कविताएँ ::
निशांत कौशिक
भूल के सिरे से उगती तुम्हारी याद
तुमको देखता हूँ
जैसे भूलता हूँ
सामने दिखते फूल का नाम
जैसे भूलता हूँ
हथेली पर रखा
मीर का शे’र
जिसमें सरसों की भी बात है
तुमको देखकर याद आते हैं
नदियों के पुराने नाम
जिसमें सौंदर्य की छींट बची हो सकती है
पानी और इतिहास के अलावा
कविता के रोज़मर्रापन में
बार-बार हसीन व्याख्या की हक़दार हो
कुछ न काम आए
तो मनाऊँ तुम्हें कविता से
और तुम मानो मेरी मेहनत पर
कविता रद्द करो फिर भी
मैं जानूँ दुःख का सबब
कि कविता मेहनत से नहीं उपजती
तुम फूल का ग़लत नाम लो
और मैं उसको दबी ज़बान मानूँ
सुझाऊँ सही नाम किसी चिट्ठी में
गद्य में
बहुत प्रेम तुम गद्य से करो
फूल को फिर भी ग़लत पुकारो
क्रांतिकारी होने की हर छलाँग का एक पैर रजाई के अंदर है
इस उम्र में
हमें पता है
क्या बात चल रही है
हवा किस तरफ़ है
क्या पक्ष होने वाला है हमारा
इसी उम्र में
आपको स्वीकारना होगा
कि जीवन सुलझाने
या समझने की चीज़ नहीं है
न कोई पहेली है
न कोई समस्या
तुम्हारे निजी रूमाल में बाँधी हुई
यह भी कि चुप
न अज्ञानता है
न पलायन
उम्र वैसे यह सटीक दिखती नहीं
सँभलो या बिखरो
इसमें
जीवन का सही-सही विभाजन भी संभव नहीं
इस उम्र में अधिकतम कुछ ख़ास नहीं घटता
इतिहास में कभी पलटी हों सभ्यताएँ तो पता नहीं
लेकिन इसी उम्र में यह चिढ़ है
संदेह है
कि कोई न कोई कहेगा
कि यही तनाव उनके समय भी था
सरकार का प्रतिबंध तो और भी ज़्यादा था
उनके समयों में
कौन जाने उनको भी
चुपके से तानाशाह में गुण दिखने लगे थे
खोने और चुनने के दबाव में
कुछ खो देने की इच्छा सबकी थी
जिसे बाद में काश महान समझे इतिहास
काश हम किसी संजीदा ट्रेजेडी का हिस्सा हों
ज़िंदगी सही-सही जीने के दबाव हैं बहुत
क्रांतिकारी होने की हर छलाँग का एक पैर
रजाई के अंदर है
चुप रहने पर उलाहना है बहुत
नींद लगती भी है
तो खुलती है बासी मुँह लिए
उत्पाद
यात्रा अनुभव है
अनुभव अब एक वस्तु
जैसे दिल्ली और पेरिस एक अनुभव है
तैयार और संकलित
प्रसारित और प्रायोजित
पीड़ा है
असर है
असरअंगेज़ भी
लेकिन…
सही-सही कहना
बात उड़ा ले जाना लगता है
साँस से भी बहुत तेज़ है
यह जल्दबाज़ी
कि हुआ सो हुआ
कहा कैसे जाए
दिखें कैसे इसके इर्द-गिर्द
पकड़ें कैसे मज़े का सत्व
अर्थ बाँचने हैं सबको
हत्याओं के बाद सबको
अपना-अपना मुर्दा चुनना है
बेसन की फ़ैक्ट्रियाँ
यारों ने
पिताओं की बेसन फ़ैक्ट्री सँभाली
बाक़ियों ने बेसन की खपत
महानगर में मेट्रो के
दोनों कोनों पर बेसन था
बीच में
लार और उदासी को सोखते तकिये
घटनाएँ
तथ्य से ज़्यादा रूखी होती हैं
सारा जीवन
ऊब और मृत्यु के बीच
तनी हुई रस्सी है
सूर्यास्त एक दुःख भी है
जैसे क़ुर्रतुलऐन हैदर का वह उपन्यास
जहाँ पात्र शानदार शुरुआत के बावजूद
व्यवस्था की तरफ़ लौटते हैं
उपन्यास के अंतिम पृष्ठ पर भी
खुले न शायद कथा पूरी
कविता की अंतिम पंक्ति पर
लौटकर आ जाए
क्या पता! वही पहली बात
सभी शामें चिंतन के लिए नहीं होती
संभव है
कि चुप रहकर ही
सबसे अधिक भला किया हमने समाज का
हम बचे हैं
फूहड़ कहानी में शानदार खलनायक की तरह
निशांत कौशिक की कविताओं के प्रकाशन का ‘सदानीरा’ पर यह दूसरा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : जीने की तैयारियाँ कभी-कभी जीने से हसीन लगती हैं
बहुत ही सुंदर कविताएं है और बहुत ही अच्छे और नए मेटाफोर्स, खूब बढ़िए अच्छे रहिए।