कविताएँ ::
भूपिंदरप्रीत

भूपिंदरप्रीत

यह वह बात है

यह अंतराल की संध्या है
ख़ामोश रहने की सुबह
यह अंतर्ध्वनियों को सुनने का पल है
कविताओं में रहने की शाम

यह अपने साये से अजनबी होकर
गुज़रने का वक़्त है
ख़ाली हो रहे दिनों में
सूर्य रखने का क्षण

यह थकान से भरे बैल का
अपनी ही बोई फ़सलों पर
बैठने का दुख है
एक दूसरे की पगडंडी पर
रास्ता भूल जाने का सुख

यहाँ न किसी के साथ होना है
न किसी का साथ छोड़ना
कि यह तुम्हारे लिए
पापी बन जाने की संध्या है
अपने लिए पवित्र हो जाने की शाम

मैं अपने होने से

हिल-जुल हो रही है
जैसे मेरा शरीर मुझसे
अपनी मृत्यु के बारे पूछ रहा हो
और बता आत्मा रही हो

जैसे मेरे हाथ का स्पर्श
कुछ पूछ रहा हो तुम्हारे
हाथ के स्पर्श से
और जवाब कोई विचार दे रहा हो

जैसे अभी-अभी मैंने
कोई चीज़ कहीं रख दी हो
और कहीं भी न रखने के लिए
अब वह कहीं न मिल रही हो

जैसे सूखी हुई नदी
इंतिज़ार कर रही हो पानी का
और मैं एक बगुले की तरह
बैठा होऊँ चट्टान पर

हिल-जुल हो रही है
मांस के पीछे
हड्डी का ग्लोब है
जिसमें दिमाग़ क़ैद है

क़ैद में एक बदसूरत कीड़ा
मेरी ख़ूबसूरती को और
निखारने के लिए खड़ा है और
मैं दुनियादारी में मसरूफ़ हूँ

औषधियों से भरा कहाँ जाऊँ
मुझे एक लचकीला पाप चाहिए
ठोस पवित्रता को तोड़ता

वह क्या चीज़ है
जो तबाह कर देती है
जीने के विस्फोटक बिंदु को?

कान तुम्हारे कान में रखता हूँ
फिर भी मुझे अपने शरीर में
पानी के तैरने की आवाज़ आती है

और मैं तुम्हारे सुनने में डूब-डूब जाता हूँ

मेरे गुनाह के पैर नहीं हैं

मेरे हाथ काँप रहे हैं
आँखों में पीलापन है

मैं भरता जा रहा हूँ

चींटियाँ रेंग रही हैं
मेरी कोशिकाओं में

मैं यत्न कर अपने ऊपर खड़ा हूँ
मेरे गुनाह के पैर नहीं हैं
मेरे खेल के पास
कोई मैदान नहीं है

वह कह रहे हैं
मेरे लिंग के टुकड़े टुकड़े कर
मरुस्थल में फेंक देंगे

मैं झुकने की अदा में
बचे हुए वीर्य को
शब्दों में उड़ेल रहा हूँ

मैं उनकी नैतिकता के निशाने पर हूँ

मेरी आँखें
तालू पर चिपकी हुई हैं

मैं ‘कुछ भी नहीं’ से
‘कहीं तक भी नहीं’ जा रहा हूँ

डर रहा हूँ
और धीमे-धीमे
हल्दी के पहाड़ में फँसी
चींटी को देख रहा हूँ

मुझे रोको

अजीब परेशानी में हूँ

मुझे रोकने की
कोशिश करो

इतना निश्चिंत हो गया हूँ कि
पूछता तक नहीं—
संसार कैसे चल रहा है
नीत्शे के रब का पुनर्जन्म
हुआ कि नहीं?

मुझे सुरक्षा का
आभास तक नहीं रहा
सड़क मेरे ऊपर है
बैक-मिरर मेरे पीछे

बहूत स्लो ड्राइव कर रहा हूँ

मुझे रोको
कहीं
परेशानी को कुचल न डालूँ

अधूरा समझती हो न

यहाँ एक तरफ़ से
कटे हुए वृक्ष से
द्रव बह रहा है
क्या अपने वजूद से तुम मुझे
निकालना चाह रही हो?

सिम-सिम-सिप-सिप

क्या हम सभी अधूरा रहने को बाध्य हैं?

