अंबर पांडेय और मोनिका कुमार की कविता-शृंखला ::
अंबर पांडेय की कविताएँ
मेरी प्रेमिका के गुदास्थान का विवरण
रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए मैं इसे नहीं लिखना चाहता। अपनी प्रेमिका को यह लिखकर मैं अचंभित भी नहीं करना चाहता क्योंकि अचंभा कोई ऐसा मनोभाव नहीं जिस पर प्रेमी का एकाधिकार हो—जिस तरह उसके गुदास्थान पर मेरा अधिकार है। साहित्य के आलोचकों को चौंका देने के लिए भी मैं यह नहीं लिखना चाहता। गुदास्थान पर लिखने में समस्याएँ भी बहुत हैं, ख़ासतौर पर तब जब इसे लिखने वाला मुझ जैसा कोई धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति हो। अधिकतर बिंब खाद्य पदार्थ या धर्म संबंधित होने के कारण मेरे लिए व्यर्थ हैं।
जिसकी जिह्वा काट ली गई हो, जिसके दाँत तोड़ दिए गए हों… वैसे मुख से गुदा की उपमा दी जा सकती है, किंतु वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए तब यह कहना पड़ेगा कि देश के बहुसंख्य लोग मुख के स्थान पर गुदा लिए हुए अपना जीवन काट रहे हैं। तब विषय गुदास्थान न होकर राजनीतिक हो जाएगा जिससे मुझे बचना है।
उसके गुदोष्ठ संसार की सबसे कोमल वस्तु हैं और स्पर्श से किंचित संकुचित और फिर फैल जाने वाले—श्याम, अरुण और हरित वर्ण। मनुष्य जाति गुदास्थान के प्रति प्राचीनकाल से ही बहुत संवेदनहीन रही है। वायु ने ही इसके प्रति हमेशा संवेदना दिखाई है। उसके गुदास्थान का व्यक्तित्व उसकी नाक की तरह ही अभिमानी, लेकिन भीतर से भावुक है और जिस तरह यह गुदाद्वार यंत्रणा का स्वागत करता है, उससे यह ज्ञात होता है कि इसकी यंत्रणा अन्य सांसारिक यंत्रणाओं से नितांत भिन्न है।
गुदा का अपमान करना संभव नहीं
वह यूरोपियन पुनर्जागरण काल के चित्र-सी
स्थिर और नग्न थी।
उसने कहा, ‘‘मुझे अपमानित करो जितना मध्यकाल में स्त्रियों को अपमानित किया जाता था, जितना दूर भारतवर्ष में अब भी स्त्रियों को अपमानित किया जाता है, जितना गुदा का अपमान किया जाता है संसार की प्रत्येक भाषा में।”
अपमान की इच्छा
अपमान से अपमान को घटा देती है।
‘‘गुदा का अपमान
करना संभव नहीं
क्योंकि गुदा का अपमान
गुदा को कंटकाकीर्ण कर देने वाले
आनंद से भर देता है’’
ऐसे ही जब उसने
अपमानित होने की इच्छा की
उसे अपमानित करने का
आनंद जाता रहा।
गुदा से स्त्री की उपमा देने पर भी उसे अपमानित नहीं कर सका।
माँगे गए अपमान को
चुंबन की तरह देना पड़ा।
बहुत समय तक अपमानित होते-होते
मनुष्य में भी गुदा जैसा लचीलापन उत्पन्न हो जाता है
मार मनमोहक लगने लगती है।
गुदा में अँगुली डालकर तुम क्या जानना चाहते हो
क्या
जानना
चाहते
हो
तुम्हारे प्रेम में मेरी भूख नष्ट हो गई?
निद्रा के विषय में गुदा मौन है
या किसी नष्टप्रायः, पुरातन छंद को
पुनर्जीवित करके तुम मेरी गुदा की उपमा
मेरे ही कमलनयनों से दोगे
हमारे आलिंगन के बहुत बीच में आए मेरे ये उन्नत स्तन
ये मेरे स्त्री होने के सबसे पुरुषोचित साक्ष्य
जिनमें जाने का मार्ग नहीं, जो अपने दसों ओर से
बंद हैं ऐसे स्तन, जो पुरुष को इतने प्रिय हैं
क्योंकि पुरुषों जैसे ही हैं
स्पर्श को लेकर
किसी सद्यप्रसूता मादाव्याघ्र की भाँति चौकन्नी
जिसमें कितना ही खोजो
जहाँ पहुँचने के कितने ही तुम प्रयत्न करो
नहीं मिलेगा तुम्हें संसार का उद्गम
यहाँ तक मेरे केवल हाथ जाते हैं
दृष्टि नहीं इसलिए यह सृष्टि से विलग है
कमल की तरह इसे भी ब्रह्मा ने नहीं रचा
अंतोनिओ ग्राम्शी की कविता
उन्होंने मुझ लोर्का बना दिया
इसलिए नहीं कि मैं कुछ लिखने का प्रयास किया करता था
इसलिए कि वे मुझे मार सकें—
गुदा पर गोली
उन्होंने कहा कि मेरी भाषा नक़ली है
क्योंकि कविता में मैं स्त्री होने का प्रयास
कविता में मैं आदिवासी होने का प्रयास
कविता में मैं मुसलमान होने का प्रयास कर रहा था
ऐसा करके वे बन गए आलोचक, बहुत प्रयास
किए उन्होंने मुझे चुप कराने के और जब मैं
चुप नहीं हुआ तो वे हो गए चुप
जैसे अन्यायी हो जाता अंतत:
जैसे राह चलते मँगते की कबीरबानी सुनकर
भीतर रियाज़ करती शास्त्रीय गायिका मौन हो जाती है
घृणा से भर उठता है उसका कंठ, उसकी शिराएँ
उनकी किताबें छप चुकी थीं
उन्होंने पुरस्कार आपस में बाँट लिए थे
जैसे गिरोह चोरी का धन बाँट लेता है
वे सरकारी अनुदान प्राप्त पत्रिकाओं में
सरकार के विरोध में लिखकर
सरकार की उचित सेवा कर रहे थे
उनका वामपंथ संगठित था कलकत्ते की पुरानी पेढ़ियों की तरह
जहाँ पर नाक रगड़े बिना कोई कवि नहीं हो सकता था
उनके पास भाषा थी, उनके पास
मृतकों की लंबी सूची थी जिस पर उन्हें
रास्ता पार करते नहीं बल्कि मंच पर
कविता पढ़ते रोना आ जाता था
मेरे पास मेरे जीवन को छोड़ कुछ नहीं था
जिसे ख़त्म करने का उनका कोई इरादा नहीं था
क्योंकि जीवन अपने आप चुक जाता है जैसे चिमनी में
नेह चुक जाता है रात्रिभर अंधकार से लड़ने के बाद
और कविता भी चाहे मुक्तिबोध की कविताओं की तरह
