कविताएँ ::
पंकज मिश्र
दादी का पानदान
दादी मायके से आईं तो पानदान साथ लेकर आई थीं
दादी के साथ सुरैया भी आई थी
दादी अक्सर सुरैया से कहती थीं—
‘चार बज गए होंगे अब तो…’
और सुरैया पान लगाने बैठ जाती थी।
दादी सुपारियों को तराशते हुए
एकटक चंपा के पौधे को देखती रहती थीं,
दादी चंपा अपने मायके से लाई थीं।
अम्मा कहती थीं—
दादी अपने दुखों को पान में चबाती रहती थीं,
दादी ने दाँत इतने पैने कर लिए थे
कि दुखों को चबाने में दिक़्क़त न आए।
अचानक नक़्क़ाशीदार पानदान
ख़ानदान की मूँछ बन गया
इसके बाद जब भी दादी का नाम आया
तो पानदान के बाद आया
दादी के होंठ लाल थे,
फिर नीले हो गए,
फिर पीले… सफ़ेद
इस तरह फूल खिलते रहे उनके होंठों पर
फूलों के अपने-अपने दुख थे।
जे दुख फूलों के थे,
वही दुख दादी के थे।
दादी इतने फूलों को अपने शरीर कैसे सँभालतीं!
वे सभी रंगों को मिलाकर एक फूल होना चाहती थीं
जिसे वे सँभालकर रख सकें आत्मा की भीतरी जेब में
दादी का दुख कितना बड़ा था
कि जीवन भर सुपारियाँ फोड़ते हुए बीत गया
अम्मा सुनाती थीं :
दादी की कहानियाँ
कहती थीं—
दादी की तरह
मेरी देह पर भी
अलग-अलग रंग के फूल उगते थे।
अम्मा आज भी दादी के बूढ़े पानदान को
खुरच-खुरचकर साफ करती रहती हैं
अम्मा कहती हैं—
सदियों की कालिख है,
ऐसे कैसे साफ़ होगी!
कुनबे की नाकारा औलादें पानदान से
कालिख हटने का इंतज़ार करती रहती हैं
उनके सपनों में पानदान के टुकड़े आते हैं
अम्मा सभी रंगों को मिलाकर
एक फूल बनना चाहती थीं
मेरी बेटी अपनी परदादी के पैने दाँत बनना चाहती है
मैं टीबी की बीमारी से मरी दादी की
श्वेत-श्याम तस्वीर देखता रहता हूँ
जो 1936 में उनके पिता पुरानी दिल्ली के
किसी स्टूडियो से बनवाकर लाए थे
उनकी श्वेत-श्याम तस्वीर में कौन-सा रंग है?
मैं वह रंग होना चाहता हूँ।
याद में मछलियाँ
फूल पृथ्वी की याद में हैं
मछलियाँ नदी की याद में हैं
बारिश मिट्टी की याद में है
नींद मीठे स्वप्न की याद में है
चुम्बन होंठों की याद में हैं
फूल, मछलियाँ, बारिश, नींद सब लौटते हैं
लौटने वालों की एक लंबी फ़ेहरिश्त है
लौटने से बची हुई है पृथ्वी में धुक-धुक
नदी, बारिश, रातें, चुम्बन बार-बार लौटते हैं
अब तुम भी लौट आओ
पृथ्वी पर ख़ाली जगहें बढ़ती जा रही हैं।
हाथी भर याद
भूलना असंभव है
और यक़ीन भी नहीं होता
पूछना बनता है
इतने बरस बाद :
मैं तुम्हें कितना याद हूँ
याद हूँ तो मैं हूँ
भले चींटी भर ही सही
सुई की नोंक भर ही सही
रत्ती भर सही
बूँद भर सही
क्या मैं याद आया कभी
जब भादों की धूप में
थोड़ा-सा बादल गुज़रा
मैं यहाँ घोंसले में अकेला
माँ का इंतज़ार कर रहा हूँ
माँ तुम्हारी याद का चूँगा लेने गई है
तुम्हारी याद मेरा पेट भर देती है
इधर मैं तुम्हें हाथी भर याद करने लगा हूँ
अम्मा कहती हैं—
बहुत बड़ा होता है हाथी का पेट
क्या भर पाओगे उसे
मैं कहता हूँ—
हाँ
अब तुम्हारी याद
हाथी की तरह चलने भी लगी है।
दाख़िल ख़ारिज
प्रेम भी जीवन में इस तरह आया जैसे बचपन में
मेरे घर बैलगाड़ी आई थी
और उसके बाद दो जोड़ी बैल
जैसे तितलियाँ आईं रंगरंगीली
जिनके पीछे भागते हुए
जाने कितने दिन गुज़ार दिए,
कभी पकड़ न पाए
और मान लिया ये प्यारी हैं,
प्यार करो इनसे
भँवरा कालाकलूटा भनभनाता हुआ आया
और फूलों के मार्फ़त
मेरी स्मृतियों में दाख़िल हो गया
कुएँ आए जिनमें झाँकते हुए
देखते रहे अपना चेहरा
कुएँ की सुनते रहे आवाज़ें—
बाल्टी गिरने, भरने, खींचने की
भर-भर पकड़ाते रहे बाल्टी मोहब्बत के नाम
इसी बहाने उसकी पहली छुअन दर्ज हुई जीवन में