अधूरा समझती हो न
पूरा अधूरा
आधा-अधूरा नहीं

वह नहीं कि
थोड़ा फिसले और पीछे जाकर
फिर गीले फ़र्श को
साफ़ कर दिया
ख़त्म कर दिया
फिसलने का सौंदर्य

वह देखो
फ़रवरी की अधूरी-सी ठंड जा रही है
तुम डूबते सूर्य के दृश्य
क्यों खींच रही हो

आने वाले मार्च का अंतिम फूल
अभी से खिला है
अधूरी शाख़ पर

कैमरा तोड़ दो
तुम्हारी आँखों का द्रव
मेरी पुरानी तस्वीर से बह रहा है

शोक-गीत

टेढ़े रास्तों में
जब पत्थर साथ नहीं देते
नदी भी हो जाती है
गहरी

तुम्हारी डरी आवाज़ से
मेरी धमनियों में एक
शोक-गीत बनने लगता है
मेरी गहराई में डूबती
तुम्हारी असंतुलित मुद्राएँ
हाथ-पैर मारने लगती हैं

पीछे से कोई वरदान
तुम्हें पुकार रहा होता है
आगे से अपराध
और बीच में अंधा सूर्य लटका होता है
मुझे ज़िब्ह करने के लिए

पर जैसे कि हर मोड़ पर
हलकाया कुत्ता होता है
और आसमाँ में
जलने से डर रही कोई दिशा

मैं तुम्हें अंधे रास्तों से
बचकर जाने की अनुमति नहीं देता

और पतंगे की तरह चूमकर भस्म कर देता हूँ

होने मात्र के नाटक में

कोई भी सृष्टि नहीं चला रहा

तो क्या अपने आप होता जा रहा है सब?

जो नहीं हुआ, होने के लिए क्या
हो गए के नीचे से बहता आ रहा है
बहकर ख़त्म होने को?

हम कठपुतलियाँ नहीं हैं
ऐसी परछाइयाँ हैं जो कहीं कभी
पहले हो चुकी हैं
अंतहीन नाटक की यातना में

फिर आईं हैं पृथ्वी पर
थिएटर का पर्दा जलाने

हम बार-बार ख़ुद को
जानने के लिए पैदा होते हैं
यह दोहराव भर नहीं
दोहराव की नीरसता भर से
जाना जाने वाला सत्य है

चुटकी भर अनुभव को मिलाकर
अंतहीन ब्रह्मांड में
सोचते हैं
पत्थर का स्टेज हमारा हो गया

हमें पता ही नहीं
कि हम हैं ही नहीं
हमारे न होने का नाटक भी
हम ही कर रहे हैं

उस निर्देशक के निर्देशन में
जो अस्तित्व में है ही नहीं—

होने मात्र के नाटक में

जल्दी बताओ

दम घुटने का समय हो गया है
अब मैं
कविता लिख सकता हूँ

मानसिक दौरा है
जो शब्द के माध्यम से पड़ता है
और मैं बेहोश होने से ज़्यादा
बेहोश होने की
‘वजह’ हो जाता हूँ

क्या तुम उस गिरी हुई
बेबस वजह को
उठा सकती हो मेरे लिए?

कब से सोई हुई हो कविता में
मेरा एक-एक शब्द
तुम्हें नींद से जगा रहा है ?

मेरे उस आकार का क्या हुआ
जो मुझमें से टूटकर
तुम्हारे शब्द में फैलता गया?

और कह रही हो
घड़े में इतना तो पानी आता ही है
जितने मैं मछली अकेलापन न महसूस करे

जितनी सजग हो तुम कविता में
उतनी मेरी ‘वजह’ में क्यों नहीं?

जल्दी बताओ
दम घुट रहा है

मैं बेहोशी का और बोझ नहीं ढो सकता


भूपिंदरप्रीत (जन्म :1967) सुपरिचित-सम्मानित पंजाबी कवि हैं। उनके छह कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। समादृत हिंदी कवि-लेखक-अनुवादक रुस्तम के मार्फ़त उनकी कविताएँ पंजाबी से हिंदी में अनूदित होकर ‘समालोचन’ पर कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित हो चुकी हैं। यहाँ प्रस्तुत कविताएँ कवि ने सीधे हिंदी में ही संभव की हैं। इस प्रकार यह उनकी मूल हिंदी कविताओं के कहीं प्रकाशित होने का प्राथमिक अवसर है। उनसे bs4673977@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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