लंबी हो, आख़िर ख़त्म हो ही जाती है
सत्ता का विरोध करते-करते
उन्हें पता ही नहीं चला कि वे विपक्षी पार्टी हो गए हैं
वे उतने सजग नहीं थे जितने होते हैं कवि
जितने होते हैं आलोचक
वे रो नहीं रहे थे, वे रुआँसी आवाज़ में गुनगुना रहे थे—
एक कवि को गुदा पर गोली मारने का शोकगीत
वे भूल गए थे कि कवि अभी तक मरा नहीं है।
मोनिका कुमार की कविताएँ
एक
जो जीवित है वह अपनी देह में केवल दिल लिए नहीं घूमता-भटकता,
कि कोई हो जो उसके दिल को प्यार करे
उसकी देह में गुदास्थान भी है
प्रेम पाने के लिए आतुर और प्रेम का अधिकारी,
दिल का अपमान करता है कोई
तो गुदा पीड़ा से सिकुड़ जाती है
गुदा का सुख दुःख भी अटूट जुड़ा हुआ है दिल से,
कभी ऐसा नहीं हुआ दुनिया में
किसी ने किया हो दिल से प्रेम
और गुदा गौरवान्वित न हुई हो उस प्रेम में।
गुदा से प्रेम करने का अर्थ है
मनुष्य की गहराई से प्रेम करना,
उसके अँधेरों से प्रेम करना
उसके दुःख से प्रेम करना
गुदा से प्रेम करने का अर्थ है,
दुःख में केवल दुखी नहीं होना
बल्कि प्रेमी के दुःख में प्रवेश करना और उसे सुखलोक में ले जाना।
प्रेमी की निष्ठा का प्रमाण माँगना हो तो
केवल यह मत देखना कि होंठ कैसे तप जाते हैं प्रेमी के दर्शन से
दिल की धड़कन कितनी बढ़ जाती है प्रेमी के स्पर्श से
प्रेमी के लक्षणों का जब तुम करो अन्वेषण
गुदास्थान की राय भी शुमार करना
कि यह प्रेमी गुदा का मर्मज्ञ होगा या नहीं
दो
जीवन बीत रहा है
और अभी तक मैं गुदास्थान के चरित्र से अनजान हूँ,
अनभिज्ञता की ऐसी स्थिति में
क्या मुख लेकर जाऊँगी स्वर्ग में,
द्वारपाल पूछेंगे गुदास्थान के रहस्य
और मैं उलझी हुई व्याख्याओं से,
उनका समय और अपना भविष्य नष्ट करूँगी।
जीवन बीत रहा है
और मैं अभी भी टाल रही हूँ जीवन के वास्तविक प्रश्न,
नितंबों को अभी तक नहीं पूरी तरह अपनाया मैंने
युगों से गुदास्थान ने सहन की है अवहेलना,
आने वाले युगों में गुदास्थान की न्यायोचित प्रशंसा हो
तो उम्मीद बँधे,
मनुष्य समझदार हो रहा है
अपनी गहराइयों से अब उसे इनकार नहीं है
वर्ष 2018 को गुदावर्ष घोषित कर दो तो यक़ीन आए
अपने रहस्यों से मनुष्य अब शर्मसार नहीं है।
जीवन बीत रहा है
लेकिन भ्रम नहीं बीत रहे,
सामने वाले की नज़र में क्या है
उसे अभी आँखों से परखती हूँ,
गुदास्थान के दर्शन को अभी आत्मसात नहीं किया है।
तीन
मेरा गुदास्थान आतंकित और सहमा हुआ है,
वह सदमे और शोक में निराश पड़ा रहता है।
जीवन से पस्त होकर
मैनें बहुत बार कहा है कि हाथ-पैर सलामत हैं तो सब कुछ बचा हुआ है,
वंचना को सहनीय बनाने के लिए भी बहुत बार कहा है
ईश्वर ने हाथ पैर दिए हैं तो सब कुछ दिया है,
ईश्वर के प्रति कृतज्ञता के क्षणों में
गुदास्थान के निमित्त हमेशा उपेक्षा और चुप्पी बरती है।
सत्य जबकि यह है कि
मेरा अस्तित्व अब गुदास्थान में सिमट चुका है—
आतंकित, सहमा हुआ और शोकग्रस्त।
मन की बात कहने से प्रेम बढ़ते हुए नहीं देखा
मन की बात कहने से अपार घृणा अवश्य बढ़ जाती है।
मुझ में अब और घृणा सहने की हिम्मत नहीं है,
मेरा अब और संकुचन संभव नहीं
मेरा अस्तित्व अब गुदास्थान में सिमट चुका है।
गुदास्थान अस्तिव को मल की तरह समेट कर रखता है,
अस्तित्व जो अब केवल एकांत में क्रियाशील और सहज होता है।
चिता पर जब मेरा शव लिटा दिया जाए,
तो कपाल पर प्रहार करने से किंचित मत घबराना
अपराधबोध से ग्रस्त मत होना,
कपाल मृत्यु से पूर्व भी परित्यक्त और मुक्त था,
चिता पर पड़े मेरे कपाल पर प्रहार करते हुए प्रार्थना करना
मेरा बिंदुतुल्य अस्तित्व गुदास्थान से स्खलित हो जाए।
चार
सिर्फ़ माँ ने स्वीकार किया
कि मेरा गुदास्थान भी मैं हूँ।
उसने धोया-पोंछा
लाल हुआ तो तेल भी लगाया
माँ ने गुदा को मेरे हृदय से कम ज़रूरी नहीं समझा,
मुझे गर्भ में रखकर,
उसने रुदन करते हुए शिशु के स्वस्थ होने की प्रार्थना की
कई बार देवता केवल उच्चारित शब्दों जितना ही वर देते हैं
माँ ने शिशु के स्वस्थ हाथ-पैर और स्वस्थ हृदय की बजाय स्वस्थ शिशु का वर माँगा,
प्रार्थना निपुण मेरी माँ ने इस प्रकार मेरे स्वस्थ गुदास्थान का वर माँग लिया।
आर्द्र भाव से उसने मुझे रोज़ नहलाया-सजाया
मेरी माँ ने मेरे हृदय और गुदास्थान में कोई भेदभाव नहीं किया।
माँ की गोद के बाहर सभी कुछ खंडित है
माँ की गोद के बाहर गुदा को अपमान ही अपमान मिला,
हृदय चाहिए गुदा नहीं चाहिए
रोशनी चाहिए अँधेरा नहीं चाहिए
सहमति चाहिए असहमति नहीं चाहिए
चुंबन चाहिए पीड़ा नहीं चाहिए
प्रेमी चाहते हैं कि प्रेमिका उन्हें अपनी माँ से अधिक प्रेम करे,
प्रेमिका भी चाहती है प्रेमी को सबसे अधिक प्रेम मिले
लेकिन गुदा को प्रेम किए बग़ैर प्रेम खंडित रहने के लिए अभिशप्त रहा।
प्रेमिकाएँ बिछती रहीं हर रोज़ पलंगों पर ख़ुशी से
पर बंद आँखों से बाट जोहती रही उन प्रेमियों की,
जो गुदास्थान को उर्फ़ उसके अँधेरों को
माँ से भी अधिक प्रेम करें।
