कविताएँ ::
प्रदीप्त प्रीत
सूखकर
दुपहर एक उच्चदाब से निकलकर
किसी कमरे में घुसने की इच्छा लिए
एक पात से दूसरे पात पर दौड रही है
यह शिशिर या वसंत का समय नहीं है
लोग उघारे बदन पंखों के नीचे ऊँघ रहे हैं
यह कोई मामूली दृश्य नहीं है
यह तमाम भावों से भरी-पूरी फ़िल्म का
साधारणीकरण है
और उस फ़िल्म का दुःखद अंत हो चुका है
नायक का हाथ एक ढलान पर
नायिका के हाथ से छूट गया
नहीं नहीं हाथ में कोई भी
पसीना-वसीना नहीं हुआ था
तुम सोचते रहो
लेकिन मैं बता रहा हूँ
यह बग़ैर किसी कारण नहीं हुआ था
नायक क्या करता!
संयोग से उसे यह बात पता थी कि
एक दिन कोई पास नहीं रहता है
लोगों की जगह उनका भ्रम रहने लगता है
जो यह झुठलाता रहता है कि नहीं नहीं वे हैं
यही बात उसे
अकेलापन स्वीकारने के लिए
मजबूर करती है
वह एक पूरी साँझ भागता रहा था
सारे लोग दूर निकल गए
उसने पथराई हुई आँखों की कोरों को
एक बार नाक तक खींच लिया था
वह बारिश का इंतिज़ार नहीं कर सकता था
वह गुलमोहर के पेड़ के नीचे गिरकर
सुख चुके गुलमोहरों के बीच बैठ गया था
वह एक सूख चुका
लाल धब्बा बनने के इंतिज़ार में था
सूखकर लाल धब्बा होना नियति है प्रेम की।
मैं अतिरिक्त
दुनिया में सबके लिए
अपनी-अपनी जगहें थीं
भर दी गई जगहों से बाहर
मैं अकेला अतिरिक्त था
मैं रंग नहीं पहचानता था
कर्म मेरे पीछे पड़ा रहा
कोई कुशल नटसम्राट था
किसी की आँखों में झलकता था
नई परंपरा का अद्वितीय रंग-निर्देशक
कई-कई नाटककारों से घिरा हुआ था मैं
मैं कुछ नहीं में भी कुछ नहीं था
चाय बनाता रहा
प्रॉप्स लाता
ले जाता रहा
भर दिए गए लोगों के बाद
मैं केवल मैं अतिरिक्त था
अतिरिक्त
सिर्फ़ अतिरिक्त सारे काम
मुझ अतिरिक्त के पास आते रहे
इसी अतिरिक्तता में
अतिरिक्त प्रेम मिला
वे जब भी आईं
अतिरिक्त दिनों को ही काटने आईं
अतिरिक्त जीने आईं
अतिरिक्त चूमने
अतिरिक्त लिपट जाने के लिए आईं
दुनिया की सारी अतिरिक्तताओं को जोड़कर
मैं अब भी बचा हूँ अतिरिक्त।
दाँव
उन्होंने साहस किया
उन्हें मालूम था
उनका हश्र क्या होना है
हुआ वही जो अक्सर होता रहा है
वाजिब सवाल पूछने वालों के साथ
बुत-सी खड़ी सेनाओं के नेपथ्य से
निकलकर आया
शांत-सा दिखने वाला
नौटंकी का खलनायक
उसकी सफ़ेद पोशाक पर
गिरी लहू की छीटें
अब उसकी आँखों में
लालिमा बनकर उभर आई हैं
वह कपड़े पर की गई कलाकारी का
दाँव खेलता है
बिना थके रात भर
काम करने का बहाना भी
जब कम पड़ जाता है
तब भीड़ में बैठे खलनायक का
जमूरा कहता है—
महाराज की आँखें सुंदर हैं…
देह
ज़िंदगी का भार
ढोते-ढोते थक जाओगे
बहुत ज़्यादा वज़न
उठा नहीं सकती तुम्हारी देह
दर्द तुम्हें होगा
क्योंकि रीढ़ की हड्डी तुम्हारी है
