी त्वचा के बीच जो बाधा है
दरअस्ल, वही मुझे असभ्य नहीं होने देती

प्रेम प्राप्य है
असभ्यताओं और लांछनाओं में ही
यह जीवन इसी ग्लानि की भेंट चढ़ेगा
अलभ्य चीज़ों के इतिहास में दर्ज होगा प्रेम

मेरे एकांत पर तुम्हारे
छेनी-हथौड़े की सजगता सलामत रहे
चोट के अनुपात में
किसी खाने फिट नहीं बैठती
मेरी आत्मा को इतना घिसा है तुमने

मेरी नींद एक ख़रगोश है
तुम्हारी माँद की रखवाली के सुख में जागता
एक कमज़ोर की रखवाली पर हँसोगे तुम
जबकि नींद से हारा हुआ व्यक्ति ही
सबसे कमज़ोर होता है
यह मानोगे नहीं

कैसे खट्टे हो गए होंगे वे अंगूर
जो तुम्हारे हिस्से से बाहर रहे
इधर उतनी ही तीव्रता से
उतरती रही मेरे भीतर
शर्करा तुम्हारे प्रेम का
वास्तव में यह जो तुमसे छूटा है
वह कोई मुहावरा नहीं
अधूरा महाकाव्य है
जिसमें असंख्य मुहावरों के अर्थ
गहन वाक्यों के सहचर हैं

तुमने जो छोड़ा है
इसका दुःख न भी करूँ तो चलेगा
लेकिन कह नहीं सकती
मिठास का अम्लीय विस्थापन
तुम्हें मुक्त करे न करे।

तुम रहना मेरी भाषा में

वे शब्द
जो अब तक नहीं हुए अनूदित
मेरी भाषा में
रह जाएँगे असंप्रेषित
उन बूँदों के क्षरण में
मेरा ज़रा भी हाथ नहीं
जो असंख्य छींटों में हो गईं तब्दील
मिट्टी के स्पर्श के पूर्व
हो सके तो मुझे दान में देना
पीड़ाएँ
दुःख
संताप
तब भी तुम रहना
मेरी भाषा में वाणी बनकर
तमाम विपदाओं की पीठ पर
लिखती रहूँ प्रार्थना के शब्द
आजीवन…


नताशा हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध सुपरिचित कवयित्री-लेखिका हैं। ‘बचा रहे सब’ शीर्षक से उनकी कविताओं की एक किताब प्रकाशित हो चुकी है। उनसे vatsasnehal@gmail.com पर बात की जा सकती है।

1 Comments

  1. अंचित जुलाई 3, 2023 at 6:57 पूर्वाह्न

    अद्भुत कविताएँ। सघन और ऐसे कमाल बिंबों से बनी हुईं कि वे देर तक साथ रहते हैं।

    Reply

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