***
अंबर पांडेय और मोनिका कुमार दोनों ही हिंदी की नई नस्ल से वाबस्ता कवि-लेखक हैं। इनके पहले कविता-संग्रह इस वर्ष ‘वाणी प्रकाशन’ से आ रहे हैं। इनसे क्रमशः ammberpandey@gmail.com और turtle.walks@gmail.com पर बात की जा सकती है। इस प्रस्तुति की फ़ीचर्ड इमेज ‘द गार्जियन’ से साभार।
यूनान से लेकर अन्य यूरोपीय भाषाओँ और अंग्रेज़ी गल्प और गल्पेतर गद्य में,और बेशक एरोटिका में,और कविता में भी,गुदा का पर्याप्त इस्तेमाल और उल्लेख है और हो रहा है.सौमित्र मोहन ने शायद सबसे पहले गुदा का प्रयोग हिंदी कविता में किया हैं.यह कविताएँ अगल हैं.
संस्कृत नितम्बों से भरी पड़ी है किन्तु उनके बीच की इस पीछे के दरार से डरती है.कृष्ण ने अपनी गुदा को नरक बताया है.गुदा संस्कृत में कभी-भी श्रृंगार का संबल नहीं रही.पाद,गू और पसीने की बू ने वात्स्यायन की कृपादृष्टि या नासिका या जिव्हा वहाँ प्रविष्ट न होनी दी.फिर शायद हमारे यहाँ गुदा-मैथुन उतना संभ्रांत नहीं हो पाया.
गुदास्थान जैसी कोई चीज़ नहीं होती – होगी तो वह गुदा ही होगी.मलद्वार बिल्कुल अलग बात हो जाएगी.
यहाँ anus,arse,ass और asshole को भी ध्यान से देखना होगा.
प्रश्न यह भी है कि कवि और कवयित्री दोनों गाँड या गांड़ से क्यों कतरा गए ? इन कविताओं को इन देशज पर्यायों से लिखकर देखिए.एक अलग संस्कृति और संसार में प्रवेश करना पड़ेगा जिसमें गुदा सहित गाँड फट जाने का जोखिम है.अभी तो हम लंड,लौड़े,चूत और बुर आदि से ही डर-लजा रहे हैं जबकि पूरे समाज में वह रोज़ करोड़ों भारतीयों द्वारा क़ानून के ख़िलाफ़ सार्वजनिक बेधड़कता से बोले जाते हैं.
मुझे पता नहीं कि इन कविताओं पर विवाद होगा या नहीं.सारे खतरे और जोखिम जानते हुए भी मैंने शुरूआत की कोशिश की है.
Anus is an impossibly difficult subject to write on -other than maybe medical histories- leave alone poetry. So to have come across the Hindi poems of Ambar Pandey and Monika Kumar on the anus was truly a discovery. And no doubt they are both talented and intrepid for to make the anus a subject of poetry in a culture as repressed as ours is an extraordinary act.
The poems deserve attention and not ridicule for ‘touching’ a taboo topic. So far there is no critique of the poems other than expressions of shock and disgust. Vishnu Khare’s is the only comment that engages with the poems and asks a fundamentally important question about the use of the word guda instead of gaand. And he is right in one way that the use of the word gaand would lead to a different sensibility and perhaps the use of the word guda is a domestication of the subversive tendencies of its alter ego. But this alone is not an adequate critique.
Reading these poems I was struck by the complementarity of these poems. Ambar Pandey’s and Monika Kumar’s poems on the anal region/ anus compliment one another. Ambar’s poems are specific describing the anal region of the lover and his claims over it and not over mundane things as the desire to surprise the beloved. There are regions in love where the beloved is autonomous but not so far as the regions of pleasure and pain are concerned. In writing these poems the poet is exploring the relation of humiliation, pain and masochism in love. At the same time one suspects he is really mocking all those who might dismiss these poems as obscene because these are also poems of tenderness and playfulness.
And yet one is left feeling uneasy with the ownership he so overtly claims over the female body: a body that is loved through humiliation. Not to mention his own unresolved emotion about the anus itself. Is the anus an object of humiliation or not? And is humiliation painful or pleasurable?
We know the beloved and her intimate experiences through him. She has no voice. In his first poem, “A description of the anus of the” beloved the anus is compared to a toothless and tongue-less mouth. He extends that metaphor to describe the current political environment. Her anus becomes a metaphor of the political, even though the professed claim of the poet is really to avoid the political. To that extent I suppose male writing can be political only at the expense of the feminine.
In the third poem however we hear the beloved’s voice as she resists the violent takeover of her body and reproaches the lover for adoring above all, her breasts because they are after all like men, impenetrable.
