कविताएँ ::
पंकज मिश्र

पंकज मिश्र

फ़रवरी की कविताएँ

प्रेम में नहीं रहा तो कहाँ रहूँगा

बातों में कब तक रहूँगा
कब तक कथाओं में
स्मृतियों में भी कब तक
देह में भी कब तक
घोंसले में कब तक रहूँगा

तुमने लौटते वक़्त
यह भी न पूछा कि कहाँ रहूँगा
अगर प्रेम में न रहा तो
कहीं का भी नहीं रहूँगा।

हाथ

उसने कंधे पर हाथ रखकर कहा—
रात है
मैं डर रही हूँ

मैंने कुछ नहीं कहा
बस!
हाथ पर हाथ रख दिया।

रात की हँसी

रात की चादर पर लिखो
कोई कविता लिखो
कोई ख़त लिखो
—उसने कहा
कहकर हँसी बेख़बर
अनजान कि रात की हँसी भी
ख़त हुआ करती है।

इस फ़रवरी

बात चली थी
चले हुए कितने बरस बीत गए
बात खो गई लगती है
बातों को उनके घर नहीं मिले
बातों को उनके घर मिल जाएँ
बातों को उनके रतजगे मिल जाएँ
मुझे तुम मिल जाओ
मैं कब से सोया नहीं हूँ।

अब मैं प्रेम में रहना चाहता हूँ

तुम मुझे अपने घर ले चलो
—कितनी बार मछलियों से मैंने प्रार्थना की
तुम मुझे अपने घर ले चलो
मैंने चिड़ियों से भी यही कहा
बारिश से भी यही कहा
हिरणों से भी यही कहा
नदी से भी यही कहा

रहने को मैं कहीं भी रह सकता हूँ
वर्षों मैं धोखे में रहा
अग्नि में रहा
विरह में रहा
आकाश में रहा
पाताल में रहा
मैं सबसे पहले
माँ के साथ घर में रहा
फिर हिस्सों में रहा
फिर अकाल में रहा

तुम मिल ही जाओगी वसंत में
किसी रोज तो कहूँगा—
तुम मुझे अपने घर ले चलो
अब मैं प्रेम में रहना चाहता हूँ।

रोना

मैंने पूछा था उससे—
कैसे देखना चाहती हो मुझे
आख़िरी बार

हमारे पास विकल्प थे
मैं उसकी हथेलियों में
अपनी हथेलियाँ पहना सकता था

एक सुदीर्घ चुंबन के साथ
अलग हो सकते थे
कुछ नहीं तो सड़क की उस भीड़ में
माथा ही चूम सकते थे

हम देख सकते थे
दूर तक जाते हुए
धीरे-धीरे बहुत दूर
जैसे धीरे-धीरे पास आए थे

लेकिन नहीं…
उसने कहा—
तुम्हें रोते हुए देखकर
विदा होना चाहती हूँ।

हथेलियों पर कपास

चन्ना कहती थी—
तुमने क्या हथेलियों पर कपास बोई है
तुम्हारी हथेलियाँ रूई जैसी हैं

याद है :
चौथी कक्षा में मास्टर की बेरहम मार से लाल मेरी हथेलियाँ अपने हाथ में लेकर तुमने कहा था—
इनमें अनार के फूल उग आए हैं
मास्टर से बचकर रहा करो

चन्ना! मैं मास्टर की बेरहम मार खाकर भी नहीं रोया!
मैं हड्डियों तक धँसा काँटा निकालते वक़्त भी नहीं रोया!
मैं मेले में खोने के बाद भी नहीं रोया!

अचानक एक रोज़ हाज़िरी रजिस्टर से तुम्हारा नाम लापता हो गया
मैं उस दिन ख़ूब रोया था।

कद्दू के फूल

एक गाँव था
जिसमें फूल खिलते थे
फूलों का कोई नाम नहीं था
एक जीवन था
जिसे गँवार कहा गया
एक कामचलाऊ भाषा थी
जिसमें सबसे दिलचस्प कहानियाँ थीं
एक भाषा थी
जिसे बोलने से अब झिझकता हूँ
एक रात थी
जिसके पास गिरवी पड़ी थीं नींदें
इतना समझदार हो गया हूँ
कि रोटी को हथेली पर रखकर खाने से बचता हूँ
वहीं छोड़ आया भाषा का सुख
वहीं छोड़ आया पानी का सुख

यह याद क्या कम है कि
कद्दू के फूलों का रंग याद रहा।


पंकज मिश्र की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह दूसरा अवसर है। कैलाश मिश्र के साथ संभव हुई उनके पत्रों की पुस्तक [स्मृतिलोक से चिट्ठियाँ] हाल ही में प्रकाशित हुई है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : सबसे सुंदर बात अभी कही नहीं गई

2 Comments

  1. Neelima sharma फ़रवरी 27, 2025 at 5:54 अपराह्न

    कविताएँ बहुत पसंद आयी ।

    शुभकामनाएं

    Reply
  2. रवि यादव फ़रवरी 27, 2025 at 6:18 अपराह्न

    बहुत सुंदर कविताएं।

    Reply

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