उसने कहा था कि प्यार नामुमकिन चीज़ है
यह उस वक़्त की बात है
जब हम देह को नहीं
चुम्बन को जानते थे
मेरे होंठों पर पहला चुम्बन
उम्र में पाँच साल बड़ी लड़की ने रखा था
इसके लिए मंदिर में राधाकृष्ण की मूरत के सामने वाली जगह को चुना था
किसी कमबख़्त ने देख लिया और घनघोर पाप की तरह इसे फैला दिया था
वह पापमुक्ति के लिए ब्याह दी गई और उसी बरस गाँव के कई कुएँ सूख गए थे
कितने पेड़ों से प्यार किया, नाम रखे
भरी दुपहरी अकेले में बतियाते रहे उनसे
प्रतीक्षा की टपकने वाले आमों की
कभी माँगे भी तो फ़ौरन
चू पड़े एक साथ कई टपके
इस तरह तमाम दुपहरियाँ
मिठुआ, मिर्चहा, रिढ़िया, गुद्दर के नाम होती रहीं
गाँव से तीन मील दूर बहने वाली नदी से प्यार किया
अम्मा से नज़र बचाकर जब तब उसे छूने चला जाता था,
एक बार एक कुत्ते पर रीझ गया
जिसके सिर को कीड़े खा रहे थे
मैं उसे घर ले आया,
लोगों ने मुझसे घृणा की,
कुत्ते से भी
मैंने कुत्ते से प्यार किया,
वह ठीक हो गया
प्यार से सुंदर कुछ भी नहीं है,
यह मैं जान गया था
बूढ़े पिता सँभाल नहीं पाए तो बैल बेच दिए
बैलगाड़ी के पहिये बचे, बाक़ी बारिश में गल गई
अख़बार में एक दिन ख़बर लिखते हुए रोने लगा
कि तितलियाँ अब ख़त्म हो रही हैं
भँवरे भी गुनगुन करते हुए नहीं दिखते हैं
कुँओं ने अवसाद में आत्महत्या कर ली है
बगिया में पेड़ों की एक-एक कर जान ले ली गई
लड़कियाँ अभी भी पापमुक्ति के लिए सोलह की उम्र में
ब्याह दी जाती हैं
ऐसी चीज़ों की फ़ेहरिश्त लंबी है
कैसे कहूँ कि प्यार करने लायक़
हर चीज़ खत्म हो रही है।
हँसी के मेले
हँसी की नदी कभी-कभी कहीं भी निकल पड़ती थी
हँसी की नदी कभी उल्टे पहाड़ों की ओर निकल पड़ी थी
हँसी के मेले थे जो बाद में लगने बंद हो गए
हँसी चैत की दुपहर में पलाश की तरह खिलती थी
हँसी के शामियानों में लेटकर हम जीवन के गीत गा सकते थे
कभी-कभी इतना हँसते थे कि सीखना पड़ता था रोना
कई बार हम एक-दूसरे को गुदगुदाकर हँसते थे
हँसी की कोई गुल्लक होती
तो उसमें जमा कर लेते थे हँसी की रेज़गारी
और ख़र्च करते रहते
एक बार हँसी के मेले में खो जाने का मन है।
सबसे सुंदर बात अभी कही नहीं गई
सबसे सुंदर दिनों में
मेरे पास एक साइकिल थी
एक जोड़ी कपड़े थे और एचएमटी की घड़ी
एक छाता था जिसे कभी भीगने नहीं दिया
ख़ुद ही भीगते रहे
हमारे पास ख़ूब बारिशें थीं
सबसे सुंदर भीगने के दिन थे
सबसे सुंदर दिनों में
हम चिट्ठियाँ लिखते थे
डाकिया बनते थे
चिट्ठियाँ बाँटते थे
चिट्ठियाँ बाँचते थे
सबसे सुंदर दिनों ने
हमें तुकबंदियाँ करना सिखाया
सबसे सुंदर दिनों में
हमने सुंदर बातों को
सँभालकर रखा अलमारियों में
और कहना भूल गए।
मैं अपने जीवन की सबसे सुंदर बात
अभी तक कह नहीं सका हूँ।
पंकज मिश्र (जन्म : 1977) शोध और आंचलिक पत्रकारिता के बाद इन दिनों खेती-बाड़ी और अध्यापन-कार्य से संबद्ध हैं। उनका दिलचस्प गद्य फ़ेसबुक पर प्राय: सराहनाएँ पाता रहा है। पर हमें लगता है कि यह उनकी कविताओं के प्रकाशन का प्राथमिक अवसर है, संभवतः ऐसा नहीं भी हो सकता है। हमें सीधे कवि से यह जानकारी लेते हुए संकोच हो रहा है, तब तो और भी जब उसके गद्य और उसकी उपस्थिति में एक काव्याचरण लक्ष्य किया गया हो। पंकज मिश्र से pankajrachna59@gmail.com पर बात की जा सकती है।
सारी सुन्दरताओं को कह दिया कवि ने । ‘ सबसे सुन्दर बात अभी कही नहीं गई ‘ कविता में। बेहतरीन कविताएँ ।
अच्छी कविताओं से मन खिल उठता है। ये कविताएँ ऐसी ही हैं।
शरद की हवाएँ हैं ये कविताएँ. बेहतरीन!
पंकज जी को बधाई। शानदार कविताएं हैं।