He begins with the denial to be political in the first poem and ends with an overtly political poem in the last. In his last poem he invokes the names of Lorca and Gramsci and places himself in line with persecuted writers. Here there is no ambivalence about humiliation. Humiliation is abhorred. Violence to the anus in this poem is unambiguously resisted. There is nothing to love but only a wish to survive the assault of the establishment and to strike back.
Monika’s poems are more straightforward. The anus here is projected as a metaphor of darkness, grief, terror, forbidden knowledge, and love. Her effort is really to rehabilitate the anus to poetry, philosophy and to the self. She locates the terror of the alienated self in the anus and finds it is only the mother who has no aversion to the anus and to all its darkness. Outside of the mother’s lap there is only fragmentation of the self.
She finds a binary exists between the heart and the anus and that those who would seek love, want from it only light, happiness and appreciation, and reject the darker regions of the soul just like the anus, which is the most uncared for and detested region of the body.
In Ambar’s poems there is an acceptance of the anus, its pleasure is identified and savored. In Monica’s there is a desire to know the anal region. But this is a tentative reaching out not a full-bodied acceptance. As she says she hasn’t even begun to accept her hips entirely, what to speak of the anus. One can understand this reluctance, for to be a woman is to live with a conflicted relationship with one’s own body. In this lies the essential difference in how men and women perceive their bodies. Men own and dominate the female body and describe it variously to others and to themselves. Women cannot even begin to accept their own bodies fully.
Not surprisingly, Monica’s poems begin with the self but lead to a generalized expectation and hope that humanity may move towards an appreciation of the darker regions of the soul and the body. Her poems open with a specific reference to the self but the enquiry is not sustained and she end up mystifying the anus. The underlying anxiety of female sexuality is resolved by a generalization and mystification of the demands of love.
There is much to be said about these poems and surely they need greater analysis but not the kind of vitriol that one is seeing poured against these poems as also against the poets themselves.
कविता में यौन क्रांति का समय 60 के दौर में शुरु हुआ था। वह अस्त हो गया। सारे रथी खेत रहे। धूमिल ने सबकी पूछ उठा कर उन्हें मादा घोषित किया। जिसकी आलोचना भी खूब हुई ।पर सच है कि अकविता के यौन जुगुप्साधायक बिम्बों की विंध्याटवी से कविता को सामाजिक राजनीतिक धरातल पर लाने का काम धूमिल ने किया जो ऐतिहासिक है।
अब पुन: कविता में गुदा क्रांति का उन्मेष हुआ और हो रहा है। यह चालीस साला औरतों पर कविता की कवायद करने जैसे काव्याभ्यास है जिसे सदानीरा ने अपना कोना उपलब्ध कराया है।
यह हिंदी में भुला दिए गए जुगुप्सा और वीभत्स रस का पुनरावाहन है। कवियों की जय हो। पर इससे कुछ होने वाला नहीं है। सिवाय गुदा गुदाभ्याम गुदाभि: वाले व्याकरणिक अभ्यास के।
कविता गाय जैसेे पुण्य पवित्र जैविकी अथवा शील आधारित विषयों पर केंद्रित हो इसकी अपेक्षा नहीं करता पर कविता गुदामय या नैपकिनमय हो जाए और इस गुह्य के गोपन को ओपेन करने का अभियान
चलाया जाए, इसका भी कतई समर्थक नहीं हूँ।
सहमत
बिलकुल सही कहा आदरणीय।
साहित्य में वीभत्स रस की पुनर्स्थापना करने का अद्भुत कार्य किया है।
यदि दोनों महान कवि जालन्धर बंध का अभ्यास करें तो शायद कुछ फ़ायदा हो।
सादर अभिवादन
फिर बबासीर का भी ज़िक्र हो ..
बहुत खूब, ना पहले कभी पढ़ी और न किसी ने लिखी।
For Anus
(Found text}
‘But it is not to have said enough of the anus to have recalled its particular way of scenting the air and of delighting its torturer. The glorious colouring of the resulting liquid must be stressed, which more than lemon juice, compels the larynx to open wide for the articulation of the word as for the ingestion of the liquid, with no apprehensive pout at the front of the mouth where it does not ruffle the papillae.
Must there be a preference between these two ways of failing to withstand oppression?- The sponge is merely muscle and is filled with wind, with clean water or dirty water as the case may be: this gymnastic manoeuvre is tawdry. The anus has better taste, but it is too passive,’ – and that scented sacrifice…truly it plays too much into the oppressor’s hands.
As in the sponge there is in the anus an aspiration to regain face after undergoing the ordeal of expression. But where the sponge always succeeds, the anus never: for its cells have burst, its tissues have torn apart. Whereas the peel alone flabbily regains its shape thanks to its elasticity, an amber liquid has spread, accompanied certainly by sweet coolness and scent- but often too by the bitter awareness of the premature expulsion of pips.
And one remains wordless what’s more to confess the admiration merited by the outer wrapping of the tender, fragile and pink oviform in this dense moist blotting-pad whose epidermis, extremely thin but highly pigmented, acerbically savoury, is just wrinkled enough to catch the light with dignity on the perfect form of itself.
But at the end of the study that is all too short, carried out as roundly as possible- we must come to the pip.’
कविता स्वयं में एक अलग ऑब्जेक्ट है । कविता का कथ्य या सबजेक्ट नया होने भर से रिजेक्ट नहीं हो सकता । कविता एक स्वतंत्र अस्तित्व रखती है । कविता के कन्टेन्ट को एक सामाजिक सांस्कृतिक पार्यावरण में खारिज किया जा सकता है पर बौद्धिक विमर्श में वह पल्लवित होती रहती है । रूढ़ि को तोड़ कर आती कविता की आलोचना तात्कालिक हो सकती है , पर सही हो आवश्यक नहीं । हिन्दी साहित्य में या पश्चिमी साहित्य में कई बार ऐसा देखा गया है कि नये भाव-बोध से लैस साहित्य कृतियाँ कालांतर में जाकर प्रतिष्ठित हुई हैं । बौद्धिक विकास वर्जना को तोड़ती है , वही कविता को एक नया अर्थ प्रदान करती है । विरोध का द्वंद कविता के हित में होता है । मैं ऐसा ही मानता हूँ ।
सदानीरा को इन कविताओं को हम तक लाने के लिए आभार,जिस तरह इस तरह की कविताओं को लिखने के लिए कवि को मठों के मानकों से ऊपर उठना होता हैं,उसी तरह प्रकाशक को इस भीड़तंत्र में अपने मंच को निष्पक्ष रखने के लिए भी प्रायोजित विरोध का सामना करना होता हैं,सच को सच की तरह लिखने की आज जरुरत हैं,तिरस्कृत के पक्ष में लिखना ही कविता की सार्थकता हैं
इस पत्रिका का नाम गुदानीरा कर देना चाहिए.