तुम सोचते हो
कोई देह आकर थाम लेगी
तुम्हें और तुम्हारे संत्रास को
यह कहते हुए—
साथी हाथ बढ़ाना…
नहीं होगा ऐसा कुछ भी
धमनियों ने आवेग सहा
साँसों ने साँसत में डाला
तब जाकर तुमने पाए—
गुलमोहर
अमलतास
और जंगल-जलेबी के फूल।
प्रेम का सामाजीकरण
पत्थर होती आत्मा में भी होता है प्रेम
किसी ताप, थाप और दाब से फूटता है प्रेम-बीज
एक नन्हा-सा पौधा बढ़ता है धीरे-धीरे
जड़ को धीमे से कहता है—
मैं जी नहीं पाऊँगा तुम्हारे बिना
यह महक गूँज उठती है हवा में
हवा में तैरने लगती है हवा
सारी परिभाषाएँ टाँग दी जाती हैं
उसी नन्हे पौधे पर
जीव-संवेदना की तख़्ती उठाए शाकाहारी
नज़र गड़ाए बैठे हैं उसी नन्हे पौधे पर
वीगन हो गए ख़रगोश ताक रहे हैं
उसी नन्हे पौधे की ओर
पौधे से बढ़कर बड़े हुए पेड़ ने कहा—
नहीं नहीं यह मेरे जैसा है ही नहीं
खाप पंचायतों का मजमा बैठता है
चिलम पर चिलम चलती है
घिसने से भी नहीं छूटता
पीकदान का एक पीलापन
ग्लोबल वार्मिंग में इज़ाफ़ा होता है
तो हो जाए
फ़ैसले का दिन आज ही मुकम्मल है
जब एक फुसफुसाहट पर फैल गया
इतना प्रदूषण
जब पेड़ ने तान दी अपनी क़नात
और खा गया उसके हिस्से का सूरज
तब पीले होते पौधे को इल्म होता है
नहीं कहनी थी जड़ से ख़तरनाक बात—
मैं जी नहीं पाऊँगा तुम्हारे बिना
एक दिन वह नन्हा-सा पौधा ओझल हो गया
वह कहीं है इसी प्रदूषित मृदा में
जड़ से जुड़े रहने के कई-कई रास्ते में से
किसी एक रास्ते पर
प्रेम में रहने का
कोई एक ही तरीक़ा है क्या भला!
यह दुनिया मुझसे तुम्हें छीन ले गई
एक अधूरी कविता
एक कविता जो लिख न सका
तुम्हें इतना-सा भी प्यार दे न सका
मैं आ न सका उन पलों में
जिनमें तुमने मुझे चाहा
चाँद की सोलह कलाओं को
देख न सका तुम्हारे साथ
जो तुम चाहती थीं
कोई घोर अँधेरी रात
कोई सर्द भारी सुबह
कोई एक कुल्हड़ गर्म चाय
कोई एक किनारा नदी का
जी न सका तुम्हारे साथ
जो तुम चाहती थीं
उस लाल पटियाला सूट में
किसी के माँगे गए स्कूटर पर
किसी बदनाम पार्क की बेंच पर
वह तुम्हारी दमकती काली बिंदी
चुरा न सका तुम्हारे साथ
जो मैं चाहता था
वह बिंदी मेरे जीवन का केंद्र है
मैं उसकी परिक्रमा करता एक निर्जीव ग्रह
मैं जितनी देर से मिला तुम्हें
उससे भी जल्दी तुम्हारा जाना रहा
तुम्हारे जाने के बाद
मैं बहुत बेबस और असहाय महसूस करता हूँ
मैं ऐसा कभी नहीं था तुम्हारे साथ
तुम यह नहीं चाहती थीं
प्रदीप्त प्रीत हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध कवि-लेखक हैं। ‘सदानीरा’ पर उनकी कविताओं के प्रकाशन का यह तीसरा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : बिन प्रेम किसी से लिपट जाने की सज़ा क्या हो सकती है