इन कविताओ का इतना ही महत्व है कि इनमे गुदा जैसी उपेक्षित जगह और शब्दावली का प्रयोग हिंदी कविता में कर दिखाया है, पर अभी भी धूमिल ने जिस तरह गांड शब्द से तीखापन व्यक्त किया था, वह इनमे नही है। कविता में कुछ भी प्रयोग हो उनके सहारे कथ्य अगर ठीक से कहा है तो क्या गलत है..
कवि और कवयित्री द्वय इस गुदा-पुराण से कौन – सी नयी क्रांति करना चाह रहे हैं समझना मुश्किल है. अगर कविता में कामुकता और सनसनी घोलना उद्देश्य है तो वह भी निष्फल होता दिख रहा है. बाक़ी जीवन में इतने विषय है, मानव जाति और मानवीय मूल्यों के प्रति ही इतनी उपेक्षा है कि गुदा जैसे विषय पर जाने की फुर्सत भी ना मिले फिर कविता में इसे साधने की कोशिश कहीं से भी उचित नहीं.
एक ही शब्द याद आता है. धिक्कार!
👍
गुदा संस्कृति की बात कर कवि कहू या चर्चित होने के लिये बने बेहरूपिये …… क्या समाज ने कपडो को स्वीकार कर बाकी को नग्नता की श्रेणि मे नही समझा ….. फिर तो हमे नग्नता फिल्मो मे देखनी / परोसनी ही नही चाहिये बल्कि खुद भी गुदा का दिखावा कर उस पर चर्चा भी करे …..याद रहे शादिया होति है सभी जानते है आगे क्या होगा , परंतु आवर्ण भारतियता का परिचायक है ……. गुदा संस्कृति भी एक नशे की अंतिम सीमा है जो शरीर से शुरू हो शरीर की अग्नी के साथ मृत्यु को प्राप्त होती है ……खेद है जो इसे स्वीकार करने को आतुर है ……इन्ही द्व कवियो से निवेदन है खुद के परिवार मे सुनाये वा बच्चो वा मा बापु के खास टिप्पणियो से हमे अवगत कराये ……. हम इन भावनायो को सुंदर तरीके से रस वा अलंकारो का सहारा ले प्रस्तुत करते रहे है , करते रहेंगे ……. अंत मे खुद को आईने के सामने बिना लिबास और लिबास के साथ देखे …..लिबास मे सुंदर लगोगे …….एकांत
सहमत
आपदोनो अश्विनी मुद्रा का अभ्यास करें, आराम मिलेगा । पुरस्कार वगैरह का बाद में देख लिजियेगा, उनका क्या है ; वह तो आगे-पीछे… मिल ही जायेगा ।
कुछ और लिखना चाहता था लेकिन इतना ही लिखता हूँ कि दो-दिन से कथित कविता प्रेमियों ने मेरा जीना हराम कर रखा है कि ‘सदानीरा’ में प्रकाशित गुदा-विषयक कविताओं पर आपका क्या कहना है ?
मेरा कहना यह है कि कविता में कुछ भी वर्जित नहीं होता बल्कि कविता आगे बढ़कर वर्जनाओं को तोड़ती है ।
‘सदानीरा’ में प्रकाशित अम्बर पांडे और मोनिका कुमार की गुदा-विषयक कविताएँ लगता है समस्यापूर्ति की तरह लिखी गयी हैं । प्रायोजित ढंग से । इसीलिये इन सुंदर कविताओं का प्रभाव कम हो गया है । इन कविताओं में यदि गुदा शब्द स्वभाविक रूप से आता तो किसी को क्या आपत्ति थी । आपत्ति तो अब भी नहीं है । धूमिल की प्रसिद्ध कविता ‘पटकथा’ और अन्य कविताओं में गालियाँ उनकी भदेस-शैली में घुल-मिल गईं हैं जिससे कविताओं का अर्थ अधिक मुखर और सघन हो गया है ।
‘सदानीरा’ के प्रधान संपादक आग्नेय को इस बहस से अलग कर देना चाहिये क्योंकि वे कह चुके हैं कि इन कविताओं को प्रकाशित करने से पूर्व ‘सदानीरा’ के सम्पादक अविनाश मिश्र ने उन्हें नहीं दिखाया । अब अविनाश मिश्र से पूछा जा सकता है कि उन्हें इन दो कवियों की गुदा-विषयक कविताएँ संयोग से प्राप्त हुईं या उन्होंने विषय देकर इन कविताओं को लिखवाया, जैसा कि ‘हंस’ के विवादित सम्पादक राजेन्द्र यादव अक्सर किया करते थे ।
अविनाश मिश्र को यह भी बताना चाहिये कि जब इन कविताओं में बहुत-सी अद्भुत पंक्तियां थीं, जिन्हें कविताओं का शीर्षक बनाया जा सकता था लेकिन कविताओं के शीर्षक भी गुदा वाली पंक्तियों से क्यों बनाये गये ? यह दर्शाता है कि सम्पादक गुदा शब्द के जरिये सनसनी फैलाना चाहता है ।
गुदा शब्द , जैसा कि विष्णु खरे ने ध्यान दिलाया, तत्सम शब्द है । इसका तद्भव या देशज शब्द गांड है, जिस पर अनगिनत कहावतें बनी हैं और यह देश भर में प्रचलित है । सामान्य बातचीत में कोई भी गुदा शब्द का इस्तेमाल नहीं करता है । इन कविताओं में गुदा लिखकर गांड का छायावादीकरण किया गया है । यह बताता है कि अभी इन कवियों में साहस का अभाव है । अभी उनके मध्यवर्गीय संस्कार पूरी तरह तिरोहित नहीं हुये हैं ।
अम्बर पांडे को मैं हिंदी की समकालीन कविता का एक प्रमुख प्रतिभाशाली कवि मानता हूँ । मोनिका कुमार भी अच्छी कवि हैं । दोनों हिंदी के चर्चित कवि हैं । उनको अतिरिक्त चर्चा के लिये गुदा पर अतिरिक्त फ़ोकस करने की मेरी दृष्टि में कोई दरकार नहीं थी ।
मुझे लगता है कि यह गुदा-प्रकरण आग्नेय की कई बरसों से निकल रही पत्रिका ‘सदानीरा’ को चर्चित करने की सम्पादकीय ट्रिक थी, जिसमें अविनाश मिश्र पूर्णतया सफल हुये हैं ।
जहां तक इन कविताओं के विरोध का सवाल है मेरा मानना है कि कविता नैतिकतावादियों के लिये नहीं होती । उन्हें किसी धार्मिक किताब या मंदिरों में अपना आसरा खोजना चाहिये – कविता उनके किसी काम नहीं आनी । यदि गुदा इतनी ही गर्हित है तो सब इसे हर कहीं क्यों लिये फिरते हैं , कहीं फेंक क्यों नहीं आते ?
लेकिन क्या कहा जाये ? गांड का होता है लेकिन गांडू का कोई तत्सम नहीं होता और गांडूओं के लिए संस्कृत में कोई शब्द नहीं बना !
#गांडूगर्दिश १.
Ye sabse achchi tippani hai.
शायद दोनों कवि गुदाद्वार की किसी समस्या जैसे बबासीर अथवा भगंदर से पीड़ित हैं,और उसी पीड़ा के कारण दोनों ने गुदाद्वार का कुछ ज्यादा ही चिंतन कर लिया है।उसी चिंतन का परिणाम ये बहियात कविताएं हैं।
कर्रा ठोंका दोस्त 👌👍
अस्सी घाट की होली के अवसर की कविताये सच्ची है और इनसे अच्छी है।
पता नही क्यो ऐसा लग रहा है कि कविताए कवायद के साथ लिखी गई है। विदेशी भाषाओ की कविताओ मे इस तरह के विषय नही है । भारत मे भी मलयालम के कवि अयप्पा पणिक्कर ने सत्तर के दशक सब प्रयोग किए है। बल्कि उनकी कविताए तो और मुखर होती है। इसलिए हिंदी मे इन कविताओ से कोई क्रान्ति तो नही हो गई । हां जरा बेहतर तरीके से बिना अनावश्यक आवर्तन के लिखी जाती और कुछ स्पेस पाठकों की परिकल्पना के लिए भी छोडी जाती तो संवाद संभव था।
हास्यास्पद और कमजोर टिपण्णी
योनि के कुचक्र में
फंसाई गई स्त्रियाँ
शरीर की कैद में
छुपाई-दबाई गई स्त्रियाँ
बड़ी शिद्दत से निकलने को
हुई हैं एकजुट
तोड़ रहीं हैं तुम्हारे
दुष्चक्र की लौह तीलियां
और उनके साथ हममें से कुछ
पुरुष भी पलट रहे हैं
तुम्हारे वर्चस्व का कामशास्त्र
और तुम छेड़कर ‘गुदाशास्त्र’ की
तिलिस्मी बहस
मोड़ना चाहते हो प्रतिरोध व
प्रगति की धारा को
ऐसी आभासी मरु बंजर की तरफ
जिसका कोई ओर छोर न हो
कभी तानाशाह को तानाशाह
न कह पाई तुम्हारी जिह्वा
शोषण का जब करना था विरोध
तब लग गया लकवा इसमें
शासन की दुरभिसंधियों को
देख सुनकर भी
सिले रहे, लगी रही जंग
और अब ऐसी जुगाली
क्यों ? बताऊँ
या तो तुम स्वयं
कर्ता हो या सत्ता हो
और नहीं तो कम से कम
लाभार्थी हो या डरपोक
आज जो ‘गुदा’ की गुदगुदी करके
रचा है स्वयं को
नवप्रवर्तक कहलवाने का प्रपंच तुमने
तो सुनो यथास्थिति पोषक सत्ता के एजेंटों
हमें नहीं चाहिए तुम्हारे ज्ञान की गूढ़ गंगा
हमने अपनी गुदा को
रखा है संभाल कर पहले से ही
क्या स्त्री क्या पुरुष
हम सभी इंसानो ने
रखा है ख्याल जन्म से यत्न पूर्वक
हर बार मल त्याग के बाद
धुला पोंछा ढका है
नितातं निजी और अपना मानकर
असीम प्रेम के पलों में भी
बनाया है भागीदार इसे हमने
तुम सार्वजनिक करके हमारी निजता
बनाकर इसे अपना हथियार
मत रचो षडयंत्र
असल को छुपाने और
झूठ को फ़ैलाने का
तुम चाहते हो कि घोषित हो
वर्ष दो हजार अठारह
‘अंतर्राष्ट्रीय गुदा वर्ष’
पर क्यों नहीं चाहते कि यह साल
समर्पित हो
विश्व में सर्वाधिक असुरक्षित
हमारी महिलाओं के नाम
दर दर भटकते रोहिंग्याओं के नाम
कुपोषित नौनिहालों के नाम
सरों पर बम झेलते सीरियाइयों के नाम
दिलों में नफरत लिए बीमार लोगों के नाम
‘गुदा’ के नाम ही क्यों ?
और हाँ ‘गुदा’ को
उसके लोक प्रचलित नाम से
न पुकारकर ‘सुसभ्य’ बनने की
कमजोर मध्यवर्गीय चेष्टा की है तुमने
या साहस ही नहीं था?
तो लो दुहरा देता हूँ
उसे हम साहसी आम लोग
कहते हैं ‘गांड’।
-आलोक कुमार मिश्रा
वाह…करारा…जवाब दिया जाना चाहिए इन ढपोरियों को ।
बहुत खूब
सुनियोजित जरूरी मुद्दों से ध्यान हटाने वाली कविताएँ हैं यह।
इन दोनों ने समलैंगिकता का साहित्य द्वारा प्रचार कर हिन्दी साहित्य को फासिस्ट उद्देश्य के लिए ख़त्म करने का यह भी एक प्रयोग किया है. अनेक प्रयोगों में से यह भी एक. पर यह सदानीरा पत्रिका इन लोगों कि गुलाम किस लिए बन रही है. क्या कोंई ख़ास वजह? ये लोग क्या चाहते है?
ऐसी कविताओं से आम पाठक को क्या सन्देश देना चाहते हैं ये तथाकथित कवि ? इन्हें पढ़कर पाठक को कुछ भी नया चिंतन प्राप्त नही होता | बेहद अश्लील, निकृष्ट और घिनौना सौन्दर्यबोध | यह प्रस्तुति साहित्यिक पोर्नोग्राफी परोसने के अलावा और कुछ नही | इससे बचें |
कविता का असफल प्रयास, शब्दों को बेतरतीब ढंग से ठूँसा गया है
सुन्दर मुंहतोड़ प्रतिवाद ,, खूब लतियाया आपने 👍👍👍👍
कहावत है कि हमाम में सभी नँगे हैं, परन्तु क्या वास्तविकता में नग्न होकर घूमा जा सकता है ? नहीं घूमा जा सकता, इसी तरह उच्चकोटि का साहित्य एक हद तक शब्दों की नग्नता को, जो रोमांच तो पैदा करे वो तो स्वीकार्य हो सकती है पर भाषा अश्लील हो जाए तो वो कैसे स्वीकार्य हो ? उपन्यासों में अश्लील साहित्य भरा पड़ा है । पर कविताओं में कम ही देखने को मिला, पर मिला जरूर । शायद एक साल पहले अचानक एक कवयित्री नाम याद नहीं, वो आदिवासी समुदाय से थीं, उनकी पेटिकोट से सम्बंधित कविताएँ फेसबुक पर छाई रहीं एकाएक उनके फ्रेंड्स लिस्ट की संख्या इतनी बढ़ गई कि वो सेलेब्रिटी हो गईं । उनको फॉलो करने वाले 90 प्रतिशत लोग साहित्य समाज से थे, और आलोचना कर रहे थे । मैंने भी पढ़ी वो कविताएँ उसमें खुलेआम ऐसे शब्दों का प्रयोग था, जो आमतौर पर हम बोलने से कतरा जाएं, पर उनको पढ़ कर अश्लीलता जैसा अनुभव नहीं हुआ, बल्कि ऐसा लगा कि जो कविता में लिखा गया उसके लिये और क्या शब्द प्रयुक्त होंगें, वो भी कम हैं किसी की दर्दनाक और बलात्कार से जूझती एक औरत के लिए ।
परिस्थितियों और विषय पर यदि “योनि, लिंग” जैसे शब्दों का प्रयोग हो तो दिमाग़ में अश्लीलता नहीं आती पर यदि सौंदर्य बोधक कविताएँ जिनमें ढके-छुपे शब्दों में नख-शिख का वर्णन सुन्दर शब्दों में भी हो तो उत्तेजना पैदा हो सकती है । हाँ, जिस प्रकार से इन कविताओँ में गुदा शब्द का।प्रयोग और उनका बार-बार दोहराव केवल प्रचार के लिए है और जबरदस्ती ऐसे शब्दों का प्रयोग कवि/कवयित्री की मानसिक विकलांगता का द्योतक है ।
सभवतः मैं कुछ अजीब हूँ कि मुझे गुदा से सर्वप्रथम गूं का ख़याल आता है. गूं मुझे कुछ ख़ास पसंद नहीं है. मैं अपने कमरे पर अन्य कवियों के साथ दारू पार्टी इसलिए भी नहीं करता कि क्या पता उनमें से किसी को हगने का विचार आ जाए. दुर्योग हुआ कि जिस दिन ये कविताएं आईं उस रात मैंने चेहरे पर मुल्तानी मिट्टी लपेस रखी थी और पीलापन एकाकार हो रहा था. गुदा से बवासीर का ख़याल भी अनायास आ ही जाता है. बवासीर की एक वजह गुदा मैथुन भी है. संभव है गुदा में रोज़ ऊँगली डालने से भी बवासीर हो जाए. चूंकि लिंग-निरपेक्षता के विमर्श में भी इन दिनों मेरी कुछ रूचि हुई है तो मैंने अभी ही सोचा कि क्या गुदा में ऊँगली डालने की इच्छा रखने वाले किसी पुरुष कवि में अपनी गुदा में प्रेमिका की ऊँगली लेने की इच्छा उपजे, तो मने वह कुछ लिंग-निरपेक्ष होता चला आ रहा है? मैं नवयुवक था तो सोचता था कि गुदा मैथुन से शस्त्र (वह तब अस्त्र था जब मैं ऐसा सोचता था) पर गूं लग सकता है. मैंने एक बार एक कवयित्री के सामने अपना गुदा द्वार प्रस्तुत किया और उसने उसपर बर्फ़ रखा. पीड़ा मेरे माथे में हुई. मैंने सोचा कि गुदा द्वार तक पहुँचने की गली ऊपर माथे से उतर नीचे सुरंग तक पहुँचती है.
क्या सफल कविताओं के यही सब लक्षण नहीं होते कि आपमें विचार प्रवाह को गति मिले ? मैंने ठहरकर सोचा यह कुछ गुदा के बारे में. मैं चूंकि कार्यशाला समीक्षा में भरोसे वाला व्यक्ति हूँ, भुक्त यथार्थवादी समथिंग, शौचालय में बैठ पढ़ लिख रहा यह सब, झांक रहा नीचे, मुझे फ़िलिप्स ट्रिमर की आरज़ू है.
आचार्य खरे के विषय प्रवेश में योगदान के लिए, हाँ इसलिए, इसी लिए.
Anus is an impossibly difficult subject to write on -other than maybe medical histories- leave alone poetry. So to have come across the Hindi poems of Ambar Pandey and Monika Kumar on the anus was truly a discovery. And no doubt they are both talented and intrepid for to make the anus a subject of poetry in a culture as repressed as ours is an extraordinary act.
The poems deserve attention and not ridicule for ‘touching’ a taboo topic. So far there is no critique of the poems other than expressions of shock and disgust. Vishnu Khare’s is the only comment that engages with the poems and asks a fundamentally important question about the use of the word guda instead of gaand. And he is right in one way that the use of the word gaand would lead to a different sensibility and perhaps the use of the word guda is a domestication of the subversive tendencies of its alter ego. But this alone is not an adequate critique.
Reading these poems I was struck by the complementarity of these poems. Ambar Pandey’s and Monika Kumar’s poems on the anal region/ anus compliment one another. Ambar’s poems are specific describing the anal region of the lover and his claims over it and not over mundane things as the desire to surprise the beloved. There are regions in love where the beloved is autonomous but not so far as the regions of pleasure and pain are concerned. In writing these poems the poet is exploring the relation of humiliation, pain and masochism in love. At the same time one suspects he is really mocking all those who might dismiss these poems as obscene because these are also poems of tenderness and playfulness.
And yet one is left feeling uneasy with the ownership he so overtly claims over the female body: a body that is loved through humiliation. Not to mention his own unresolved emotion about the anus itself. Is the anus an object of humiliation or not? And is humiliation painful or pleasurable?
We know the beloved and her intimate experiences through him. She has no voice. In his first poem, “A description of the anus of the beloved” the anus is compared to a toothless and tongue-less mouth. He extends that metaphor to describe the current political environment. Her anus becomes a metaphor for the political, even though the professed claim of the poet is really to avoid the political. To that extent I suppose male writing can be political only at the expense of the feminine.
In the third poem however we hear the beloved’s voice as she resists the violent takeover of her body and reproaches the lover for adoring above all, her breasts because they are after all like men, impenetrable.
He begins with the denial to be political in the first poem and ends with an overtly political poem in the last. In his last poem he invokes the names of Lorca and Gramsci and places himself in line with persecuted writers. Here there is no ambivalence about humiliation. Humiliation is abhorred. Violence to the anus in this poem is unambiguously resisted. There is nothing to love but only a wish to survive the assault of the establishment and to strike back.
Monika’s poems are more straightforward. The anus here is projected as a metaphor of darkness, grief, terror, forbidden knowledge, and love. Her effort is really to rehabilitate the anus to poetry, philosophy and to the self. She locates the terror of the alienated self in the anus and finds it is only the mother who has no aversion to the anus and to all its darkness. Outside of mother’s lap there is only fragmentation of the self.
She finds a binary exists between the heart and the anus and that those who would seek love want from it only light, happiness and appreciation, and reject the darker regions of the soul just like the anus, which is the most uncared for and detested region of the body.
In Ambar’s poems there is an acceptance of the anus, its pleasure is identified and savoured. In Monica’s there is a desire to know the anal region. But this is a tentative reaching out not a full-bodied acceptance. As she says she hasn’t even begun to accept her hips entirely, what to speak of the anus. One can understand this reluctance, for to be a woman is to live with a conflicted relationship with one’s own body. In this lies the essential difference of how men and women perceive their bodies. Men own and dominate the female body and describe it variously to others and to themselves. Women cannot even begin to accept their own bodies fully.
Not surprisingly, Monica’s poems begin with the self but lead to a generalised expectation and hope that humanity may move towards an appreciation of the darker regions of the soul and the body. Her poems open with a specific reference to the self but the enquiry is not sustained and she end up mystifying the anus. The underlying anxiety of female sexuality is resolved by a generalisation and mystification of the demands of love.
There is much to be said about these poems and surely they need greater analysis but not the kind of vitriol one is seeing poured against these poems as also against the poets themselves.
अम्बर इस तरह के विवाद पैदा करता रहा है. इसकी कविता में ऐंद्रियकता जबरदस्त होती है.
बीजेपी आगे चलकर इसके साहित्य में रचे बसे धर्म और भारतीय संस्कृति का अच्छा फायदा उठाएगी या ऐसा लिखकर ये चालाक कवि इंडिया में बढ़ते और पूरी दुनिया में बढ़ते दक्षिणपंत का फायदा उठाना चाहता है. ऐसे लोग तब इसी का लिखा पढ़ेंगे. गुदा कविता इसकी इस रणनीति में कुछ अलग ही लग रही है.
यह तो केएम् मुंशी, आचार्य चतुरसेन, सिवानी और कविता में अज्ञेय के जैसा कवि है. साहित्य में शून्य है लेकिन मार्केटिंग में उस्ताद है ये पश्चिमी लौंडा.
मोनिका जी उम्दा कवियित्री है. इनसे आशा है. गुदा पर लिखकर इन्होने आशा पर पानी तो नहीं फेरा चूँकि बहुत अच्छी कवितायेँ पहले ही लिख चुकी है लेकिन आशा है आगे ऐसा अपराध फिर नहीं करेंगी. राजनीति पर ही लिखना था तो गुदा के बजाय शरीर विज्ञान का कोई और अंग का चुनाव कर सकती थी. मोनिका जी प्रगतिशील कवियित्रियों में सर्व श्रेष्ठ है यह मैं खुलेआम कहता रहा हूँ.
इतना अचरज होता है कि इन कविताओं पर पहली टीप जड़नेवाले विष्णु खरे जी की मौत हो गई. सबसे पहले उन्हें मेरी श्रन्दांजलि पहुँचे।
बहुत टाइम तक इन कविताओं पर टीप जड़ने से बचूंगा ऐसा मैंने सोचा था किन्तु अब नहीं. अम्बर ने साहित्य की दुनिया की हवा ख़राब की है. अविनाश जी से आशा नहीं की थी कि वह कभी ऐसे नीच व्यक्ति की कविता छापेंगे.
अविनाश जी, आप बताइये क्या आप इसको कवि मानते है?
यहाँ तो इसने गुदा पर कविता लिखी है मगर क्या इसने एक भी अच्छी कविता लिखी है?
योनियों में मशहूर हो जाने से ही क्या कोई कवि अच्छा हो जाता है?
औरतों में लोकप्रिय होने के अलावा अम्बर की कविता में आपने क्या देखा?
क्या अम्बर प्रतिक्रियावादी, जातिवादी, राष्ट्रवादी, सांप्रदायिक, फ़ासीवादी नहीं है?
इन सब के बावजूद आपने इसकी गुदा पर लिखी कवितायेँ छापी तो क्यों?
आशा नहीं पूरा विश्वास है के अविनाश जी इन सवालों के जवाब किसी न किसी माध्यम से देंगे.
बड़े बुजुर्ग साहित्यकारों का अपमान करना क्या अच्छे कवि होने की निशानी है?
नाम बदलकर शैली बदलकर तरह तरह की बोलियों और भाषाओँ में अलग अलग विधाओं लिखना ही क्या केवल अच्छे कवि होने की निशानी है?
क्या एक नीच से नीच आदमी अच्छा कवि हो सकता है?